
दमयंती तांबे (Damayanti Tambe), एक ऐसा नाम जो भारतीय खेल इतिहास में सम्मान के साथ लिया जाता है। छह बार की राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन और अर्जुन पुरस्कार विजेता, दमयंती ने अपनी मेहनत और दृढ़ संकल्प से देश को गौरवान्वित किया। लेकिन उनकी ज़िंदगी सिर्फ़ खेल के मैदान तक सीमित नहीं रही। उनके जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष उस दिन शुरू हुआ, जब 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनके पति, फ्लाइट लेफ्टिनेंट विजय वसंत तांबे, सीमा पार उड़ान भरने गए और फिर कभी लौटे नहीं।
5 दिसंबर 1971 की ठंडी सुबह थी। अंबाला एयरबेस पर सूरज की किरणें रनवे पर चमक रही थीं। फ्लाइट लेफ्टिनेंट विजय तांबे अपने नीले ओवरऑल में सधे कदमों से अपने सुखोई Su-7 विमान की ओर बढ़ रहे थे, और उनके हेलमेट पर लिखा था "अंकल" जो उनके साथी वायुसैनिकों का प्यारभरा नाम था। आपको बता दें उस दिन उनकी आख़िरी उड़ान थी लेकिन यह बात किसी को यह मालूम नहीं था।
विजय के ज़ेहन में उस वक्त बस एक ही चेहरा घूम रहा था, वो बात था उनकी 18 महीने की पत्नी दमयंती का, क्योंकि उनकी पत्नी को अकेलापन बिल्कुल भी पसंद नहीं था और हर बार जब विजय पूछते थे कि "आज तुमने घर में क्या किया?", तो जवाब मिलता, "इंतज़ार!"। उसके बाद विजय ने अपने मिशन लीडर स्क्वाड्रन लीडर वी. के. भाटिया के साथ टेकऑफ किया। उनका मिशन था पाकिस्तान के शोरकोट रोड एयरबेस पर हमला करना, इसके लिए दोपहर का समय इसलिए चुना गया था ताकि दुश्मन सतर्क न हो। लेकिन अनुमान गलत साबित हुआ। पाकिस्तानी रक्षा तैयार थी, सौ से ज़्यादा एंटी-एयरक्राफ्ट तोपें भारतीय विमानों की राह देख रही थीं।
दोनों भारतीय विमानों ने लक्ष्य पर निशाना साधा। लेकिन जैसे ही विजय नीचे झपटे, उनके Su-7 पर गोलाबारी होने लगी। उसके बाद उन्होंने महसूस किया कि उनका विमान धुएं से घिर गया है। फिर भाटिया के रेडियो पर आखिरी शब्द गूंजे "टांबे, बाहर निकलो!" और फिर आसमान में एक भयानक धमाका हुआ। विमान जमीन से टकराया, और सब कुछ आग के गोले में बदल गया। उस वक्त 22 साल की दमयंती तांबे (Damayanti Tambe) अंबाला में अकेली थीं। रातभर बमबारी की आशंका में वह घर के बाहर एक खाई बनी हुई है उसी में छिपी रहीं। उनकी जेब में एक चम्मच और रुई का टुकड़ा था, क्योंकि उनके पति ने उन्हें सिखाया था कि बम धमाके के समय जबड़े जाम न हों तो कुछ पकड़ना चाहिए।
अगले दिन दोपहर में कुछ वायुसेना अधिकारी उनके घर पहुँचे और कहा कि वह कुछ दिनों के लिए अपने माता-पिता के पास चली जाएँ। उन्हें यह नहीं बताया गया कि उनके पति के साथ क्या हुआ है। दमयंती ने चुपचाप घर बंद किया, और फिर वो अपने माता पिता के घर जाने के लिए पैदल ही घर से निकल गई और पैदल ही रेलवे स्टेशन तक पहुँचीं। उसके बाद कालका मेल पकड़कर वह इलाहाबाद पहुँचीं, जहाँ उनके माता-पिता रहते थे।
6 दिसंबर की रात, उन्होंने रेडियो पर पाकिस्तान से प्रसारित खबर सुनी जिसमें भारतीय युद्धबंदियों के नाम पढ़े जा रहे थे। वहाँ एक नाम आया "फ्लाइट लेफ्टिनेंट विजय वसंत तांबे।" दमयंती (Damayanti Tambe) का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। यह उनके लिए उम्मीद की किरण थी। दो दिन बाद भारत सरकार का एक टेलीग्राम आया जिसके द्वारा यह बताया गया कि "आपके पति युद्ध में लापता हैं।" उसके बाद दमयन्ती बताती हैं कि "उस पल मुझे राहत मिली कि कम से कम वह ज़िंदा हैं। पाकिस्तान ने उनका नाम खुद घोषित किया था, तो मैं यक़ीन से कह सकती थी कि वो लौटेंगे, उन्होंने कहा कि मुझे कभी ऐसा कभी नहीं लगा कि वह वापस नहीं आएंगे।"
साल बीतते गए। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धबंदियों की सूचियाँ बदलती रहीं, पर विजय तांबे का नाम कभी वापस नहीं आया। भारतीय वायुसेना और पाकिस्तानी रिकॉर्ड दोनों में उन्हें "दुर्घटना में शहीद" बताया गया। लेकिन दमयंती ने इस बात को कभी नहीं माना। उन्होंने कहा कि "अगर मेरा पति मरा होता, तो उसका नाम रेडियो पाकिस्तान पर क्यों लिया जाता?"उनका विश्वास था कि विजय जलते विमान से बाहर निकले और पकड़े गए। यही विश्वास उनके जीवन की ताकत बन गया।
दमयंती तांबे ने इस व्यक्तिगत त्रासदी के बावजूद हार नहीं मानी। उन्होंने अपने जीवन को रुकने नहीं दिया। वह खेल के मैदान में लौटीं और भारतीय बैडमिंटन में महिलाओं के लिए प्रेरणा बन गईं। उन्होंने युवा खिलाड़ियों को प्रशिक्षित किया, और अपने पति की स्मृति को सम्मानित करने के लिए कई चैरिटेबल कामों से खुद को जोड़ा। आज, जब वह 72 वर्ष की हैं, तो भी अपने पति की याद में उसी मजबूती से खड़ी हैं। सफेद सलवार-कमीज़ और सफेद बालों के साथ, वह शांत आवाज़ में कहती हैं कि "सिर्फ सेहत के सहारे उमर तो कटती नहीं।"
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उनकी आंखों में न हार का दर्द है, और न ही बेबसी है, बस दृढ़ता और एक अनंत इंतज़ार की झलक है। वो मुस्कुराते हुए कहती हैं कि "यह मेरा फितूर है, मेरा जुनून है। यही मेरे जीवन को मायने देता है।" दमयंती और विजय की कहानी सिर्फ़ पति-पत्नी का रिश्ता नहीं है, बल्कि प्रेम, साहस (Courage) और देशभक्ति का जीवित उदाहरण है। एक ओर देश के लिए जान देने वाला योद्धा, और दूसरी ओर वही ताकत अपनी आत्मा में समेटे एक स्त्री ने अपनी आधी सदी तक अपने प्रेम को ज़िंदा रखा।
50 साल बाद भी, दमयंती अब भी अपने पति की वापसी की खबर का इंतज़ार करती हैं। हर बार जब विमान उड़ता है, तो उन्हें लगता है कि शायद किसी दिन, कोई उनके विजय का संदेश लेकर आएगा।
निष्कर्ष
दमयंती तांबे (Damayanti Tambe) की कहानी सिर्फ़ एक युद्ध नायक की विधवा की कथा नहीं है। यह कहानी है विश्वास की ताकत की, उस प्रेम की जो मौत से भी आगे बढ़ गया, और यह उस भारतीय नारी की गाथा है, जिसने अपने पति के लिए लड़ाई छोड़ी नहीं बस उसका रूप बदल दिया।
वह हमेशा कहती रहीं की "विजय गया है, पर मेरी उम्मीद नहीं।" और यही उम्मीद आधी सदी बाद भी दमयंती तांबे को भारतीय स्त्री शक्ति का प्रतीक बना देती है। [Rh/PS]