आर्थिक सुधारों के नायक लेकिन फिर भी क्यों रहें कांग्रेस की पोस्टर से गायब?

भारत के आर्थिक सुधारों की नींव रखने वाले, विदेश नीति मे माहिर, और कठिन समय में देश को स्थिरता देने वाले पी. वी. नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) आज भारतीय राजनीति में एक “भुला दिया गया प्रधानमंत्री” (Forgotten Prime Minister) बन चुके हैं। उन्होंने 1991 में तब प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी, जब देश आर्थिक संकट में डूबा हुआ था।
पी. वी. नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) कि मुस्कुराहट से भरी तस्वीर
पी. वी. नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) आज भारतीय राजनीति में एक “भुला दिया गया प्रधानमंत्री” (Forgotten Prime Minister) बन चुके हैं।[SORA AI]
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भारत के आर्थिक सुधारों की नींव रखने वाले, विदेश नीति मे माहिर, और कठिन समय में देश को स्थिरता देने वाले पी. वी. नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) आज भारतीय राजनीति में एक “भुला दिया गया प्रधानमंत्री” (Forgotten Prime Minister) बन चुके हैं। उन्होंने 1991 में तब प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी, जब देश आर्थिक संकट में डूबा हुआ था। लेकिन हैरानी की बात ये है कि खुद उनकी पार्टी कांग्रेस (Congress) ने उनके योगदान को कभी मान्यता और सम्मान नहीं दिया। उनकी मृत्यु के बाद न कांग्रेस ने कोई बड़ा श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित किया और न ही उनके योगदान को संस्थागत पहचान दी। आख़िर एक ऐसा प्रधानमंत्री (Prime Minister), जिसने देश को बदले जाने की दिशा में पहला मजबूत क़दम उठाया, उसे क्यों भुला दिया गया? क्या उनके सुधारों का श्रेय किसी और को देना था? या उनके राजनीतिक रवैये से पार्टी नाखुश थी? आइए जानतें हैं!

क्यों कहा जाता है नरसिम्हा राव को'Forgotten PM'?

नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) को "Forgotten PM" इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनके रहते हुए किए गए क्रांतिकारी कार्यों को कांग्रेस (Congress) ने ना केवल अनदेखा किया, बल्कि उनके नाम तक को पार्टी के इतिहास से लगभग मिटा दिया। प्रधानमंत्री (Prime Minister) बनने के बाद उन्होंने देश को आर्थिक संकट (Economic Crisis) से उबारा, वैश्विक मंचों पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई, और आज के न्यू इंडिया की नींव रखी। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद न उनका पार्थिव शरीर कांग्रेस मुख्यालय लाया गया, न दिल्ली में अंतिम संस्कार की अनुमति दी गई। यहां तक कि कांग्रेस के नेताओं की सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं भी बेहद ठंडी थीं।

मनमोहन सिंह नरसिम्हा राव को श्रद्धांजलि देते हुए
उनकी समाधि दिल्ली में 'शांति वन' या 'राज घाट' के पास न होकर, हैदराबाद में बनवाई गई।Dinesh [Wikimedia Commons]

उनकी समाधि दिल्ली में 'शांति वन' या 'राज घाट' के पास न होकर, हैदराबाद में बनवाई गई। कई विश्लेषकों का मानना है कि राव जी की स्वतंत्र सोच, सोनिया गांधी (Soniya Gandhi) के नेतृत्व को चुनौती न सही, लेकिन उसके लिए असहज ज़रूर थी। यही कारण रहा कि कांग्रेस ने जानबूझकर उनके योगदान को 'भूलने' का प्रयास किया।

निजाम के ख़िलाफ़ आंदोलन से सीएम की कुर्सी तक का सफ़र

नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) का जन्म 1921 में तेलंगाना (Telangana) में हुआ था, जब यह इलाका निज़ाम के शासन में था। उन्होंने शुरू से ही तेलुगू, हिंदी, उर्दू, संस्कृत और फारसी जैसी भाषाओं में गहरी पकड़ बना ली थी। उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ निज़ाम के खिलाफ लड़ाई से, जहां उन्होंने हैदराबाद को भारत में शामिल कराने की आवाज़ उठाई। 1957 में वे आंध्र प्रदेश विधानसभा पहुंचे और धीरे-धीरे राज्य के प्रमुख नेताओं में गिने जाने लगे।

नरसिम्हा राव एक सम्मेलन में
1971 में उन्हें आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया [Wikimedia Commons]

1971 में उन्हें आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) का मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन उनका कामकाज इतना स्पष्ट, और छवि इतनी ईमानदार थी कि उन्हें जल्दी ही दिल्ली बुला लिया गया। उन्होंने धीरे-धीरे खुद को एक सुलझे हुए, गहरे सोच वाले राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित किया। यह सफर आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने संघर्षों से सीखते हुए खुद को कभी झुकने नहीं दिया।

इंदिरा गांधी के रहे बेहद करीबी लेकिन इस छाया ने आगे बढ़ने नहीं दिया

नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao), इंदिरा गांधी (indira Gandhi) के शासनकाल में सबसे भरोसेमंद और बुद्धिमान मंत्रियों में गिने जाते थे। उन्होंने शिक्षा, विदेश नीति, और गृह मंत्रालय जैसे कई महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाले। इंदिरा गांधी उन्हें उनकी चुपचाप काम करने की आदत और बौद्धिक क्षमता के लिए बहुत पसंद करती थीं। हालांकि वे कभी ‘पावर पॉलिटिक्स’ का हिस्सा नहीं बने। वे पर्दे के पीछे रहकर योजनाएं बनाने और नीतियों को आकार देने वाले नेता थे। उनकी यही ‘low profile’ छवि उन्हें आम जनता और मीडिया की नज़रों से दूर रखती थी।

नरसिम्हा राव की तस्वीर
नरसिम्हा राव, इंदिरा गांधी के शासनकाल में सबसे भरोसेमंद और बुद्धिमान मंत्रियों में गिने जाते थे। [Wikimedia Commons]

लेकिन उनके विचार इतने सशक्त थे कि इंदिरा गांधी कई मौकों पर उनके सुझावों पर भरोसा करती थीं। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद भी कई जानकार मानते हैं कि राव जी का ‘बैकबेंचर इंटेलिजेंस’ ही कांग्रेस की असली ताकत थी।

डॉ. मनमोहन सिंह की एंट्री: नरसिम्हा राव का मास्टरस्ट्रोक

1991 में जब भारत आर्थिक संकट की कगार पर था, तब प्रधानमंत्री बनते ही नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) ने एक बड़ा और साहसी निर्णय लिया, डॉ. मनमोहन सिंह (Dr Manmohan Singh) को वित्त मंत्री (Finance Minister) बनाना। उस समय डॉ. सिंह न कोई लोकप्रिय नेता थे, न ही राजनीति में ज्यादा अनुभव रखते थे। लेकिन राव जी को उनका आर्थिक दृष्टिकोण, IMF और विश्व बैंक से संबंधों की समझ, और नीतियों को क्रियान्वित करने की क्षमता पर पूरा भरोसा था।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
प्रधानमंत्री बनते ही नरसिम्हा राव ने एक बड़ा और साहसी निर्णय लिया, डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाना। [Wikimedia Commons]

उन्होंने डॉ. सिंह को फ्री हैंड दिया, जिसकी वजह से भारत में LPG यानी Liberalisation, Privatisation, Globalisation की शुरुआत हुई। नरसिम्हा राव न होते, तो शायद भारत आज भी लाइसेंस राज के नीचे दबा होता। वे खुद बैकफुट पर रहे, लेकिन उन्होंने डॉ. सिंह को आगे रखकर एक ऐसा भविष्य गढ़ा जिसने भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा बदल दी।

बाबरी मस्जिद विवाद: नरसिम्हा राव की चुप्पी का रहस्य

6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, और पूरे देश में दंगे भड़क उठे। उस वक्त प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) थे, और उन्हें लेकर सबसे बड़ा आरोप यही लगा कि उन्होंने समय रहते कुछ नहीं किया। विपक्ष ने उन्हें निष्क्रिय और असंवेदनशील करार दिया, लेकिन सच्चाई थोड़ी और जटिल थी। राव जी ने दावा किया था कि उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार ने उन्हें लिखित रूप से सुरक्षा का भरोसा दिलाया था। लेकिन जब मस्जिद टूटी, तो केंद्र सरकार को भी जवाब देना पड़ा। हालांकि, वे बाद में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद मसले को अदालत के हवाले करने की दिशा में काम करते रहे। आलोचना जरूर हुई, लेकिन उन्होंने संविधान और संघीय ढांचे की सीमाओं में रहकर निर्णय लिया। फिर भी, कांग्रेस ने इस मसले पर उन्हें अकेला छोड़ दिया।

नरसिम्हा राव एक सम्मेलन में
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, और पूरे देश में दंगे भड़क उठे। उस वक्त प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे [Wikimedia Commons]

1998 का चुनाव: कांग्रेस ने नहीं दिया टिकट!

शायद यह भारतीय राजनीति का सबसे अस्वाभाविक और दुखद दृश्य था। एक पूर्व प्रधानमंत्री, जिसने पार्टी को संकट से उबारा, जिसने देश को नई दिशा दी, उसे पार्टी ने 1998 में लोकसभा चुनाव के लिए टिकट तक नहीं दिया। कहा जाता है कि कांग्रेस नेतृत्व, विशेषकर सोनिया गांधी गुट, राव जी की स्वतंत्र सोच और कार्यशैली से असहज था। उन्हें न तो पार्टी के मंचों पर जगह मिली, न ही उनके योगदान को प्रचारित किया गया। वे अंतिम वर्षों में खुद को कांग्रेस से एकदम अलग-थलग महसूस करने लगे थे। यह वही नरसिम्हा राव थे जिनके फैसलों की वजह से आज कांग्रेस अर्थव्यवस्था की बात कर पाती है, लेकिन उन्हें उनका हक़ कभी नहीं मिला। 2004 में जब उनकी मृत्यु हुई, तब भी उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस मुख्यालय तक नहीं लाया गया। यह 'भुला दिए जाने' की राजनीति का सबसे गहरा प्रमाण था।

नरसिम्हा राव के पार्थिव शरीर को ले जाते हुए
जब उनकी मृत्यु हुई, तब भी उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस मुख्यालय तक नहीं लाया गया। [Wikimedia Commons]


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पी.वी. नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) भारतीय राजनीति के वो किरदार हैं, जिन्होंने चुपचाप देश की दिशा ही बदल दी। जब भारत आर्थिक संकट की कगार पर था, तब उन्होंने साहसिक फैसले लिए और डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाकर आर्थिक उदारीकरण की नींव रखी। लेकिन विडंबना यह रही कि इतने ऐतिहासिक योगदान के बावजूद उन्हें कांग्रेस पार्टी और भारतीय राजनीति ने हाशिए पर धकेल दिया। उनके नाम पर न तो उतने स्मारक बने, न ही पार्टी कार्यक्रमों में प्रमुखता दी गई। ऐसा लगता है मानो उन्हें इतिहास से मिटाने की एक रणनीति रची गई हो। क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वे गांधी-नेहरू परिवार से नहीं थे? आज जब भारत ग्लोबल इकॉनमी में मजबूती से खड़ा है, तब यह सवाल और भी तीखा हो जाता है कि जिसने नींव रखी, उसे आखिर सम्मान क्यों नहीं मिला? क्या इतिहास उन्हें उनका उचित स्थान कभी देगा? [Rh/SP]

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