बिहार जनादेश से आगे: लोकतंत्र की नई चुनौती

बिहार 2025 के चुनावों ने लोकतंत्र की नई चुनौतियां सामने ला दी हैं, जहां जाति, समुदाय और सामाजिक बदलाव की जटिल राजनीति दिख रही है।
नीतीश कुमार शपथ ग्रहण करते हुए|
जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।X / Narendra Modi
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इस चुनाव के परिणाम में एनडीए की 202 सीटों की जीत और महागठबंधन की मात्र 35 सीटों को देखते हुए, अगर कोई पूछे कि क्या यह निर्णायक जनादेश है, तो स्पष्ट उत्तर है—हाँ। लेकिन अगर कोई पूछे कि क्या यह संपूर्ण सच है, तो उत्तर और भी जटिल हो जाता है।

इस चुनाव परिणाम में एनडीए (NDA) का वोट शेयर 46.6 प्रतिशत है, जबकि महागठबंधन का 37.9 प्रतिशत, दोनों के बीच लगभग 9 प्रतिशत का अंतर है, लेकिन सीटों में यह अंतर 167 का है। इस विधानसभा चुनाव के परिणाम जितने निर्णायक हैं, उतने ही विवादास्पद भी हैं। एनडीए की भारी जीत (202 सीटें) और महागठबंधन की शर्मनाक हार (35 सीटें) के बीच कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं जो भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को हिला सकती है। क्या यह केवल राजनीतिक सामाजिक रणनीति की जीत है या इस जीत के पीछे चुनावी प्रक्रिया की गंभीर खामियां भी है?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि एनडीए ने इस चुनाव में बेहतरीन राजनीतिक रणनीति अपनाई। नीतीश कुमार के 20 साल की शासकीय विरासत में एक बार फिर से लोगों को विश्वास दिलाने में कामयाब रहे, महिलाओं के साथ एक सामाजिक अनुबंध स्थापित कर उन्हें गोलबंद करने में कामयाब रहे, चुनाव घोषणा से चंद दिन पहले राज्य सरकार द्वारा राज्य की 1.4 करोड़ महिलाओं को प्रति महिला 10,000 रुपये का कैश दिया गया, यह 14,000 करोड़ रुपये का स्थानांतरण एक आर्थिक वास्तविकता थी, न कि कोई वादा। बिहार जैसे राज्य में, जहां औसत परिवार की मासिक आय 15,000-25,000 रुपये है, यह राशि किसी परिवार के बजट का 40-67 प्रतिशत तक रहा। और इन सब के बीच सबसे अहम रहा सधी हुयी गठबंधन, भाजपा ने ऊपरी जातियों को, जदयू ने अति-पिछड़ों को, और चिराग पासवान और जितन राम माँझी की पार्टी ने दलितों को एनडीए के पक्ष में एकजुट किया। महागठबंधन इसके सामने रणनीतिक रूप से बिखरा हुआ नज़र आया।

महिला मतदान (Women Voting) इस चुनाव में 71.6% तक पहुंच गया जो कि 2020 में 59.69% था, यह केवल आंकड़ा नहीं, एक सामाजिक क्रांति सा दिखता है। किशनगंज में 88.57%, अरारिया में 83.4% और कटिहार में 78.9% महिलाओं ने मतदान कर साबित किया कि महिलाएं अब निर्णायक राजनीतिक ताकत हैं और ये एनडीए के पक्ष में मज़बूती से खड़े दिखे।

मतदान के लिए लंबी कतार में खड़ी महिलाएं, लोकतंत्र में उनकी सक्रिय भागीदारी दिखाती हुई|
बढ़ती महिला मतदान दर: किशनगंज, अरारिया और कटिहार में महिलाओं की निर्णायक राजनीतिक भूमिका|X

लेकिन चुनाव के विश्लेषण कि यह कहानी अधूरी है, और यहीं पर एक पहलू आता है, चुनावी प्रक्रिया की पूरी तरह से निष्पक्ष होने का, चुनाव आयोग पे विश्वसनीयता का। इस चुनाव से ठीक पहले जो मतदाता सूची संशोधन प्रक्रिया अपनाई गयी वो सामान्य नहीं थी। जून 2025 में, विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) में लगभग 64 से 68 लाख मतदाताओं को सूची से हटाया गया और यह संख्या चिंताजनक है क्योंकि जिन मतदाताओं को हटाया गया, उनमें महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों का अनुपात असामान्य रूप से अधिक था, विशेष रूप से ग्रामीण महिलाएं, जिनके पास संपत्ति के दस्तावेज नहीं होते हैं। चुनाव आयोग ने शुरुआत में केवल आधार और संपत्ति के दस्तावेजों को इस प्रक्रिया के लिए स्वीकार किया, वोटर आईडी कार्ड को नहीं। केवल सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद आधार को मान्यता मिली, लेकिन तब तक लाखों मतदाता पहले ही सूची से बाहर हो चुके थे।इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता की पूर्ण अनुपस्थिति थी। राजनीतिक दलों को नहीं बताया गया कि किसे हटाया जा रहा है और क्यों प्रभावित मतदाताओं को कोई सूचना तक नहीं दी गई, और साथ ही अपील करने की कोई प्रभावी व्यवस्था तक उपलब्ध नहीं थी।

चुनाव (Election) आयोग का मुख्य काम चुनाव कराना भर नहीं होता है। उसका असली दायित्व है, लोकतंत्र की रक्षा करना, सभी नागरिकों के अधिकार की गारंटी देना, और निष्पक्षता की वास्तविकता बनाए रखना, लेकिन 2025 के बिहार चुनाव में आयोग अपने दायित्व को निभाने में पूरी तरह से विफल दिखा।

सत्तारूढ़ दल द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन का मामला हो, विशेष ट्रेनों का इस्तेमाल कर अपनेवोटरों को लाने कि व्यवस्था हो, या अवैध प्रचार खर्च करने का मामला हो, चुनाव आयोग हर बार मौन दिखता है लेकिन वहीं विपक्ष के हर कदम पर सख्ती, आयोग के असंतुलित रवैए को उजागर करती है।

चुनाव के ठीक पहले 1.4 करोड़ से अधिक महिलाओं को एकमुश्त 10,000 रुपये सीधे उनके बैंक खाते में ट्रांसफर किया जाना एक बड़ा राजनीतिक और नैतिक मुद्दा होना चाहिए। यह वोटों की सीधे ख़रीद-फ़रोख़्त का मामला है। 14 हज़ार करोड़ के इस भारी धनराशि के वितरण पर मौन रहना चुनाव आयोग (ECI) की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाता है। चुनाव आयोग की जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना होता है कि चुनाव निष्पक्ष और स्वच्छ हो, लेकिन इस ऐतिहासिक कैश ट्रांसफर को चुनाव से कुछ ही दिन पहले किया जाना और आयोग की तरफ से इस पूरी प्रक्रिया पर किसी भी तरह की रोक या जांच न करना इस पूरी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर संदेह पैदा करता है।

चुनाव (Election) आयोग का मुख्य काम चुनाव कराना भर नहीं होता है। उसका असली दायित्व है, लोकतंत्र की रक्षा करना, सभी नागरिकों के अधिकार की गारंटी देना, और निष्पक्षता की वास्तविकता बनाए रखना, लेकिन 2025 के बिहार चुनाव में आयोग अपने दायित्व को निभाने में पूरी तरह से विफल दिखा।

जब एक तबके ने इसे खुलेआम वोट खरीदने की कोशिश बताया तब इस योजना को महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के रूप में पेश किया गया था, पर चुनाव के निकट इस राशि का वितरण, सत्ता दल के मंसूबे को साफ़ दर्शाता है। चुनाव आयोग की चुप्पी ने यह साफ़ दिखाया कि वह इस तरह के वित्तीय हस्तक्षेपों को रोकने या जांचने में प्रभावी भूमिका निभाने में असमर्थ एवं उदासीन था।

कई बूथों पर वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल  (वीवीपैट- VVPAT) पर्चियां सड़कों पर पाई गईं, संदिग्ध गतिविधियां हुईं और जब विपक्ष ने 100 प्रतिशत (वीवीपैट- VVPAT) वेरिफिकेशन की मांग की, तब आयोग ने इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया।

चुनाव में वीवीपैट पर्चियां और संदिग्ध वित्तीय हस्तक्षेप की गतिविधियां|
चुनाव में वीवीपैट पर्चियों और वित्तीय हस्तक्षेप की विवादित गतिविधियां|Prime Minister's Office, GODL-India, via Wikimedia Commons

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि चुनाव में निष्पक्षता केवल वोटों की गिनती तक सीमित नहीं होती है, बल्कि वोटरों तक पहुँच, मतदान के अवसर तक सबको समान अवसर मिलना भी जरूरी है। चुनाव आयोग के मौन ने इन मूलभूत लोकतांत्रिक मानकों पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इसने भावी चुनावों में चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर ही संदेह खड़ा कर दिया है और लोकतंत्र की मजबूती के लिए चिंता का विषय बन गया है।

ये चिंताएं तकनीकी नहीं, बल्कि संवैधानिक हैं। और इस परिणाम को देखते हुए, कुछ गहरे सवाल जो उभरते हैं वो ये हैं की - क्या चुनाव आयोग वास्तव में स्वतंत्र है, या वह बेनामी तरीकों से सत्ता का हाथ बंटाता है? जब मतदाता सूची से इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं, दलित, अल्पसंख्यक हटाए जाते हैं, तो क्या हमारा लोकतंत्र समावेशी बचा है? और जब ईवीएम (EVM) की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं और आयोग पारदर्शिता से बचता है, तो क्या परिणाम की वैधता बरकरार रह पाएगी?

इन सवालों के जवाब में दो अलग-अलग सच हैं, जो एक साथ सच दिखता है।

पहली सच्चाई यह है कि एनडीए ने बेहतरीन राजनीतिक रणनीति अपनाई। महिलाओं के विश्वास को जीता, गठबंधन को मजबूत किया और नीतीश की विरासत को जनता ने स्वीकार किया। यह जीत वास्तविक है, क्योंकि यह एक जनादेश है।

लेकिन दूसरी सच्चाई यह भी है की चुनावी प्रक्रिया में गंभीर खामियां थीं। मतदाता सूची से नामों को हटाया जाना और नए नामों को जोड़ा जाना बिलकुल भी पारदर्शी नहीं था, चुनाव आयोग (ECI) निष्पक्षता से कोशों दूर खड़ा सत्ता पक्ष के गोद में खेलता नज़र आया, ईवीएम (EVM) के संदेह को दूर करने की कोशिश तक नहीं की गयी, और ये सारी खामियां भी वास्तविक सच्चाई हैं।

दोनों ही सच हैं और दोनों को हमें स्वीकार करना होगा। जो लोग केवल पहली सच्चाई देखते हैं, वे व्यवस्थागत संकट को नजरअंदाज कर रहे हैं और जो लोग केवल दूसरी सच्चाई देखते हैं, वे राजनीतिक एवं सामाजिक वास्तविकता से आंखें मूंद रहे हैं।

अब आगे असली चुनौती यह है की हम एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे बनाएं जहां जीत सामाजिक कार्य एवं राजनीतिक रणनीति से हो, न कि व्यवस्थागत हेरफेर से? जहां चुनाव आयोग सत्ता का नहीं, बल्कि संविधान का प्रतिनिधि हो?

बिहार चुनाव (Bihar Elections) के इस परिणाम ने भारतीय लोकतंत्र के सामने यह सवाल रख दिया है। और इस सवाल का जवाब न दे पाना, न सिर्फ बिहार के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए, घातक हो सकता है।

[AK]

लेखक परिचय- मेरा नाम राहुल देव है, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से पढ़ाई कर पिछले १२ वर्षों से भारतीय राजनीति, चुनावी प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं से जुड़े मुद्दे पर काम कर रहा हूँ। बिहार की राजनीतिकि गतिविधियों से मेरा ख़ास लगाव रहा है।
नीतीश कुमार शपथ ग्रहण करते हुए|
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