
कभी एक समय था जब अंग्रेज़ों के शासनकाल में हिंदी बोलना हीन भावना से जोड़ा जाता था। तब अंग्रेज़ी को सभ्यता, पढ़ाई-लिखाई और नौकरी की भाषा माना जाता था और हिंदी को केवल “गाँव-देहात की जुबान” (“Village language”) समझा जाता था। पढ़े-लिखे लोग अक्सर अंग्रेज़ी में बातचीत कर अपनी पहचान ऊँची दिखाना चाहते थे, जबकि हिंदी बोलना उन्हें शर्मिंदगी लगता था। लेकिन आज तस्वीर बिल्कुल बदल चुकी है। आज हिंदी न सिर्फ़ भारत की आत्मा मानी जाती है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रही है (Status Of Hindi Language World Wide)।
दुनिया की नामी-गिरामी यूनिवर्सिटीज़ में हिंदी कोर्स पढ़ाए जा रहे हैं, शोध हो रहे हैं और विदेशी छात्र इसे सीखने में रुचि ले रहे हैं। बॉलीवुड फ़िल्में, भारतीय साहित्य और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने हिंदी को और भी लोकप्रिय बना दिया है। एक समय जो भाषा पिछड़ेपन का प्रतीक मानी जाती थी, वही आज गर्व और पहचान का प्रतीक बन चुकी है। यह बदलाव बताता है कि भाषा की ताकत समय और समाज दोनों को बदलने में सक्षम है।
औपनिवेशिक दौर में हिंदी की स्थिति
अंग्रेज़ों के समय शिक्षा और नौकरी की चाबी अंग्रेज़ी भाषा के पास थी। 1835 में “मैकॉले का मिनट” ("Macaulay's Minute") आने के बाद से अंग्रेज़ी शिक्षा को प्राथमिकता दी गई और स्थानीय भाषाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। धीरे-धीरे उच्च वर्ग ने अंग्रेज़ी को प्रतिष्ठा का प्रतीक बना लिया और हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं को “कमतर” मान लिया गया।
यही कारण था कि उस समय कोई व्यक्ति अगर अंग्रेज़ी बोलता था तो उसे पढ़ा-लिखा और सभ्य समझा जाता था, जबकि हिंदी बोलने वाला व्यक्ति पिछड़ेपन का शिकार माना जाता था। यहां तक कि बहुत से हिंदी भाषी लोग भी अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाने में गर्व महसूस करने लगे। यह दौर हिंदी के लिए संघर्ष का समय था, क्योंकि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं रह गई थी, बल्कि सामाजिक दर्ज़े का पैमाना भी बन गई थी। यही वह दौर था जब हिंदी बोलना “शर्म” समझा जाता था।
आज़ादी के बाद हिंदी का सफर
स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत में भाषा को लेकर नई बहसें शुरू हुईं। संविधान सभा में यह तय किया गया कि हिंदी को भारत की “राजभाषा” बनाया जाएगा (Hindi as the “official language” of India)। यह हिंदी के इतिहास का अहम मोड़ था। हालांकि अंग्रेज़ी का प्रभाव तुरंत खत्म नहीं हुआ, लेकिन सरकारी कामकाज, शिक्षा और प्रशासन में हिंदी का प्रयोग बढ़ने लगा।
हिंदी को साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर भी नया जीवन मिला। भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra), प्रेमचंद (Premchand), जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) जैसे साहित्यकारों ने हिंदी को समाज की आत्मा से जोड़ा। धीरे-धीरे हिंदी न केवल शिक्षा और साहित्य में, बल्कि राजनीति और संवाद की मुख्य भाषा बनती चली गई। रेडियो, अखबार और बाद में टेलीविज़न ने हिंदी को लोगों तक और गहराई से पहुँचाया। आज़ादी के बाद का यह दौर हिंदी के लिए पुनर्जन्म जैसा था, जिसने इसे “शर्म की भाषा” (“The language of shame”) से उठाकर राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक बना दिया।
हिंदी की वैश्विक यात्रा
आज हिंदी केवल भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक मंच पर भी अपनी पहचान बना चुकी है। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और रूस जैसे देशों की नामी-गिरामी यूनिवर्सिटीज़ में हिंदी विभाग स्थापित किए गए हैं। हार्वर्ड, ऑक्सफ़ोर्ड (Oxford), कैम्ब्रिज, टोक्यो यूनिवर्सिटी (Tokyo University) जैसी संस्थाओं में विदेशी छात्र हिंदी सीखते हैं, शोध करते हैं और इसे सांस्कृतिक अध्ययन का हिस्सा मानते हैं। हिंदी के इस प्रसार में प्रवासी भारतीयों की भूमिका भी अहम रही है।
फिजी (Fiji), मॉरीशस (Mauritius), सूरीनाम (Suriname), त्रिनिदाद और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बसे भारतीयों ने हिंदी को अपने दिलों में जिंदा रखा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया। आज वैश्विक सम्मेलन, सांस्कृतिक कार्यक्रम और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स हिंदी को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिला रहे हैं। यह साबित करता है कि हिंदी अब केवल मातृभाषा नहीं रही, बल्कि विश्व संस्कृति का अहम हिस्सा बन चुकी है।
फिल्मों, साहित्य और तकनीक से हिंदी की पहचान
हिंदी फिल्मों और साहित्य ने इस भाषा को लोकप्रिय बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। बॉलीवुड की फिल्मों ने न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी हिंदी के गीत और संवाद पहुंचा दिए। “शोले” (Sholey) या “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” (DDLJ) जैसी फिल्में और उनके संवाद विदेशी दर्शकों को भी हिंदी से जोड़ते हैं।
साहित्य में प्रेमचंद, अज्ञेय, रेणु, नागार्जुन जैसे लेखकों ने हिंदी को गहराई और गंभीरता दी। आज समकालीन लेखक और कवि हिंदी को नए प्रयोगों के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। तकनीक और इंटरनेट ने हिंदी की लोकप्रियता को और तेज़ी से फैलाया है। यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ब्लॉगिंग प्लेटफ़ॉर्म्स पर हिंदी कंटेंट लाखों-करोड़ों दर्शकों तक पहुँच रहा है। गूगल, अमेज़न और माइक्रोसॉफ़्ट जैसी कंपनियाँ भी हिंदी सेवाएँ दे रही हैं। इस तरह फिल्मों, साहित्य और तकनीक ने मिलकर हिंदी को एक ग्लोबल भाषा का रूप दे दिया है।
नए भारत की नई पहचान: गर्व की भाषा हिंदी
आज का भारत बदल चुका है और इस बदलाव में हिंदी की भूमिका अहम है। युवा पीढ़ी अब हिंदी बोलने में शर्म महसूस नहीं करती, बल्कि गर्व करती है। स्टार्टअप्स और नए बिज़नेस मॉडल्स (Startups and new business models) में हिंदी का उपयोग बढ़ा है, जिससे यह भाषा केवल सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी मज़बूत हो रही है। सोशल मीडिया पर हिंदी इंफ्लुएंसर लाखों फॉलोअर्स तक पहुँच रहे हैं।
यहां तक कि सरकारी योजनाओं, विज्ञापन और शिक्षा में भी हिंदी का महत्व बढ़ा है। नई शिक्षा नीति (NEP 2020) ने भी मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता दी है, जिसमें हिंदी की स्थिति और मज़बूत होगी। यह सब संकेत देता है कि हिंदी अब केवल भारत की ही नहीं, बल्कि वैश्विक मंच की “गर्व की भाषा” बन चुकी है।
दुनिया की यूनिवर्सिटीज़ में हिंदी
आज हिंदी सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि विदेशों की कई बड़ी यूनिवर्सिटीज़ में भी पढ़ाई जाती है। अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (Harvard University), कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी (University of California), येल और कोलंबिया यूनिवर्सिटी (Columbia University) जैसे संस्थानों में हिंदी विभाग मौजूद हैं। ब्रिटेन की ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भी छात्र हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन करते हैं। जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी, रूस की मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी और जर्मनी की हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। इन जगहों पर छात्र न केवल भाषा सीखते हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति, इतिहास और साहित्य को भी समझते हैं।
हिंदी सीखने की वजह से उन्हें भारतीय समाज से जुड़ने, बॉलीवुड फिल्मों को समझने और भारत में रिसर्च करने में मदद मिलती है। खास बात यह है कि इन यूनिवर्सिटीज़ में सिर्फ भारतीय मूल के छात्र ही नहीं, बल्कि विदेशी छात्र भी बड़ी रुचि से हिंदी पढ़ते हैं।यह तथ्य बताता है कि हिंदी अब सिर्फ़ एक क्षेत्रीय या राष्ट्रीय भाषा नहीं रही, बल्कि दुनिया की एक महत्वपूर्ण भाषा बन चुकी है। इससे भारत की सांस्कृतिक पहचान को भी वैश्विक स्तर पर सम्मान मिला है।
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हिंदी की यात्रा “शर्म से शान” तक केवल भाषा की यात्रा नहीं, बल्कि समाज और सोच की यात्रा भी है। औपनिवेशिक दौर में जहाँ हिंदी पिछड़ेपन की निशानी समझी जाती थी, वहीं आज यह भारत की सांस्कृतिक धरोहर और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गई है। दुनिया भर में हिंदी पढ़ाई और समझी जा रही है। फिल्मों, साहित्य और तकनीक ने इसे नई ऊँचाई दी है। आने वाले समय में जब भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत और बढ़ेगी, तब हिंदी निश्चित रूप से विश्व की सबसे प्रभावशाली भाषाओं में शामिल होगी। यह बदलाव हमें सिखाता है कि भाषा कभी भी “छोटी या बड़ी” नहीं होती, बल्कि उसका सम्मान करने वाले लोग ही उसे ऊँचाई पर ले जाते हैं। हिंदी की यही नई कहानी है शर्म से शान तक। [Rh/SP]