
जब हम आज़ादी की बात करते हैं तो ज़्यादातर लोगों के ज़हन में गांधी (Mahatma Gandhi) नेहरू (Jawaharlal Nehru) पटेल (Sardar Patel) जैसे बड़े नाम आते हैं। लेकिन हमारे देश को आज़ाद कराने में ऐसे कई वीर भी थे जिनके बारे में किताबों में कोई ज़िक्र ही नहीं है।
असम की कनकलता बरुआ, (Kanaklata Barua) वे महज़ 17 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में तिरंगा लेकर जुलूस में निकलीं। पुलिस ने चेतावनी दी, लेकिन उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया और गोली का सामना किया। उनकी शहादत ने असम के युवाओं को आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया।
पंजाब के उदम सिंह, (Udham Singh) जिन्होंने जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में मारे गए सैकड़ों निर्दोषों का बदला लेने के लिए लंदन जाकर जनरल डायर के सहयोगी माइकल ओ’ड्वायर की हत्या की। उन्होंने अदालत में कहा, “मैंने अपने देश के लिए यह किया और मुझे कोई पछतावा नहीं है।
तमिलनाडु के वि ओ चिदंबरम पिल्लई (V.O. Chidambaram Pillai), ने ब्रिटिश शिपिंग कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए स्वदेशी समुद्री परिवहन कंपनी शुरू की। उनके इस कदम से अंग्रेज़ी व्यापार को बड़ा झटका लगा और उन्हें काले पानी की सज़ा दी गई।
इसी तरह, मातंगिनी हाज़रा (Matangini Hazra) बिरसा मुंडा, (Birsa Munda) अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) जैसे सैकड़ों अज्ञात क्रांतिकारी जेलों में सड़ते रहे, काले पानी की सज़ा भुगतते रहे, और ब्रिटिश अत्याचार के खिलाफ चुपचाप लड़ते रहे। इनका संघर्ष इतिहास के पन्नों में छोटा हो सकता है, लेकिन इनके बिना आज़ादी की कहानी अधूरी है।
लेकिन आज़ादी मिलना ही कहानी का अंत नहीं था। असली परीक्षा तो उसके बाद शुरू हुई: देश बनाना, गाँव-गाँव तक रौशनी और शिक्षा पहुँचाना, और गरीबी हटाना। इसमें भी असली काम उन लोगों ने किया, जिनका नाम किसी समाचार पत्र में नहीं आया।
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जैसे उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव के किसान रामप्रसाद। आज़ादी की लड़ाई में उन्होंने घायल आंदोलनकारियों को अपने खेत के आँगन में छिपाया। और 1947 के बाद, खेती में नए तरीकों का इस्तेमाल कर गाँव की पैदावार बड़ाई। आज उनका पोता उसी ज़मीन पर आधुनिक सिंचाई तकनीक से खेती करता है और कई परिवारों का पेट भरता है।
या फिर बिहार की शांति देवी, जिन्होंने पचास के दशक में पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, क्योंकि गाँव में स्कूल नहीं था। धीरे-धीरे वही जगह पक्के स्कूल में बदली और आज उस स्कूल से पढ़कर कई बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और अफसर बन चुके हैं।
ऐसे ही अनगिनत रेलवे कर्मचारी, फैक्ट्री मज़दूर, नर्सें और दुकानदार थे, जिनकी मेहनत से देश की मशीनरी चलती रही और हमने प्रगति की। अगर ये लोग न होते, तो नेताओं की योजनाएँ सिर्फ कागज़ों में लिखी रह जातीं।
देश निर्माण केवल संसद में भाषण देने से नहीं होता, ये उन औरतों से होता है जो युद्ध के समय सैनिकों के लिए वर्दी सिलती हैं, उन कारीगरों से जो सस्ते विदेशी कपड़ों के दौर में भी भारतीय कारीगरी को ज़िंदा रखते हैं, और उन छोटे दुकानदारों से जो स्वदेशी सामान पर भरोसा बनाए रखते हैं।
आज भी ऐसे गुमनाम नायक हमारे आसपास हैं, दिल्ली का सब्ज़ी वाला जो डिजिटल पेमेंट अपनाकर समय के साथ चल रहा है, केरल का मज़दूर जो बाढ़ पीड़ितों के घर फिर से बना रहा है, या मणिपुर के कॉलेज छात्र जो दूर-दराज़ इलाकों में बच्चों को मुफ्त में पढ़ा रहे हैं।
निष्कर्ष
इस 15 अगस्त पर, याद रखिए, आज़ादी एक मंज़िल नहीं थी, बल्कि एक शुरुआत थी। और इस देश को बनाने में बड़े-बड़े नामों के साथ-साथ उन छोटे-छोटे हाथों का भी उतना ही योगदान है, जो बिना किसी शोहरत के सिर्फ मेहनत और निष्ठा से देश की नींव मज़बुत करते हैं।
"इतिहास बड़े नाम याद रखता है, लेकिन देश को वो हाथ बनाते हैं जो विनम्र रहकर भी काम करते हैं।" [Rh/BA]