Rasoolan Bai, the folk singer of history who was called a Tawaif by the society: 'जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ', ‘फूल गेंदवा के ना मारो लागत जोबनवा मे चोट हो’ जैसे अद्भुत शास्त्रीय संगीत के कलेवर में लिपटे लोकगीतों के बारे में हमने अपने दादा-दादी से सुना है। मेरी दादी अक्सर ये गीत गुनगुनाया करतीं थीं। मैं जब कहता था कि दादी आपने संगीत के क्षेत्र में पैर क्यों नहीं रखा तो उनका जवाब होता था कि तब औरतों को ये आजादी नहीं थी। नाचने-गाने वाली कलाकारों को ज़माना तवायफ़ करार दे देता था। वाकई, उस जमाने में लता मंगेशकर, शमशाद बेगम, बेगम अख्तर, आदि जैसी गायिका हुईं, जिन्होंने एक अलग पहचान बनाई। पर इन सबके अलावा भी एक तपका ऐसा रह गया जो बदनामी के बादलों के नीचे पला।
आज हम बात कर रहे हैं रसूलन बाई (Rasoolan Bai) की, जिनको उस समय के तत्कालीन समाज ने 'तवायफ़' करार दे दिया था। वो एक ऐसा दौर था जब पूरा समाज बहुत ही संकीर्ण मानसिकता में बुरी तरह से जकड़ा हुआ था। और उसी मानसिकता का परिणाम था कि उस वक्त की गाने-नाचने वाली स्त्रियों को तवायफ़ कहा जाता था। समाज का यह एक दोहरा चेहरा हमेशा से रहा है, कि जिसे वो बदनाम करता था उसे ही अपने शादी ब्याह आदि कार्यक्रमों की महफ़िल बनाने के लिए बुलाता भी था।
'फूल गेंदवा के ना मारो लागत जोबनवा मे चोट हो', एक प्रसिद्ध बनारसी ठुमरी है। और इस ठुमरी में और भी जान तब आ जाती है जब हम इसे प्रसिद्ध गायिका Rasoolan Bai की आवाज में सुनते हैं। दरअसल उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण अञ्चल की लोकसंस्कृति, लोकगीत वहाँ के जीवन का दर्पण है। जो अब धीरे-धीरे कहीं न कहीं कंक्रीट के सड़कों के नीचे दफन होती जा रही है और जिसे सँवारने के लिए सरकार तरह-तरह के प्रयास कर रही है। इसीमें से एक है उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गांवों के लिए म्यूजिक किट का ऐलान।
खैर, तो हम बात कर रहे थे लोकगीतों की। कजली, चैती, ठुमरी, ठप्पा, होरी और सावनी जैसे लोक गीत उत्तर प्रदेश, बिहार और राँची के गाँवों का उलास है। लोक कला का यह अभिन्न अंग जीवन के सुख दुःख, हर्षोल्लास, विषाद, मैत्री, बिछोह और मिलन की अनगिनत कहानियों को खुद में लपेट कर सबके सामने आता है। आज से 50-60 पहले तक यही एक साधन था जिससे ग्रामीण स्त्रियाँ अपने विचारों को अभिव्यक्त कर पाती थीं। पर जिस भी स्त्री ने इस साधन से आगे बढ़कर कदम रखा उसे समाज ने गालियां और बदनामी देकर उसका स्वागत किया।
आज बात हो रही है ऐसी ही एक लोक गायिका 'रसूलन बाई' (Rasoolan Bai) की, जिनका जन्म 1902 में कछवा बाज़ार, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) के एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। रसूलन को संगीत अपनी माँ से विरासत में मिला था। कम उम्र में ही उन्होंने रागों को आत्मसात करना शुरू कर दिया था। नतीजा ये हुआ कि 5 साल की उम्र में ही उनके इस कौशल को देखते हुए उन्हे संगीत की शिक्षा के लिए उस्ताद शमू खान के पास भेजा गया। बाद में उन्हें सारंगी वादक आशिक खान और उस्तान नज्जू कहाँ के पास भेजा गया।
कहा जाता है कि रसूलन बाई की गायकी का पहला आयोजन धनंजयगढ़ की अदालत में किया गया था, जहां उन्हें अपार सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्हें स्थानीय राजाओं के निमन्त्रण आने लगे। फिर वो उनके यहाँ अपने गायकी के कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू कर दीं। इसी क्रम में वो अगले 50 सालों तक ऐसी गायिका बनी रहीं जिनका हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली और बनारस घराने पर धाक जमा रहा। 1948 में उन्होंने मुजरा-प्रदर्शन करना बंद कर दिया और बदनाम कोठे की चौखट को पार कर गईं। इस घटना के बाद उनकी शादी एक स्थानीय बनारसी साड़ी व्यापारी के साथ हुई।
1957 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी द्वारा ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
पर 1969 का वर्ष उनके जीवन का घोर निराशा भरा समय लेकर आया। बनारस में उसी वर्ष सांप्रदायिक दंगा भड़क और उन्हीं दंगों में रसूलन बाई का घर जला दिया गया। इसके बाद उनका जीवन एक कठिन पड़ाव पर आ गया, जिसका परिणाम ये हुआ कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन आकाशवाणी (महमूरगंज, बनारस) के बगल में अपनी एक चाय की दुकान खोलकर बिताए।
15 दिसंबर 1974 को इस अद्भुत व्यक्तित्व का निधन हो गया।
आज हम उनके मृत्यु के इतने वर्षों बाद जब उनके बारे में जानने के लिए इंटरनेट का कोना-कोना खंगाल रहे हैं तो जानकारी के नाम पर ज्यादा कुछ हाथ नहीं लग रहा। इसका एक कारण हो सकता है उनके दौर का उनके समुदाय का इतिहास किसी ऐसे हाथों ने लिखा हो जो, स्वयं के विचारों को रखने वाली स्त्रियों की सदा भर्त्सना करता रहा हो।