![भारत में हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के संवाद (Communication) का माध्यम है। [SORA AI]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-07-17%2Fu6fbt1im%2Fassetstask01k0c59zecfqba3grrfy1r7zxs1752755038img0.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
भारत विविधताओं का देश है, यहां भाषा, संस्कृति और परंपराएं हर कुछ सौ किलोमीटर में बदल जाती हैं। लेकिन जब बात आती है एकता की, तो भाषा का सवाल सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है। इतिहास गवाह है कि जब भी कोई आंदोलन विफल हुआ तो उसमें एक भास का न होंना एक कारण बना है। हिंदी, जो देश की राजभाषा है, देश के उत्तर, मध्य और पूर्वी हिस्सों में तो बड़े पैमाने पर बोली और समझी जाती है, लेकिन दक्षिण भारत (South India) के राज्यों जैसे तमिलनाडु(Tamilnadu), केरल(Kerala), कर्नाटक(Karnataka), आंध्र प्रदेश(Andhra Pradesh) और तेलंगाना(Telangana) में इसे आज भी विरोध का सामना करना पड़ता है। इन राज्यों में हिंदी को न सिर्फ नज़रअंदाज़ किया गया है, बल्कि कई बार इसके विरुद्ध आंदोलनों और विरोध प्रदर्शन भी देखे गए हैं।
हैरानी की बात ये है कि वहीं पर अंग्रेज़ी(English) को बिना किसी हिचकिचाहट के अपनाया गया है, स्कूलों में, साइनबोर्ड्स पर, ऑफिस में और यहां तक कि राजनीतिक संवाद में भी। तो सवाल ये उठता हैं, की क्या दक्षिण भारत हिंदी को थोपे जाने के डर से इनकार करता है? क्या यह भाषाई अस्मिता की लड़ाई है या फिर राजनीतिक एजेंडा(Political Agenda)? क्या हिंदी को लेकर डर वाजिब है, या यह सिर्फ एक मानसिक रुकावट है? और सबसे अहम – क्या यह सोच कभी बदलेगी?
क्या है भारत में हिंदी की स्थिति
भारत में हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के संवाद (Communication) का माध्यम है। 2011 की जनगणना(Census) के अनुसार, लगभग 43.6% भारतीयों की मातृभाषा हिंदी है, जो कि किसी भी एक भाषा के लिए सबसे बड़ी संख्या है। अगर उन लोगों को भी जोड़ा जाए जो हिंदी को दूसरी भाषा या संपर्क भाषा के रूप में समझते और बोलते हैं, तो यह आंकड़ा लगभग 57% तक पहुंच जाता है। उत्तर भारत (North India) के राज्यों जैसे कि उत्तर प्रदेश(UP), बिहार(Bihar), मध्य प्रदेश(MP), राजस्थान(Rajastan), झारखंड(Jharkhand), छत्तीसगढ़(Chattisgarh) और हरियाणा(Haryana) में हिंदी प्रमुख भाषा है और यहां की अधिकांश जनसंख्या इसे सहज रूप से बोलती है। इसके अलावा दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भी हिंदी का व्यापक उपयोग होता है।
आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश(UP) में लगभग 20 करोड़ से अधिक लोग हिंदी भाषा का प्रयोग करतें हैं। वहीं बिहार में 10 करोड़ से ज्यादा लोगों के लिए हिंदी मुख्य भाषा है। मध्य प्रदेश में यह संख्या 7.2 करोड़ है वहीं राजस्थान में 6.8 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं। झारखंड में 3.3 करोड़, छत्तीसगढ़ में 2.5 करोड़, और दिल्ली 1.6 करोड़ लोगों के मुख्य बोलचाल की भाषा हिंदी ही है।
किन कारणों से होता है दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध?
दक्षिण भारत (South India) में हिंदी का विरोध कोई नई बात नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें इतिहास और अस्मिता की राजनीति से जुड़ी हुई हैं। विशेष रूप से तमिलनाडु (Tamilnadu) में हिंदी विरोध की लहर सबसे तीव्र रही है। यह विरोध 1930 और 1965 में हुए आंदोलनों से शुरू हुआ, जब केंद्र सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में कदम बढ़ा रही थी। तमिलनाडु (Tamilnadu) के लोगों ने इसे अपनी भाषाई पहचान और सांस्कृतिक अस्तित्व पर हमला माना। उनका तर्क था कि हिंदी थोपने से उनकी मातृभाषा “तमिल” को खतरे में डाल दिया जाएगा। यही भावना धीरे-धीरे केरल, कर्नाटक और आंध्र-तेलंगाना तक फैल गई।
दक्षिण भारत (South India) के लोग मानते हैं कि हिंदी को थोपना "एक भारत, एक भाषा" की विचारधारा का हिस्सा है, जो भारत की बहुभाषीय विविधता के खिलाफ है। इसके अलावा, स्कूलों में हिंदी अनिवार्य करने, या सरकारी परीक्षाओं में हिंदी को प्राथमिकता देने जैसी नीतियां इस विरोध को और हवा देती हैं। इसके उलट अंग्रेज़ी को वे एक तटस्थ भाषा मानते हैं, जो किसी क्षेत्र विशेष से नहीं जुड़ी है और वैश्विक अवसरों के लिए उपयोगी है। यह सोच हिंदी के विरोध को और भी गहराई देती है।
दक्षिण भारत में राजनीतिक दलों द्वारा हिंदी का विरोध
दक्षिण भारत(South India) में हिंदी(Hindi) विरोध केवल आम जनभावनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक दलों के एजेंडे का भी महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। विशेषकर तमिलनाडु की पार्टियां जैसे DMK (Dravida Munnetra Kazhagam) और AIADMK दशकों से हिंदी विरोध को अपने भाषाई अधिकारों और क्षेत्रीय स्वाभिमान की लड़ाई के रूप में पेश करती आई हैं।
1965 में जब केंद्र सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास किया, तब तमिलनाडु में जोरदार प्रदर्शन हुए। DMK ने इसका तीखा विरोध किया, जिससे पूरे राज्य में हिंसक आंदोलन हुए और कई युवाओं ने आत्मदाह तक कर लिया। इन घटनाओं ने हिंदी को अनिवार्य बनाने की नीतियों को पीछे खींच दिया और केंद्र सरकार को यह आश्वासन देना पड़ा कि अंग्रेज़ी भी संघ की आधिकारिक भाषा बनी रहेगी।
हाल ही में 2020 में जब नई शिक्षा नीति (NEP) में तीन-भाषा फॉर्मूला लागू किए गए तो तमिलनाडु ने विरोध किया, जिसमें हिंदी को अनिवार्य किए जाने की आशंका जताई गई।
कई राज्यों ने रेलवे स्टेशन, मेट्रो और सरकारी इमारतों के बोर्ड्स से हिंदी हटाने की मांग की है, या केवल स्थानीय भाषा और अंग्रेज़ी में नाम दर्शाने की नीति अपनाई है।
कर्नाटक में कन्नड़ प्राइड आंदोलन जहां हिंदी साइनबोर्ड्स को काला किया गया या हटाया गया।
इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि दक्षिण भारत में हिंदी को "सांस्कृतिक वर्चस्व" के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, और राजनीतिक दल इसे क्षेत्रीय अस्मिता की रक्षा का औजार बनाते हैं।
हिंदी की जगह अंग्रेजी क्यों है इतनी प्रिय?
दक्षिण भारत के समाज में हिंदी और अंग्रेज़ी को लेकर सोच साफ़ रूप से विभाजित है। हिंदी को यहां आमतौर पर "बाहरी और थोपे जाने वाली भाषा" के रूप में देखा जाता है, जबकि अंग्रेज़ी को एक "अवसरों और आधुनिकता की भाषा" माना जाता है।
दक्षिण भारत के राज्यों, खासकर तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में लोग यह मानते हैं कि हिंदी को बढ़ावा देना उत्तर भारत की संस्कृति और भाषा को उन पर थोपने की कोशिश है। उन्हें लगता है कि अगर हिंदी को अनिवार्य बनाया गया, तो इससे स्थानीय भाषाएं जैसे तमिल, मलयालम, तेलुगु और कन्नड़ खतरे पर चली जाएंगी।
इसके विपरीत, अंग्रेज़ी को एक व्यावसायिक और तटस्थ माध्यम के रूप में देखा जाता है। स्कूलों, कॉलेजों और मल्टीनेशनल कंपनियों में अंग्रेज़ी का प्रयोग रोज़मर्रा का हिस्सा बन गया है। अंग्रेज़ी को करियर, टेक्नोलॉजी, और ग्लोबल कम्युनिकेशन की चाबी के रूप में स्वीकार किया गया है।
युवा पीढ़ी अंग्रेज़ी को आत्मविश्वास, स्टेटस और सफलता से जोड़ती है। वहीं हिंदी सीखने को वे समय की बर्बादी या ज़बरदस्ती मानते हैं, क्योंकि इसका कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं दिखता।
यानी, समाज में हिंदी को पहचान और संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है लेकिन वो उत्तर भारतीय संस्कृति की पहचान मानी जाती है, न कि खुद की। जबकि अंग्रेज़ी को ग्लोबल पहचान और सफलता का जरिया मानकर सहर्ष अपनाया गया है।
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भारत एक भाषा नहीं, बल्कि भावनाओं का संगम है, जहां हर क्षेत्र की अपनी बोली, पहचान और गौरव है। दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध महज़ भाषा का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता और आत्मसम्मान का सवाल बन चुका है। जहां हिंदी को "थोपी गई भाषा" मानकर अस्वीकार किया गया है, वहीं अंग्रेज़ी को निष्पक्ष, लाभकारी और अवसरों से भरी भाषा मानकर सहर्ष स्वीकार किया गया है।यह विरोध यह नहीं दर्शाता कि दक्षिण भारत भारत की एकता के खिलाफ है, बल्कि यह बताता है कि एकता थोपने से नहीं, सम्मान और समभाव से आती है। जब तक भाषा को किसी क्षेत्र पर वर्चस्व स्थापित करने का माध्यम माना जाएगा, तब तक यह संघर्ष चलता रहेगा। [Rh/SP]