दादा-दादी की छांव से दूर बच्चों का जीवन कैसा बन रहा है ?

एक समय था जब घर के आँगन में दादी की कहानियों की महक होती थी, नाना के साथ सुबह की सैर और नानी के हाथ के बने लड्डुओं की मिठास... लेकिन अब समय बदल गया है। बदलते सामाजिक ढांचे, नौकरी-पेशे की मजबूरियों और शहरीकरण ने बच्चों और उनके दादा-दादी या नाना-नानी के बीच की वो आत्मीयता कहीं पीछे छोड़ दी है।
ग्रैंडपेरेंट्स डे यानी बुज़ुर्गों के लिए समर्पित एक दिन
ग्रैंडपेरेंट्स डे यानी बुज़ुर्गों के लिए समर्पित एक दिन
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हर साल सितंबर में 'ग्रैंडपेरेंट्स डे' मनाया जाता है — दुनिया भर में अलग-अलग तारीख़ को 'ग्रैंडपेरेंट्स डे' मनाया जाता है ,लेकिन मकसद एक ही है I हमें यह याद दिलाने के लिए कि हमारे जीवन में दादा-दादी या नाना-नानी की क्या अहमियत है।

ग्रैंडपेरेंट्स डे क्यों मनाया जाता है ?

ग्रैंडपेरेंट्स डे यानी बुज़ुर्गों के लिए समर्पित एक दिन। भारत में इसे ज़्यादातर स्कूलों में ‘दादा-दादी दिवस’ के रूप में मनाते हैं। अमेरिका में यह सितंबर के दूसरे रविवार को लेबर डे के बाद मनाते हैं, और वहीं से यह परंपरा बाकी देशों में भी फैल गई।

इसका मकसद सीधा है बच्चों को उनके बुज़ुर्गों के करीब लाना और उन्हें यह समझाना कि हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमारे जीवन का आधार हैं। वे सिर्फ कहानी सुनाने वाले लोग नहीं हैं, वे हमारी संस्कृति, परंपराओं, और मूल्यों के जीवित स्तंभ हैं।

हम में से अधिकतर लोग अपनी दादी-नानी से कहानियां सुनते हुए बड़े हुए हैं। वो कहानियां केवल मनोरंजन नहीं होतीं, वे जीवन का पाठ होती हैं।

बच्चों के विकास में बुज़ुर्गों का रोल

बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में दादा-दादी और नाना-नानी की भूमिका बहुत अहम होती है। वे सिर्फ प्यार और सुरक्षा ही नहीं देते, बल्कि उन्हें संस्कार, अनुशासन और भावनात्मक स्थिरता भी देते हैं। छोटे बच्चों के लिए दादा-दादी या नाना-नानी आदर्श होते हैं। उनके साथ बिताया गया समय बच्चों के विकास की नींव मजबूत करता है।” जब माता-पिता दोनों कामकाजी हों, तब दादा-दादी या नाना-नानी बच्चों की देखभाल में बड़ी भूमिका निभाते हैं I वे सिखाते हैं, समझाते हैं और अपनी जीवन-शैली से प्रेरणा देते हैं।

दादा-दादी और नाना-नानी केवल रिश्ता नहीं हैं, वे जीवन का अनुभव हैं I
दादा-दादी और नाना-नानी केवल रिश्ता नहीं हैं, वे जीवन का अनुभव हैं I

एकल परिवार और संयुक्त परिवार

आजकल शहरों में एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा रहा है। इसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं, लेकिन दादा-दादी साथ नहीं रहते। इस व्यवस्था के अपने फायदे हैं जैसे अधिक स्वतंत्रता, कम जिम्मेदारियां लेकिन इससे रिश्तों में दूरी भी बढ़ती है। “दादा-दादी अकेलापन महसूस करते हैं। बच्चे भी उनसे दूर रहकर भावनात्मक तौर पर अधूरे रहते हैं,I

आज प्रौद्योगिकियों ने दूरियों को कम कर दिया है। वीडियो कॉल, व्हाट्सएप, ऑनलाइन चैट इन सब से हम जुड़ सकते हैं, भले ही मीलों दूर हों। मगर क्या यह जुड़ाव असली होता है ? तकनीक से रिश्ते निभाए जा सकते हैं, पर महसूस नहीं किए जा सकते। “मानवीय स्पर्श की अहमियत कोई तकनीक नहीं ले सकती।” अगर काम के कारण माता-पिता को दूर रहना पड़े, तो बच्चों को समय-समय पर दादा-दादी से मिलवाते रहना चाहिए। छुट्टियों में बच्चों को उनके पास भेजना भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूलों को बच्चों से समय-समय पर पूछते रहना चाहिए कि उन्होंने अपने दादा-दादी या नाना-नानी से क्या सीखा? उनकी कौन-सी कहानी उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद है? ये छोटे-छोटे संवाद बच्चों को अपने बुज़ुर्गों से जोड़े रखने में मदद करेंगे।

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तीन पीढ़ियों के बीच संतुलन ज़रूरी है

आज के दौर में हम तीन पीढ़ियों के बीच की खाई को बढ़ते देख रहे हैं, तीन पीढ़ियों के बीच आते हैं, बच्चे माता-पिता और दादा-दादी। जहां माता-पिता नौकरी में व्यस्त हैं, वहीं दादा-दादी अकेले होते जा रहे हैं, और बच्चे इस भागदौड़ में अकेले हो रहे हैं I दादा-दादी के बिना कई बार बच्चे गलत आदतों का शिकार भी हो रहें हैं। ऐसे में ज़रूरत है संतुलन बनाने की। समय निकालने की,और यह समझने की कि हमारे बच्चे सिर्फ स्कूल या ट्यूशन से नहीं, बल्कि अपने घर के बुज़ुर्गों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

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