
यहाँ तक की शारीरिक नुकसान
मोबाइल फ़ोन देखने से सबसे जयदा नुकसान हमारे शरीर को होता है, चाहे वो बच्चे हो या बड़े, चलिए जानते है ऐसा कौन सा हमारा शरीर का अंग है जिसे मोबाइल फ़ोन से ज्यादा नुकसान पहुँचता है।
माना जाता है की हमारे शरीर का सबसे सेंसिटिव पार्ट (Sensitive Part) हमारी आँखे होती है और लगातार मोबाइल जैसी छोटी स्क्रीन को देखने से आँखों में दर्द, धुंधला दिखना और कमजोरी आ सकती है।
अक्सर बच्चे देर रात तक मोबाइल देखते है जिस से मोबाइल से निकलने वाली नीली रोशनी (Blue Light) बच्चों की नींद उड़ा देती है। जिसके कारण नींद पूरी न होने से उनका शरीर कमजोर हो सकता है और पढ़ाई में मन नहीं लगता। यही नहीं बल्कि नींद पूरी न होने से मोटापा, कमजोर इम्युनिटी (Immunity) और विकास में बाधा जैसी समस्याएँ हो सकती हैं।
जो बच्चे घंटों फोन में व्यस्त रहते है, उसके पास बाहर जाकर खेलने-कूदने का समय ही कहाँ बचता है? यह गतिहीन जीवनशैली (Sedentary Lifestyle) मोटापे, मांसपेशियों में कमजोरी और हड्डियों के कमजोर होने का सीधा कारण बन रही है। WHO ने बचपन के मोटापे को एक गंभीर वैश्विक समस्या घोषित किया है।
यहाँ तक की वर्चुअल दुनिया में ज्यादा समय बिताने वाले बच्चे असली दुनिया में लोगों से ऑय कांटेक्ट (eye-contact) बनाने, बातचीत करने और रिश्ते बनाने में कमजोर होते जा रहे हैं। उनमें सोशल एंग्जायटी (Social Anxiety) बढ़ रही है।
सबसे ज्यादा तो सोशल मीडिया पर दिखाए गए ' परफेक्ट लाइफ' के चलते बच्चों में अपनी तुलना दूसरों से करने की, 'लाइक' और 'व्यूज' पाने की होड़ लगी रहती है। इससे आत्म-सम्मान (Self-Esteem) कम होता है, बेचैनी (Anxiety) और अवसाद (Depression) जैसी भावनाएँ पनपती हैं। एक शोध के अनुसार, जो किशोर दिन में 5-7 घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम बिताते हैं, उनमें अवसाद (Depression) के लक्षण अधिक पाए गए है |
यहाँ तक की मोबाइल पर तेजी से बदलते कंटेंट (content) रील्स, शॉर्ट वीडियो, बच्चों के दिमाग को आदत डाल देते हैं कि हर चीज तुरंत और रोमांचक मिलनी चाहिए। इससे उनकी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता (Concentration Power) और धैर्य (Patience) दोनों ही घट रही है, जिसका सीधा असर उनकी पढ़ाई पर पड़ता है।आज के डिजिटलाइज़्ड वर्ल्ड में बच्चे ऑनलाइन हैरासमेंट और साइबरबुलिंग (Cyberbullying) का भी शिकार हो रहे हैं, जिससे गंभीर मानसिक आघात हो रहे हैं।
क्या कहती है रिसर्च ?
दुनिया की सबसे मशहूर स्वास्थ्य संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का कहना है कि 2 साल से कम उम्र के बच्चों को तो मोबाइल बिल्कुल ही नहीं देना चाहिए। 2 से 5 साल के बच्चों को भी दिन में सिर्फ 1 घंटा ही मोबाइल देखने देना चाहिए। अमेरिकन एकेडमी ऑफ चाइल्ड एंड अडोलेसेंट साइकियाट्री (AACAP) बताती है कि अत्यधिक स्क्रीन टाइम बच्चों में हिंसक व्यवहार (violence), सिगरेट, ड्रग्स या सेक्स जैसे व्यवहारों के प्रति आकर्षण बढ़ा सकता है। भारत के प्रसिद्ध AIIMS जैसे अस्पतालों के डॉक्टर भी बच्चों में मोबाइल की लत को गंभीर समस्या मानते हैं।
माता-पिता के क्या रोले हैं !
बच्चे के सबसे करीब जो रहते है वो है उनके माता-पिता और इस समस्या को ठीक करने के लिए पहला जो पहल होना चाहिए वो माता - पिता के तरफ से हो तो ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। माता-पिता अपने बच्चो के लिए समय सीमा तय करे की बच्चो के लिए रोज का एक निश्चित समय क्या होना चाहिए, मोबाइल फ़ोन देखने के लिए। बाहर खेलने के लिए प्रेरित करें उन्हें पार्क ले जाएँ, उनके साथ खेलें, ताकि उनका मन बाहर की गतिविधियों में लगे। और कोशिस करे की बच्चो के सामने खुद भी मोबाइल फ़ोन का कम उपयोग करें, बच्चे वही सीखते हैं जो वो देखते हैं। अगर आप खुद ही दिनभर फोन में लगे रहेंगे, तो बच्चे से अच्छी आदत की उम्मीद नहीं कर सकते।और अगर मोबाइल देना ही है, तो उन्हें अच्छी चीज़े दिखाए जैसे की एजुकेशनल गेम्स, कार्टून जो कुछ अच्छा सिखाएँ।
निष्कर्ष
मोबाइल फोन ज्ञान का खजाना है, लेकिन इसका सही इस्तेमाल करना जरूरी है। क्योकि ये जितनी सुविधाएं प्रदान करती है उससे कई ज़्यादा नुक्सानदायी भी साबित होती हैं | बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए जरूरी है कि हम उनकी इस आदत पर नजर रखें और उन्हें संतुलन का महत्व सिखाएं। उनका बचपन सिर्फ मोबाइल की स्क्रीन में कैद होकर न रह जाए, इसका ध्यान रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।
[RH/SS]