स्मृति शेष : सत्ता के शिखर के 'असली केंद्र', विवादों और त्रासदी की अनकही कहानी

14 दिसंबर 1946 को संजय गांधी का जन्म हुआ। 33 साल की उम्र में ही उन्होंने भारतीय राजनीति में विवाद, सत्ता और महत्वाकांक्षा की एक अलग छाप छोड़ी।
संजय गांधी का चित्र|
संजय गांधी: सत्ता और विवाद की अनकही कहानी|IANS
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ये कहानी है सत्तर के दशक की... देश की राजनीति उफान पर थी और केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार अपने शिखर पर। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) थीं, लेकिन सत्ता के गलियारों में एक नाम लगातार गूंज रहा था और वो नाम है संजय गांधी। कहा जाता था कि सरकार इंदिरा की थी, मगर फैसलों की दिशा संजय गांधी तय करते थे। केंद्र से लेकर राज्यों तक, हर बड़े निर्णय में उनकी भूमिका होती थी। तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री भी यह जानते थे कि दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता संजय से होकर गुजरता है।

देश में आपातकाल के दौरान संजय गांधी (Sanjay Gandhi) के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों ने पूरे देश की रफ्तार बदल दी थी। इनमें सबसे विवादास्पद फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम रहा। इस कार्यक्रम का लक्ष्य किसी भी कीमत पर बढ़ती आबादी पर लगाम लगाना था, लेकिन इसे लागू करने का तरीका भयावह बनता चला गया। राज्यों को टारगेट दिया गया और इस टारगेट को पूरा करने की होड़ शुरू हो गई। हरियाणा ने तय लक्ष्य से चार गुना नसबंदी कर डाली, मध्यप्रदेश ने तीन गुना और उत्तर प्रदेश ने दोगुना लक्ष्य पूरा किया। सरकारी मशीनरी इतनी बेकाबू हो गई कि 164 कुंवारों और 11,434 ऐसे लोगों की भी नसबंदी कर दी गई, जिनका सिर्फ एक बच्चा था।

उस दौर में नसबंदी का सर्टिफिकेट पहचान पत्र से कहीं ज्यादा जरूरी दस्तावेज बन गया। राशन, इलाज, स्कूल में बच्चों के नामांकन, सब कुछ उसी कागज पर टिक गया। सरकारी कर्मचारियों, खासकर शिक्षकों की हालत सबसे खराब थी। हर टीचर को हर महीने पांच लोगों की नसबंदी 'करवाने' का टारगेट मिला। इससे इनकार करने का मतलब सीधा सस्पेंशन था। डर और दहशत के उस माहौल में फर्जी सर्टिफिकेट भी बनने लगे।

संजय गांधी पढ़ाई-लिखाई में खास नहीं थे। इसके बाद अपनी हॉबी को उन्होंने करियर बनाने का फैसला किया। सितंबर 1964 में उन्हें इंग्लैंड के क्रेव स्थित रोल्स-रॉयस प्लांट में ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। यहां तीन साल की ट्रेनिंग थी, हालांकि वह ट्रेनिंग अधूरी छोड़कर भारत लौट आए, लेकिन लौटते वक्त उनके मन में एक सपना था, भारत की अपनी छोटी कार।

1968 में संजय ने स्वदेशी स्मॉल कार का प्रस्ताव रखा। सरकार के पास दुनिया भर से 14 प्रस्ताव आए थे, लेकिन संसद में बताया गया कि संजय का प्रोजेक्ट सबसे किफायती है। मारुति का प्रोटोटाइप बना, लेकिन ट्रायल के दौरान ही वह बीच रास्ते बंद पड़ गया, उसे धक्का देकर वापस लाया गया। बैंकों से लोन मिला, उम्मीदें बड़ी थीं, मगर कंपनी लक्ष्य से पिछड़ती चली गई। 1977 में सत्ता बदली, मामला कोर्ट पहुंचा और फिर मारुति पर ताला लग गया।

1976 में संजय गांधी ने कांग्रेस के बीस सूत्रीय कार्यक्रम के प्रचार के लिए लाइव शो की योजना बनाई। उस दौर में हर किसी के दिल पर किशोर कुमार की आवाज राज करती थी। उन्हें सीधे फोन कॉल कर दिल्ली आने की पेशकश की गई, लेकिन किशोर ने अपॉइंटमेंट और सम्मान की बात की। मुंबई में हुई बैठक में किशोर ने साफ कहा कि मैं किसी भी धुन पर नाच सकता हूं, लेकिन सरकार की धुन पर नहीं। यह बात संजय तक पहुंची और इसे अपमान माना गया। नतीजा, यह हुआ कि ऑल इंडिया रेडियो से किशोर के गाने गायब हो गए, सेंसर बोर्ड ने उनकी फिल्मों पर रोक लगा दी। यह घटना सत्ता और कला के टकराव की सबसे चर्चित मिसाल बन गई।

संजय गांधी के जीवन में एक लड़की की भी एंट्री होती है, जो बाद में उनकी पत्नी बनती है। लड़की का नाम था मेनका आनंद। दोनों की पहली मुलाकात 14 दिसंबर 1973 को एक शादी समारोह में हुई। उस वक्त मेनका की उम्र 17 साल थी। वह मॉडलिंग कर चुकीं थीं और पहली ही नजर में संजय को भा गईं। रिश्ता गहराया और एक साल के भीतर संजय उन्हें अपनी मां इंदिरा गांधी से मिलाने ले आए। 29 जुलाई 1974 को प्रधानमंत्री आवास में सगाई हुई और 23 सितंबर 1974 को दोनों शादी के बंधन में बंध गए।

संजय गांधी के शौक तो कई थे, उनमें से एक विमान उड़ाना भी था, और इसी शौक ने साल 1980 में उनकी जान ले ली। 23 जून 1980 को संजय गांधी सफदरजंग एयरपोर्ट पहुंचे। हवाई करतब के दौरान उनका विमान नियंत्रण से बाहर हो गया। सिर में गंभीर चोट लगी और मौके पर ही मौत हो गई। उनके साथ कैप्टन सुभाष सक्सेना भी इस हादसे में मारे गए। इसी दिन वह तेज रफ्तार चेहरा एक पल में खामोश हो गया। बेटे की मौत के 72 घंटे बाद इंदिरा गांधी दफ्तर पहुंचीं। बैठक के दौरान संजय का नाम आया तो वे पहली बार सबके सामने रो पड़ीं।

संजय की मौत के बाद इंदिरा गांधी ने उनके सपने को जिंदा रखने का फैसला किया। मारुति प्रोजेक्ट दोबारा शुरू हुआ और जापान की सुजुकी कंपनी के साथ साझेदारी हुई। 14 दिसंबर 1983 को देश की पहली मारुति सुजुकी 800 कार डिलीवर की गई। यह सिर्फ एक कार नहीं थी, बल्कि उस अधूरे सपने को दी गई श्रद्धांजलि थी।

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