
1989 के आम चुनावों में जनता दल (Janata Dal) को 144 सीटें मिलीं। सरकार बनाने के लिए उसे वामपंथी दलों और भाजपा का समर्थन मिला। हालांकि जनता दल ने जनता से वोट विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) के नाम पर मांगे थे, पर यह औपचारिक तौर पर घोषित नहीं किया गया था कि जीत के बाद वही प्रधानमंत्री होंगे। जब उड़ीसा भवन में पार्टी की बैठक हुई, तो उसमें वीपी सिंह के साथ चंद्रशेखर, देवीलाल, मुलायम सिंह, अरुण नेहरू और बीजू पटनायक शामिल थे। बैठक में चंद्रशेखर (Chandrashekhar) ने साफ कहा, "अगर विश्वनाथ नेता पद के लिए लड़ रहे हैं, तो मैं भी लड़ूंगा।" लेकिन तभी देवीलाल उन्हें एक अलग कमरे में ले गए और वहां से एक नई रणनीति बनी, चंद्रशेखर को अंधेरे में रखकर वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की।
पत्रकार संतोष भारतीय ने अपनी किताब में लिखा है कि अरुण नेहरू ने पहले बीजू पटनायक और फिर देवीलाल को अपने साथ मिलाया। उन्होंने तय किया कि नेता पद के लिए देवीलाल का नाम प्रस्तावित किया जाएगा, लेकिन असली योजना यह थी कि देवीलाल खुद ही बाद में वीपी सिंह का नाम आगे करेंगे। ठीक वैसा ही हुआ। संसद भवन के सेंट्रल हॉल में जब देवीलाल का नाम लिया गया तो सन्नाटा छा गया, लेकिन जब उन्होंने वीपी सिंह (VP Singh) का नाम प्रस्तावित किया तो जोरदार तालियाँ बजीं। इस पूरे घटनाक्रम से चंद्रशेखर बेहद आहत हुए। उन्होंने बैठक से वॉकआउट किया और कहा, "ये धोखा है। मुझसे कहा गया था कि देवीलाल नेता चुने जाएंगे। मैं ये नहीं मानता।" यहीं से जनता दल की अंदरूनी दरारें शुरू हुईं। चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा ‘ज़िंदगी का कारवाँ’ में इस पूरी प्रक्रिया को "कपटपूर्ण राजनीति" कहा था।
वीपी सिंह ने जब अपनी कैबिनेट बनाई तो चंद्रशेखर के करीबी यशवंत सिन्हा को केवल राज्यमंत्री बनाना चाहा। उन्होंने यह बात चंद्रशेखर (Chandrashekhar) की सलाह पर की, जिससे यशवंत सिन्हा बेहद नाराज़ हो गए और पद लेने से इनकार कर दिया। यहीं से रिश्तों में और खटास आई। उसके बाद वीपी सिंह के साथ देवीलाल ने भी उप प्रधानमंत्री की शपथ ली। हालांकि भारतीय संविधान में उप प्रधानमंत्री का कोई उल्लेख नहीं है, पर फिर भी देवीलाल ने खुद को उप प्रधानमंत्री कहकर शपथ ली। राष्ट्रपति वेंकटरमन ने टोका भी, लेकिन देवीलाल नहीं माने।
वीपी सिंह ने मुसलमानों को भरोसा देने के लिए मुफ़्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्री बनाया। लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनकी बेटी रुबइया सईद का अपहरण हो गया। सरकार को पाँच आतंकियों को छोड़ना पड़ा, जिससे यह संदेश गया कि वीपी सिंह दबाव में आ जाते हैं। इस फैसले की बहुत आलोचना हुई।
वीपी सिंह (VP Singh) ने गृह मंत्री की कुर्सी से अरुण नेहरू को तो दूर रखा, लेकिन उन्हें अपना सबसे बड़ा सलाहकार बना लिया। अरुण नेहरू धीरे-धीरे मंत्रियों पर हावी होने लगे और कहा जाने लगा कि सरकार वीपी सिंह नहीं, अरुण नेहरू चला रहे हैं। उनकी सलाह पर ही जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया, जिससे वहां संकट गहरा गया और फारूक अब्दुल्ला ने इस्तीफ़ा दे दिया।
सूचना और प्रसारण मंत्री पी उपेंद्र मंडल आयोग के खिलाफ थे। इस कारण दूरदर्शन ने भी मंडल आयोग की सही जानकारी देने के बजाय विरोध को बढ़ावा दिया। यहां तक कि प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम पर संदेश को भी सेंसर कर दिया गया। यानी वीपी सिंह की सरकार को मीडिया में भी समर्थन नहीं मिला।देवीलाल को वीपी सिंह (VP Singh) ने उप प्रधानमंत्री पद से हटा दिया, जिससे उनकी नाराज़गी बढ़ी। चंद्रशेखर ने इसे अपमान बताया। उधर, भाजपा भी रथयात्रा के मुद्दे पर लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी से नाराज़ थी। उसने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और 7 नवंबर 1990 को वीपी सिंह की सरकार गिर गई।
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कई लोग मानते हैं कि वीपी सिंह ने मंडल आयोग को लागू कर सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम उठाया, लेकिन इसके विरोध ने उन्हें मध्यम वर्ग के निशाने पर ला खड़ा किया। संतोष भारतीय कहते हैं कि पार्टी के अधिकतर सांसद मंडल आयोग के पक्ष में थे। वहीं कुछ वरिष्ठ नेता जैसे अरुण नेहरू और हेगड़े इसके खिलाफ थे। फिर भी वीपी सिंह ने इसे लागू किया। सरकार गिरने के बाद जनता दल टूट गया। चंद्रशेखर (Chandrashekhar) ने अलग होकर समाजवादी जनता दल बनाई और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। लेकिन यह सरकार भी ज़्यादा नहीं चल सकी। इंदर कुमार गुजराल ने लिखा कि वीपी सिंह की सरकार बौद्धिक रूप से कमज़ोर थी और वो एक अच्छे टीम लीडर नहीं थे। वो ईमानदार थे लेकिन व्यावहारिक राजनीति की बारीकियों को नहीं समझ पाए।
निष्कर्ष
वीपी सिंह का प्रधानमंत्री बनना एक योजना का हिस्सा था, जिसमें चंद्रशेखर जैसे दिग्गज नेता को अंधेरे में रखा गया। उनकी सरकार कई गलतफहमियों, साज़िशों और विरोधाभासों से घिरी रही। उन्होंने सामाजिक न्याय की दिशा में साहसी कदम उठाए, लेकिन राजनीतिक कौशल की कमी और अंदरूनी कलह ने उनकी सरकार को 11 महीनों में ही समाप्त कर दिया। उनकी विरासत आज भी बहस का विषय बनी हुई है। [Rh/PS]