![महात्मा गांधी [Wikimedia Commons]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-09-01%2Fy45pkbb7%2FMahatmaGandhiclose-upportrait.jpg?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
आज के भारत में हिंदी का दर्जा सिर्फ एक भाषा का नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की भावनाओं का प्रतीक है। हिंदी संविधान की राजभाषा है (Hindi is the official language of the constitution) और आज केंद्र सरकार लगातार इसके प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठा रही है। सरकारी दफ़्तरों में हिंदी के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जा रहा है, शिक्षा और तकनीक में हिंदी के प्रसार पर ज़ोर दिया जा रहा है और विश्व स्तर पर भी हिंदी की पहचान को मजबूत बनाने की कोशिशें जारी हैं। मौजूदा सरकार का मानना है कि हिंदी वह कड़ी है, जो पूरे भारत को एक धागे में पिरो सकती है। लेकिन यह सोच कोई नई नहीं है।
आज जो प्रयास हो रहे हैं, उसकी नींव बहुत पहले ही रखी जा चुकी थी। महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) हिंदी को सिर्फ एक भाषा नहीं बल्कि राष्ट्र की आत्मा मानते थे (Hindi language is the soul of the nation)। उनका विश्वास था कि यदि भारत को सच्चे अर्थों में एकजुट होना है, तो एक साझा भाषा की ज़रूरत है और वह भाषा हिंदी हो सकती है। गांधी का मानना था कि हिंदी जन-जन की बोली है, जो सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। आज जब हम हिंदी को और आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि यह सपना गांधी जी ने दशकों पहले ही देख लिया था।
हिंदी भाषा को लेकर क्या सोचते थे गांधी जी?
महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) का मानना था कि भारत की असली ताकत उसकी जनता है, और जनता से जुड़ने का सबसे सरल साधन भाषा है। 90s में अंग्रेज़ी शिक्षित और अभिजात वर्ग तक ही सीमित थी, जबकि हिंदी एक ऐसी भाषा थी जिसे आम किसान, मज़दूर और व्यापारी भी समझते थे। गांधी जी का विश्वास था कि अगर भारत को स्वतंत्रता के बाद एक मजबूत और संगठित राष्ट्र बनाना है, तो उसके पास एक साझा भाषा होनी चाहिए, और वह भाषा हिंदी हो सकती है।
गांधी जी ने हिंदी को सिर्फ ‘राजभाषा’ ही नहीं, बल्कि ‘जनभाषा’ कहा। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन (Hindi Sahitya Sammelan) और अन्य राष्ट्रीय मंचों पर हमेशा हिंदी को बढ़ावा दिया। वे स्वयं अपने लेख, भाषण और पत्राचार अक्सर हिंदी में किया करते थे ताकि साधारण लोग भी उनके विचार समझ सकें। 1918 में इंदौर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन (Hindi Sahitya Sammelan) में गांधी ने हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने का आह्वान किया था। उनका कहना था कि हिंदी एक ऐसी कड़ी है जो उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम को जोड़ सकती है।
संविधान सभा में भाषाई बहस
भारत के संविधान निर्माण के दौरान भाषा का प्रश्न सबसे जटिल और संवेदनशील मुद्दों में से एक था। स्वतंत्रता के बाद यह तय करना आसान नहीं था कि कौन-सी भाषा पूरे देश की आधिकारिक भाषा बनेगी। हिंदी उस समय सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा थी और इसके समर्थक चाहते थे कि इसे तुरंत ही राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए।
दूसरी ओर, अंग्रेज़ी को पहले से ही प्रशासन और शिक्षा (Administration and Education) में गहरी जगह मिल चुकी थी। संविधान सभा में लंबे समय तक इस मुद्दे पर बहस हुई। हिंदी समर्थकों का तर्क था कि यह भारतीय संस्कृति और जनभावना की भाषा (The Language of Indian Culture and Public Sentiment) है, जबकि विरोधियों का कहना था कि यह पूरे भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती। विशेषकर गैर-हिंदी भाषी राज्यों के प्रतिनिधि चिंतित थे कि यदि हिंदी को लागू किया गया तो उनकी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान दब जाएगी। इस बहस ने दिखा दिया कि भाषा केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि पहचान और राजनीति से जुड़ा विषय भी है।
हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा का मुद्दा
जब संविधान सभा में भाषा का सवाल उठा तो हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच एक बड़ा टकराव सामने आया। हिंदी समर्थक चाहते थे कि जल्द से जल्द अंग्रेज़ी को हटाकर हिंदी को अपनाया जाए ताकि भारत अपनी सांस्कृतिक और भाषाई आत्मनिर्भरता को स्थापित कर सके।
लेकिन अंग्रेज़ी समर्थकों का कहना था कि अंग्रेज़ी पहले से प्रशासन, न्यायपालिका और उच्च शिक्षा का हिस्सा बन चुकी है, और अचानक इसे हटाना देश के विकास के लिए घातक हो सकता है। कई नेताओं का मानना था कि अंग्रेज़ी ने भारत को वैश्विक स्तर पर जोड़ने का काम किया है, और विज्ञान व तकनीकी की भाषा होने के कारण इसे पूरी तरह छोड़ना नुकसानदेह होगा। दूसरी तरफ, हिंदी को अपनाने वाले यह मानते थे कि विदेशी भाषा पर निर्भर रहना भारत की स्वतंत्रता की भावना को कमजोर करता है। इस प्रकार, हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच का यह संघर्ष केवल भाषाई नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक सवाल बन गया, जिसने आगे आने वाले वर्षों में कई बड़े विवादों को जन्म दिया।
हिंदी क्यों नहीं बन पाई भारत की राष्ट्रभाषा?
आज़ादी के समय जब संविधान बनाया जा रहा था, तब सबसे बड़ी बहस ‘राष्ट्रीय भाषा’ (National Language) को लेकर हुई। महात्मा गांधी सहित कई नेताओं का मानना था कि हिंदी भारत को एक सूत्र में बांध सकती है, लेकिन देश की भाषाई विविधता इस फैसले में सबसे बड़ी बाधा बन गई। भारत में सैकड़ों बोलियाँ और दर्जनों भाषाएँ बोली जाती हैं। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी उतनी प्रचलित नहीं थी, जितनी उत्तर भारत में।
इन क्षेत्रों के नेताओं को डर था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से उनकी क्षेत्रीय भाषाएँ और संस्कृति हाशिए पर चली जाएँगी। यही वजह रही कि संविधान सभा में लंबी बहस के बाद हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया, लेकिन ‘राष्ट्रभाषा’ का दर्जा नहीं मिला। अंग्रेज़ी को भी प्रशासनिक कार्यों में अस्थायी तौर पर अपनाया गया, जो आज भी जारी है। दरअसल, भारत की एकता उसकी भाषाई विविधता में है, और यही विविधता हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने से रोकती रही।
मौजूदा सरकार और हिंदी भाषा का समर्थन
आज की सरकार हिंदी भाषा को सिर्फ एक संचार माध्यम ही नहीं, बल्कि भारतीय पहचान और संस्कृति का प्रतीक मानती है। इसी सोच के साथ कई कदम उठाए जा रहे हैं ताकि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो और इसे राष्ट्रीय स्तर पर एक मज़बूत स्थान मिल सके। केंद्र सरकार की अधिकांश घोषणाएँ, योजनाएँ और कार्यक्रम हिंदी में प्रस्तुत किए जाते हैं। सरकारी विभागों को हर साल हिंदी पखवाड़ा और हिंदी दिवस मनाने के लिए निर्देशित किया जाता है, ताकि प्रशासनिक कार्यों में हिंदी का प्रयोग बढ़ सके। प्रधानमंत्री और कई केंद्रीय मंत्री अपने भाषणों और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी का प्रयोग करते हैं, जिससे इसे वैश्विक पहचान भी मिल रही है।इसके अलावा, शिक्षा नीति में भी हिंदी को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया गया है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) में मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिंदी को प्राथमिक स्तर की शिक्षा में प्रोत्साहित किया गया है। वहीं, डिजिटल प्लेटफॉर्म, सरकारी वेबसाइट और मोबाइल ऐप्स को भी हिंदी में उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। हालांकि, आलोचक यह सवाल उठाते हैं कि क्या हिंदी थोपने से क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व में कमी आ सकती है? लेकिन सरकार का तर्क है कि हिंदी पूरे देश को एक साझा भाषा के धागे में जोड़ सकती है। इस तरह मौजूदा सरकार हिंदी को सिर्फ प्रोत्साहित ही नहीं कर रही, बल्कि उसे राष्ट्रीय संवाद का मुख्य आधार बनाने की दिशा में भी बढ़ रही है।
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भारत की ताक़त उसकी विविधता में है, जहां सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बहस दशकों से जारी है, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या भाषा हमारे बीच विभाजन पैदा करे या हमें जोड़ने का काम करे? गांधी जी ने भी कहा था कि भाषा का उद्देश्य संवाद और समझ बढ़ाना है, न कि वर्चस्व स्थापित करना। आज जब अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों ही साथ-साथ चल रही हैं, तब यह समझना ज़रूरी है कि राष्ट्रभाषा से भी बड़ी चीज़ है एकता। जब तक हम एकजुट हैं, कोई भाषा हमें अलग नहीं कर सकती। [Rh/SP]