Ram Prasad Bismil Jayanti: 18 वर्ष की आयु में एक युवा ने अपने समय के भारतीय राष्ट्रवादी और आर्य समाज मिशनरी ‘भाई परमानंद’ को दी गई मौत की सजा के बारे में जब पढ़ा, तब उनके मन की जो पीड़ा निकली उसने एक कविता का स्वरूप लिया। कविता का नाम था 'मेरा जन्म'।
आगे चलकर इसी युवा ने एक और ग़ज़ल लिखी, जो आज भी युवाओं के लिए प्रासंगिक और ओज से भरपूर कर देने वाला है। अंग्रेजों के होश उड़ा देने वाले उस ग़ज़ल की पंक्तियाँ थीं:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।
जी हाँ, हम बात कर रहे हैं 'तराना-ए-बिस्मिल', 'ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो', 'गुलामी मिटा दो', 'सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं', 'चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है', आदि जैसी बेहतरीन ओज पूर्ण कविता और ग़ज़ल लिखने वाले, काकोरी षड्यंत्र (Kakori Conspiracy) मामले के अग्रणी और महान क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) की।
देश के लिए हँसते-हँसते फांसी पर चढ़ने वाले इस युवा का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर (Shahjahanpur) जिले के एक गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता मुरलीधर शाहजहांपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे और माता मूलारानी एक कुशल गृहिणी। बचपन में Ram Prasad Bismil, पढ़ाई से ज्यादा खेल में मगन रहते थे, जिसकी वजह से उनको पिता से मार भी पड़ती थी।
पर जब उनकी मुलाकात पड़ोस के एक पुजारी से हुई, तब उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया। वो बचपन से ही जिन दुर्व्यसनों में लिप्त थे, उसको छोड़कर पूजा-पाठ, व्यायाम आदि में संलग्न हो गए। इसके बाद उनकी मुलाकात मुंशी इंद्रजीत से हुई जो उनको 'आर्य समाज' (Arya Samaj) के करीब लाने में महत्वपूर्ण व्यक्ति बने। बिस्मिल ने स्वामी दयानंद स्वरस्वती की लिखी हुई पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' (Satyarth Prakash) पढ़ी जिससे वो काफी प्रभावित हुए।
कहते हैं किशोरावस्था व्यक्ति के जीवन का वो चौखट होता है, जहां से युवा खुद का व्यक्तित्व निर्धारित करता है। रामप्रसाद बिस्मिल का भी सामान्य से बचपन को जीने के बाद किशोरावस्था में प्रवेश करने का समय आया। पर उस व्यक्त की एक घटना ने उनके जीवन की धुरी ही बदल कर रख दी। 1915 में भाई परमानंद के स्वदेश लौटते ही वे प्रसिद्ध 'गदर षड्यंत्र' मामले में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई थी। इस खबर से आहत हो बिस्मिल ने ‘मेरा जन्म’ शीर्षक से एक कविता लिखी, जिसके बाद उन्होंने देश को आजाद करवाने के महायज्ञ में कूद पड़े।
उनका मानना था कि हिंसा और रक्तपात के बिना स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती। यह विचार अहिंसा के पुजारी, महात्मा गांधी के विचार से बिल्कुल पृथक था।
उन्होंने क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दिक्षित, जोकि एक स्कूल शिक्षक भी थे, के साथ मिल कर मातृदेवी नाम का संगठन बनाया। इस संगठन द्वारा दोनों ही क्रांतिकारी देश के युवाओं को संगठित करके अंग्रेजी हुकूमत खिलाफ बिगुल फूंकना चाहते थे।
1918 के ‘मैनपुरी षडयंत्र’ में शामिल बिस्मिल सहित कुछ अन्य युवाओं को अंग्रेजों ने गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन वो यमुना नदी में कूदकर बच निकले। उनके अनुसार वो ऐसी किताबें बेचते हुए पाए गए थे, जो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित थीं।
आगे चलकर 1924 में बिस्मिल ने सचिंद्र नाथ सान्याल और जादूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HRA) की स्थापना की, जिसका संविधान मुख्य रूप से बिस्मिल ने खुद तैयार की थी।
1925 में बिस्मिल और उनके साथी चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्ला खान ने लखनऊ के पास काकोरी में एक ट्रेन लूटने का फैसला किया। हालांकि वो सफल रहे, पर एक महीने के भीतर ही एक दर्जन से अधिक HRA सदस्यों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और Kakori Conspiracy मामले के तहत मुकदमा चलाया गया। मुकदमा 18 महीने तक चला, जिसके दौरान उन्होंने गोरखपुर सेंट्रल जेल में एक राजनीतिक कैदी के रूप में व्यवहार करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल किया। इस मुकदमे में राम प्रसाद 'बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को मौत की सज़ा सुनाई गई और अन्य क्रांतिकारियों को उम्रकैद की सज़ा दी गई।
इन मुकदमे के दौरान ही उन्होंने लखनऊ सेंट्रल जेल में अपनी आत्मकथा लिखी, जिसे हिंदी साहित्य में बेहतरीन कार्यों में से एक माना जाता है।
19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर जेल में इस महान क्रांतिकारी और देशभक्त को फाँसी दे दी गई। इनका अंतिम संस्कार राप्ती नदी के तट पर किया गया जिसका नाम बाद में बदलकर ‘राजघाट’ कर दिया गया।