गुप्त नवरात्रि के महविद्याओं की कड़ी में आज हम जानेंगे छठी महाविद्या माँ त्रिपुर भैरवी के बारे में। पिछले कड़ी की एक कथा में महाविद्याओं के प्रकट्य की कथा पढ़ी थी। जब महादेव डर गए तब देवी सती ने त्रिपुर भैरवी का स्वरूप लेकर ही उनके सामने प्रकट हुईं थीं, और कहीं, 'अहं तु भैरवी भीमां शम्भो मा त्वऽभयं कुरु।।' अर्थात् हे शिव! मैं स्वयं ही भैरवी रूप से आपको अभय दान देने के लिए प्रस्तुत हुई हूँ।
सभी बंधनों को समाप्त कर भक्त के जीवन में माँ त्रिपुर भैरवी खुशियों का समागम करती हैं। इस कारण से उन्हें बंदीछोड़ माता कहकर बुलाया जाता है। ग्रंथों में माँ त्रिपुर भैरवी को चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। इन महास्वरूपा का वर्णन सप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध के प्रसंग में हुआ है।
माँ का स्वरूप अत्यंत अलौकिक है। चार भुजाओं और तीन नेत्रों से सुशोभित इन देवी का रंग उगते हुए सूर्य की कान्ति के समान है। इन्होंने लाल वस्त्र धारण किया हुआ है। चार हाथों वाली इन देवी के गले में मुंडमाला शोभायमान है और ये कमल के आसन पर आसीन हैं। माँ के एक हाथ में जयमाला, दूसरे में पुस्तक है। बाकी के दो हाथ क्रमशः वर एवम अभय मुद्रा में है।
माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।
माँ की अनन्य भाव से साधना करने वाले साधकों को जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि, धन-सम्पदा, मनोवांछित वर या कन्या आदि की प्राप्ति होती है।