जब भी प्रकृति के संरक्षण की बात होती है तो एक ऐसे शख्स का नाम हर किसी की जुबान पर होता है जिसने अपनी 24-25 की आयु में ही अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। पहला आदिवासी नायक जिसने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में एक अलग और अमित पहचान बनाई।जिसके अदम्य साहस और तीर धनुष के आगे अंग्रेजों के भी पसीने छूटते थे। लोग इन्हें प्यार से धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा (Dharti Aaba Bhagwan Birsa Munda) कहकर पुकारते थे। धरती आबा का मतलब होता है- 'धरती का पिता'। जल, जंगल और जमीन के प्रति एक सच्चे भक्त की मिसाल, Birsa Munda ने अपने जन्मस्थली उलिहातू से लेकर कर्मस्थली बंदगांव तक ऐसी हजारों कहानियाँ गढ़ी, जो आज भी वहाँ के निवासी अपने बच्चों को सुनाते हैं। इस अद्भुत व्यक्तित्व का जन्म 15 नवंबर, 1875 को उलिहातू में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी था।
1899-1900 के बीच मुंडा विद्रोह इतिहास के पन्नों में एक चर्चित विद्रोह है, जो छोटा नागपुर (झारखंड) के क्षेत्र में हुआ था। इस विद्रोह को ‘मुंडा उलगुलान’ (विद्रोह) के नाम से भी जाना जाता है। इस विद्रोह की शुरुआत, अंग्रेजों द्वारा मुंडा जनजाति की पारंपरिक व्यवस्था, खूंटकटी (Khuntkatti system) की ज़मींदारी व्यवस्था से छेड़छाड़ के कारण हुई। जिसके तहत ब्रिटिश सरकार और उनके द्वारा नियुक्त जमींदार, आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन समेत अन्य प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करते जा रहे थे। इसके बाद Birsa Munda ने जनता को एकत्रित करके अंग्रेज़ों को करों और साहूकारों को ऋण/ब्याज का भुगतान न करने के लिये जागृत किया। उनके इस विद्रोह में महिलाओं का भी विशेष योगदान रहा।
उनके द्वारा ब्रिटिश शासन के अंत और झारखंड में मुंडा शासन (तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी क्षेत्र) की स्थापना के लिये विद्रोह का नेतृत्त्व किया गया, जिसके तहत दो सैन्य इकाइयों का गठन हुआ। पहली इकाई, एक सैन्य प्रशिक्षण एवं सशस्त्र संघर्ष के लिये और दूसरी प्रचार के लिये।
कहते हैं जब हम किसी भी आंदोलन को धर्म से जोड़ देते हैं तो वो और तीव्र हो जाता है। यही काम बिरसा मुंडा ने भी किया। उन्होंने इस आंदोलन को धर्म से जोड़ दिया और एक राजनीतिक-सैन्य संगठन बनाने के उद्देश्य से प्रचार करते हुए गाँवों की यात्रा करने लगे। उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन का नारा था 'अबुआ राज सेटर जाना, महारानी राज टुंडू जाना' जिसका अर्थ है 'रानी का राज्य खत्म करो, हमारा राज्य बनाओ'।
इसके बाद 9 जनवरी 1900 का वह अकल्पनीय दिन आया, जब इतिहास का एक पन्ना हजारों आदिवासियों के खून से भींग गया। कोहरे की आगोश में छिपी डोंबारी बुरु की पहाड़ियों को अंग्रेजों ने चारों तरफ से घेर लिया और गोलीबारी शुरु कर दी, जिसमें हजारों की संख्या में बच्चे, पुरुष, स्त्री मारे गए। फरवरी 1900 में बिरसा मुंडा को सिंहभूम में अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और राँची ज़ेल में डाल दिया। 9 जून, 1900 में उनकी मृत्यु हो गई और इतिहास के क्रांतिकारी योद्धाओं के खून से लिखे जाने वाले पन्नों में शामिल हो गए।