दामाद संस्कृति: क्यों भारतीय घरों में दामाद को अब भी भगवान जैसा माना जाता है

भारतीय समाज में दामाद संस्कृति एक पुरानी परंपरा है जिसमें दामाद को राजा या भगवान जैसा सम्मान दिया जाता है। यह प्रथा इतिहास से चली आ रही है, लेकिन आज के समय में यह बराबरी और रिश्तों की सच्ची गरिमा पर सवाल खड़े करती है। ज़रूरत है कि सम्मान सबको मिले, न कि केवल दामाद को।
दामाद संस्कृति
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दामाद संस्कृति की शुरुवात

दामाद संस्कृति की शुरुआत प्राचीन भारतीय (India) परिवार व्यवस्था से हुई। पुराने समय में बेटियों को “पराया धन” माना जाता था। शादी के बाद उन्हें पति के घर भेज दिया जाता था और माता-पिता यह सोचकर असुरक्षित महसूस करते थे कि उनकी बेटी की देखभाल कैसी होगी। इस डर से वे दामाद को खुश रखने लगे ताकि बेटी को पति के घर किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े। धीरे-धीरे यह आदत परंपरा बन गई। कई समाजों में यह मान्यता भी रही कि अगर दामाद का अनादर हुआ तो बेटी का वैवाहिक जीवन बिगड़ जाएगा। इसी सोच ने दामाद को परिवार का भगवान बना दिया।

आज भी क्यों जारी है यह संस्कृति

समाज बदल चुका है, बेटियाँ पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर (Independent) हो चुकी हैं, लेकिन दामाद संस्कृति आज तक बनी हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण माता-पिता के मन में छिपा हुआ डर है। उन्हें लगता है कि अगर दामाद खुश रहेगा तो उनकी बेटी का जीवन सुरक्षित और सुखी रहेगा। इसके साथ ही समाज में प्रतिष्ठा दिखाने की लालसा भी इस परंपरा को ज़िंदा रखती है। दामाद को बड़े मान-सम्मान से बुलाना और उसे तोहफे देना सामाजिक इज़्ज़त का प्रतीक माना जाता है। इसके अलावा यह आदत पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है, इसलिए लोग बिना सवाल उठाए इसे निभाते जाते हैं।

बहू और दामाद में फर्क क्यों?

यही परंपरा सबसे बड़ा भेदभाव पैदा करती है। जब दामाद घर आता है तो उसके स्वागत में तरह-तरह के पकवान बनते हैं, उसे कुरसी पर बिठाकर पंखा करते हैं और उसकी हर छोटी-बड़ी इच्छा पूरी की जाती है। लेकिन जब बहू घर में आती है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह बिना शिकायत के सबमें ढल जाए, घर का काम करे और परिवार की हर ज़रूरत पूरी करे। एक ही घर में एक पुरुष को देवता और एक महिला को परखी जाने वाली मानक बना देना इस बात का प्रमाण है कि पितृसत्ता आज भी हमारे समाज की जड़ों में गहराई से बसी हुई है।

दामाद संस्कृति की शुरुवात
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हिंदी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में अक्सर दिखाया जाता है कि दामाद के आने पर पूरा घर उसकी सेवा में लग जाता है। उसकी पसंद का खाना बनाया जाता है और हर ज़रूरत पूरी की जाती है। आजकल सोशल मीडिया पर भी दामाद संस्कृति मज़ाक और मीम्स का हिस्सा बन चुकी है। “दामाद जी आएंगे तो पचास लड्डू चाहिए” जैसे चुटकुले लोगों को हँसाते तो हैं, लेकिन असल में वे इस परंपरा की गहराई को और पक्का कर देते हैं।

इस संस्कृति का नुकसान

ऊपरी तौर पर दामाद संस्कृति बहुत सम्मानजनक लगती है, लेकिन इसके कई छिपे हुए नुकसान हैं। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार अक्सर दामाद को खुश करने के लिए अपनी सामर्थ्य से ज़्यादा खर्च कर बैठते हैं। यह परंपरा पति को यह विश्वास दिलाती है कि वह हमेशा विशेष है और पत्नी को समझौता करना ही उसका कर्तव्य है। धीरे-धीरे रिश्ते बराबरी के बजाय ऊँच-नीच पर टिकने लगते हैं, जहाँ सम्मान एक व्यक्ति को मिलता है और बाक़ी केवल सेवा करते रह जाते हैं। इस तरह यह संस्कृति परिवार में असमानता और दबाव दोनों पैदा करती है।

बदलाव की ज़रूरत

सम्मान देना गलत नहीं है। समस्या तब होती है जब सम्मान केवल दामाद तक सीमित हो जाए और परिवार के अन्य सदस्यों को न मिले। आज ज़रूरी है कि बहू को भी वही प्यार और इज़्ज़त दी जाए जो दामाद को मिलती है। परिवार को चाहिए कि दिखावे और महंगे तोहफों की जगह सच्चे रिश्तों और बराबरी पर ध्यान दें। शादी को लेन-देन का विषय न मानकर साझेदारी के रूप में देखा जाए। बेटियों और बेटों दोनों को सिखाया जाना चाहिए कि रिश्तों की असली नींव बराबरी और सम्मान में ही है।

निष्कर्ष

दामाद संस्कृति इतिहास के उस डर से पैदा हुई थी जब माता-पिता अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते थे। लेकिन आज जब महिलाएँ आत्मनिर्भर और मज़बूत हैं, यह परंपरा असमानता को और गहरा करती है। परिवार में सच्चा सम्मान तभी होगा जब हर सदस्य, चाहे बेटी हो, बहू हो, बेटा हो या दामाद, सबको समान प्यार और गरिमा मिले। हमें भगवान जैसे दामाद की नहीं, बराबरी वाले रिश्तों की ज़रूरत है।

(Rh/Eth/BA)

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