जनरेशन ज़ी (Gen Z) की नींद की समस्या: मोबाइल, तनाव और देर रात स्क्रॉलिंग से बढ़ रहा नींद का संकट

आज की डिजिटल दौड़ में जनरेशन ज़ी (Gen Z) नींद से दूर होती जा रही है। रातों को मोबाइल पर स्क्रॉलिंग, बढ़ता तनाव और लगातार ऑनलाइन रहना उनके दिमाग और शरीर दोनों को थका रहा है। यह सिर्फ़ एक आदत नहीं, बल्कि एक गंभीर स्वास्थ्य संकट बन चुका है।
आज की डिजिटल दौड़ में जनरेशन ज़ी (Gen Z) नींद से दूर होती जा रही है
आज की डिजिटल दौड़ में जनरेशन ज़ी (Gen Z) नींद से दूर होती जा रही हैPexels
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सार (Summary)

  • क्यों जनरेशन ज़ी (Gen Z) को नींद की समस्या हो रही है और इसका विज्ञान क्या कहता है।

  • कैसे मोबाइल, सोशल मीडिया और तनाव हमारी नींद को खराब कर रहे हैं।.

  • क्या हैं आसान उपाय जिनसे हम फिर से अपनी नींद को बेहतर बना सकते हैं।

नींद की कमी का विज्ञान, शरीर और दिमाग पर असर

नींद हमारे शरीर का आराम करने और खुद को ठीक करने का तरीका है। लेकिन आज की जनरेशन ज़ी यानी 12 से 25 साल की उम्र के लोग, रात में मुश्किल से 5 या 6 घंटे ही सोते हैं, जबकि हमें 8 घंटे की नींद ज़रूरी होती है।

जब हम देर रात तक मोबाइल, लैपटॉप या टीवी देखते हैं, तो उनसे निकलने वाली नीली रोशनी (ब्लू लाइट: Blue Light) हमारे दिमाग में बनने वाले “मेलाटोनिन” नाम के हार्मोन को रोक देती है। यही हार्मोन हमारे शरीर को बताता है कि “अब सोने का समय है।”

जब मेलाटोनिन नहीं बनता, तो दिमाग शांत नहीं हो पाता और नींद देर से आती है। इसके साथ-साथ, नींद की कमी से तनाव का हार्मोन “कॉर्टिसोल” बढ़ता है, जिससे गुस्सा, चिंता और थकान बढ़ती है। धीरे-धीरे यह आदत हमारी याददाश्त, ध्यान, पढ़ाई, और मूड को भी खराब करती है।

डिजिटल जाल, मोबाइल की लत और देर रात की स्क्रॉलिंग

आज के ऐप्स ऐसे बनाए गए हैं कि आप उन्हें छोड़ न सकें। इंस्टाग्राम (Instagram), यूट्यूब (YouTube), या टिकटॉक (Tik Tok), हर जगह “नेक्स्ट वीडियो” अपने आप चलती रहती है। हर स्वाइप या लाइक पर हमारे दिमाग को डोपामिन नाम का “खुशी वाला हार्मोन” मिलता है, जिससे हमें अच्छा लगता है और हम बार-बार ऐसा करते रहते हैं।

रात में जब हमें सोना चाहिए, तब यही मोबाइल हमें जगाए रखता है। कई बार हम सोचते हैं “बस पाँच मिनट और स्क्रॉल कर लूं,” लेकिन पता चलता है कि दो घंटे बीत चुके हैं। इस आदत को मनोवैज्ञानिक “रिवेंज बेडटाइम प्रोकास्टिनेशन” कहते हैं, यानी दिनभर की थकान और तनाव के बाद हम खुद को थोड़ी आज़ादी देने के लिए जानबूझकर देर तक जागते हैं। लेकिन इस “आज़ादी” की कीमत हमारी नींद चुकाती है।

तनाव, चिंता और तुलना का दबाव

सोशल मीडिया (social media) सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि तनाव का एक बड़ा कारण बन गया है। लोग अपने जीवन के सबसे अच्छे पल दिखाते हैं, जिससे दूसरों को लगता है कि वे पीछे रह गए हैं। जनरेशन ज़ी लगातार खुद की तुलना दूसरों से करती रहती है, “उसके पास ये है, मेरे पास क्यों नहीं?”

ऐसे विचार चिंता (anxiety) और तनाव (stress) को बढ़ाते हैं। जब हम तनाव में होते हैं, तो हमारा दिमाग लगातार सोचता रहता है और शांत नहीं होता। यही कारण है कि सोने से पहले दिमाग बंद नहीं होता और नींद गायब हो जाती है। इस तरह तनाव और नींद की कमी एक-दूसरे को बढ़ाते रहते हैं, एक बुरा चक्र जो मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ देता है।

सोने की संस्कृति का बदलना, पहले और अब में फर्क

पहले के समय में रात होते ही लोग काम खत्म करके आराम करने लगते थे। लेकिन अब रात का समय भी “स्क्रीन टाइम” (screen time) बन गया है। जनरेशन ज़ी (Gen Z) के लिए बिस्तर पर जाना मतलब मोबाइल पर समय बिताना, चैट करना, सीरीज़ देखना या स्क्रॉल करना।

समाज में “हमेशा व्यस्त रहो”, “कम सोओ, ज़्यादा काम करो” जैसी सोच बढ़ रही है। आराम करना अब लोगों को आलस लगता है, जबकि असल में आराम ही काम का सबसे बड़ा साथी है।इस बदली हुई सोच ने नींद को “विकल्प” बना दिया है, जबकि नींद एक ज़रूरत है।

नींद हमारी याददाश्त, ध्यान, और खुशियों की जड़ है।
नींद हमारी याददाश्त, ध्यान, और खुशियों की जड़ है।Pexels

नींद की कमी का असर, पढ़ाई, काम और व्यवहार पर

जब हम पूरी नींद नहीं लेते, तो हमारा ध्यान कमजोर हो जाता है। स्कूल में पढ़ाई याद नहीं रहती, काम में दिमाग नहीं चलता और छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि नींद की कमी से क्लास या ऑफिस में प्रोडक्टिविटी (productivity) 30% तक घट जाती है।

जो लोग लगातार नींद नहीं लेते, उनमें डिप्रेशन (Depression), चिंता और थकान बढ़ जाती है। कई बार शरीर बीमार पड़ जाता है, क्योंकि नींद न मिलने से हमारी इम्यूनिटी (रोगों से लड़ने की ताकत) भी कम हो जाती है।

एक जन स्वास्थ्य संकट, अब यह व्यक्तिगत नहीं रहा

अब यह समस्या सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति की नहीं रही। यह एक पब्लिक हेल्थ इश्यू (सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या) बन चुकी है। डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक कह रहे हैं कि स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को स्लीप एजुकेशन दी जानी चाहिए, ताकि वे नींद की अहमियत समझें।

कंपनियों और सरकारी संस्थानों को भी ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो कर्मचारियों के लिए मेंटल हेल्थ और रेस्ट टाइम को प्राथमिकता दें। अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया, तो यह पूरी पीढ़ी मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से थक जाएगी।

बेहतर नींद के लिए आसान उपाय

नींद वापस लाना मुश्किल नहीं, बस थोड़ा ध्यान और नियमितता चाहिए। रात को सोने से एक घंटा पहले मोबाइल, टीवी और लैपटॉप बंद कर दें। फोन का “नाइट मोड” या “ब्लू लाइट फ़िल्टर” ऑन रखें।

हर दिन एक ही समय पर सोने और उठने की कोशिश करें, ताकि शरीर की बायोलॉजिकल क्लॉक सेट रहे। सुबह थोड़ी देर धूप में जाएँ, हल्की एक्सरसाइज़ करें, और रात को हल्का खाना खाएँ। अगर तनाव ज़्यादा है, तो ध्यान (मेडिटेशन) या साँस लेने की तकनीकें मदद कर सकती हैं। सबसे ज़रूरी बात, नींद को “समय की बर्बादी” नहीं, बल्कि अपने शरीर का निवेश (investment) समझें।

निष्कर्ष

जनरेशन ज़ी (Gen Z) की नींद की समस्या किसी कमज़ोरी का संकेत नहीं है, बल्कि यह आधुनिक जीवन की तेज़ रफ़्तार का परिणाम है। अगर हमें आगे बढ़ना है, तो पहले रुककर आराम करना सीखना होगा। नींद हमारी याददाश्त, ध्यान, और खुशियों की जड़ है।

जब हम अपने शरीर और दिमाग को आराम देंगे, तभी हम अपनी असली क्षमता तक पहुँच पाएँगे। स्क्रीन बंद करना, जल्दी सोना और सुकून से आराम करना, यही इस “स्लीप क्राइसिस” का सबसे आसान और सच्चा इलाज है।

(Rh/Eth/BA)

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