![क्या वास्तव में इंदिरा गांधी ने कभी अमेरिका से मदद नहीं मांगी थी? [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-07-31%2Fb7s272nm%2Fassetstask01k1g5nc8ce9gtv12zekza3xzh1753963340img1.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
हाल के दिनों में भारत की संसद एक बार फिर गरमा गई है, वजह है पाकिस्तान के खिलाफ चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर (Operation Sindoor) और भारत-पाक युद्ध (Indo-Pak War) में अमेरिका की भूमिका। विपक्ष लगातार यह सवाल उठा रहा है कि आज भारत को विदेशों से मदद क्यों मांगनी पड़ रही है? विवाद तब और तेज़ हुआ जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा —
“मेरी दादी इंदिरा गांधी कभी अमेरिका के सामने झुकी नहीं, लेकिन आज के प्रधानमंत्री कमजोर हैं, जो विदेशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं।”
लेकिन क्या वास्तव में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने कभी अमेरिका से मदद नहीं मांगी थी? इतिहास गवाह है, कि जब 1971 में पाकिस्तान ने भारत (1971 Indo-Pak War) पर हमला किया, तो इंदिरा गांधी ने खुद एक चिट्ठी के ज़रिए अमेरिका के राष्ट्रपति से मदद की अपील की थी। पर अफ़सोस, वो मदद मिली नहीं, उल्टा अमेरिका भारत के ही खिलाफ खड़ा हो गया। आज जब संसद में बार-बार यह मुद्दा उठ रहा है, तो ज़रूरी है कि हम उस इतिहास के पन्ने पलटें, जिसे शायद कुछ लोग भूल जाना चाहते हैं। आज हम जानेंगे कि क्या थी उस चिट्ठी की सच्चाई, अमेरिका का क्या रुख था, और कैसे बिना किसी विदेशी समर्थन के भारत ने दुश्मन को धूल चटा दी।
जब इंदिरा गांधी ने मांगी थी अमेरिका से मदद
1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन (Richard Nixon) को लिखा गया एक पत्र सामने आया है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान से "आक्रामक गतिविधियों" को छोड़ने के लिए उसे समझाने की अपील की थी। यह पत्र उस समय लिखा गया था जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था और इसके दो दिन बाद भारत-पाक युद्ध की शुरुआत हुई थी, जो अंततः बांग्लादेश की स्थापना पर समाप्त हुआ।
यह मामला तब सुर्खियों में आया है जब विपक्ष लगातार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trumph) के उस दावे पर सवाल उठा रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य तनाव, जिसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ (Operation Sindoor) कहा गया, के दौरान युद्धविराम करवाने में भूमिका निभाई थी। जहां केंद्र सरकार का कहना है कि युद्धविराम में किसी बाहरी पक्ष की कोई भूमिका नहीं थी, वहीं विपक्ष बार-बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह साबित करने को कह रही है कि ट्रंप झूठ बोल रहें हैं। आपको बता दें कि 5 दिसंबर 1971 को इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने निक्सन को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने कहा था कि :
"इस संकट की घड़ी में भारत सरकार और भारत की जनता आपकी समझदारी की अपेक्षा करती है और आपसे आग्रह करती है कि आप पाकिस्तान को उसकी उद्दंड आक्रामकता और सैन्य दुस्साहस की नीति को तत्काल त्यागने के लिए प्रेरित करें, जिस पर वह दुर्भाग्यवश चल पड़ा है।"
Indira Gandhi
यह पत्र अमेरिका के विदेश विभाग के ऐतिहासिक अभिलेखागार की वेबसाइट पर मौजूद है, जिसे ‘Foreign Relations of the United States, 1969–1976, Volume XI, South Asia Crisis, 1971’ नामक खंड में देखा जा सकता है। इंदिरा गांधी ने आगे लिखा:
"क्या मैं आपसे यह अनुरोध कर सकती हूं कि आप पाकिस्तान सरकार पर अपना निर्विवाद प्रभाव डालें ताकि वह भारत के खिलाफ अपनी आक्रामक गतिविधियों को रोकें और तुरंत पूर्वी बंगाल की उस मूल समस्या का समाधान करें, जिसने न केवल पाकिस्तान के बल्कि पूरे उपमहाद्वीप के लोगों के लिए अपार पीड़ा और संकट उत्पन्न कर दिया है।"
Indira Gandhi
इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की इस चिट्ठी ने आज पूरे संसद में कई सवाल खड़े कर दिए है और तत्कालीन प्रधानमंत्री के बचाव में रूलिंग पार्टी इंदिरा गांधी के इन्हीं पत्रों का सहारा ले कर खुद का बचाव कर रही हैं।
अमेरिका ने किया मदद से इंकार
1971 के दौरान इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) चाहती थीं कि अमेरिका पाकिस्तान पर कूटनीतिक दबाव डाले ताकि जनसंहार रुके और क्षेत्र में स्थिरता बनी रहे। लेकिन इसके उलट, अमेरिका ने न केवल भारत की अपील को नजरअंदाज किया बल्कि पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया। निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने इंदिरा गांधी को 'ठंडी' और 'अहंकारी' कहकर निजी तौर पर आलोचना की थी।
अमेरिका ने सातवां बेड़ा, यानी उनका युद्धपोत समूह, हिंद महासागर में भेज दिया ताकि भारत पर दबाव बनाया जा सके। अमेरिका के इस रुख ने यह साफ कर दिया कि वह भारत के बजाय पाकिस्तान के पक्ष में था। लेकिन इंदिरा गांधी ने झुकने से इनकार कर दिया और भारत ने अकेले दम पर युद्ध जीतकर बांग्लादेश को एक स्वतंत्र राष्ट्र बना दिया।
बिना अमेरिका की मदद के इंदिरा गांधी ने कैसे जीता 1971 का युद्ध?
1971 के भारत-पाक युद्ध (1971 Indo-Pak War) में इंदिरा गांधी ने साबित कर दिया कि एक सशक्त नेतृत्व कैसे कठिन से कठिन हालात में भी देश को विजयी बना सकता है। जब अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया और भारत की मदद से इनकार कर दिया, तब इंदिरा गांधी ने अंतरराष्ट्रीय दबावों की परवाह किए बिना स्वदेशी रणनीति और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बल पर पाकिस्तान का डटकर सामना किया।
भारत ने सैन्य, कूटनीतिक और नैतिक तीनों मोर्चों पर तैयारी की। सबसे पहले, इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ 'भारत-सोवियत मैत्री संधि' की, जिससे भारत को एक मज़बूत वैश्विक समर्थन मिला। दूसरी तरफ, भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार रोकने और वहां के लोगों को स्वतंत्रता दिलाने के लिए मुक्ति वाहिनी का सहयोग किया और पाकिस्तान की सेना को चारों तरफ से घेर लिया।
इंदिरा गांधी की रणनीति और सेना के साहसिक अभियान का परिणाम ये हुआ कि सिर्फ 13 दिनों में पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए। 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया, जो अब तक का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण माना जाता है। अमेरिका की गैरमौजूदगी में भी इंदिरा गांधी ने न केवल युद्ध जीता, बल्कि बांग्लादेश को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाकर इतिहास रच दिया।
इसमें कोई शक नहीं कि इंदिरा गांधी भारत की अब तक की सबसे सशक्त और निर्णायक प्रधानमंत्रियों में से एक थीं। उनके कई फैसलों ने देश को नई दिशा दी, लोगों में आत्मविश्वास भरा और कई कठिन युद्धों में भारत को जीत दिलाई। हालांकि, उनके कुछ निर्णयों को लेकर समय-समय पर आलोचनाएं भी हुईं, लेकिन यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, जहां हर निर्णय पर सवाल उठाना जनता का अधिकार होता है।
आज जब संसद में वर्तमान प्रधानमंत्री की रणनीति या निर्णयों पर सवाल उठते हैं, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम इतिहास को भी उसी नज़र से देखें। हमें यह समझना होगा कि हर प्रधानमंत्री का नेतृत्व शैली, सोच और निर्णय लेने का तरीका अलग होता है। कभी-कभी हालात ही उन्हें ऐसे फैसले लेने के लिए मजबूर कर देते हैं जो बाद में विवाद का कारण बनते हैं।
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हर युग की अपनी चुनौतियाँ होती हैं और हर प्रधानमंत्री को उन चुनौतियों का सामना अपने तरीके से करना होता है। हमें आलोचना से पहले परिस्थिति की गहराई और उस समय की ज़रूरतों को समझना चाहिए। इंदिरा गांधी ने जहां अपनी दृढ़ता से देश का मान बढ़ाया, वहीं आज के नेता भी अपने तरीकों से देश को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। ज़रूरत है एक संतुलित सोच की, जहां आलोचना भी हो, लेकिन समझदारी के साथ। [Rh/SP]