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हर साल सावन के महीने में जब आसमान से बारिश की बूंदें धरती को ठंडक देती हैं, तब भारत के लाखों श्रद्धालु शिवभक्ति की अग्नि में तपकर निकलते हैं एक विशेष यात्रा पर, “कांवड़ यात्रा”। ये यात्रा गंगा जल को लाकर भगवान शिव के शिवलिंग पर अर्पित करने की एक धार्मिक परंपरा है। उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड में इसका विशेष महत्व है। भगवा कपड़ों में लिपटे, कंधे पर कांवड़ लिए, ‘बोल बम’ का जयघोष करते हुए ये भक्त हरिद्वार, गंगोत्री, देवघर, वाराणसी जैसे तीर्थों से जल भरकर अपने गांव या नज़दीकी शिव मंदिर में चढ़ाते हैं। आइए आज जानतें है कि हिंदू धर्म में कांवड़ यात्रा का क्या महत्व है और आखिर कितने पर ही होती है कांवड़ यात्रा?
मान्यताएं और महत्व
कांवड़ यात्रा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, यह आस्था, तपस्या और संकल्प की जीवंत मिसाल है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय जब विष निकला था, तब भगवान शिव ने उसे पीकर धरती को विनाश से बचाया। उस विष की गर्मी को शांत करने के लिए देवताओं ने गंगाजल शिवलिंग पर चढ़ाया। तभी से ये परंपरा चली आ रही है कि श्रावण मास में भगवान शिव को गंगाजल अर्पित कर उन्हें शीतल किया जाता है। कहते हैं, जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से कांवड़ यात्रा करता है, उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यह यात्रा त्याग, संयम और भक्ति की परीक्षा होती है। भक्त नंगे पांव चलते हैं, उपवास रखते हैं, कई तो जमीन पर लेटते हुए या डाक कांवड़ की गति से शिवधाम तक पहुंचते हैं। यह न केवल भगवान शिव के प्रति प्रेम का प्रतीक है, बल्कि आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक अनुभव का भी मार्ग है।
कितने प्रकार की होती है कांवड़ यात्रा?
कांवड़ यात्रा को श्रद्धालु अपनी सामर्थ्य और संकल्प के अनुसार विभिन्न प्रकारों में पूरा करते हैं:
साधारण कांवड़: इसमें भक्त सामान्य तरीके से पैदल चलते हैं और जल लेकर शिव मंदिर में अर्पित करते हैं।
डाक कांवड़: यह सबसे तेज और कठिन यात्रा मानी जाती है। जल लेने के बाद बिना रुके, दौड़ते हुए शिवधाम पहुंचना होता है। इसमें टीम वर्क भी देखने को मिलता है क्योंकि डाक कांवड़िए एक-दूसरे की मदद करते हैं।
दंड कांवड़: इस प्रकार की यात्रा में भक्त हर कदम पर दंडवत प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं। यह अत्यंत कठिन होती है और केवल गिने-चुने लोग ही इसे पूरा कर पाते हैं।
खड़ी कांवड़: इस यात्रा में जल लेने के बाद कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता, जब तक कि वह शिवलिंग पर चढ़ाया न जाए। इससे भगवान शिव के प्रति श्रद्धा की गंभीरता दर्शाई जाती है।
हर प्रकार की यात्रा एक संकल्प और बलिदान का प्रतीक है, जिसे भक्त प्रेमपूर्वक निभाते हैं।
कांवड़ यात्रा से जुड़ी एक प्रेरक कथा
प्राचीन काल की एक कथा है, जिसका ज़िक्र कई स्थानीय कहानियों में होता है। कहा जाता है कि एक बार एक दलित भक्त 'भीमा' ने यह प्रण लिया कि वह भगवान शिव को गंगाजल अर्पित करेगा। लेकिन समाज उसे मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं देता था। भीमा ने हरिद्वार से गंगाजल लाया, लेकिन गांव पहुंचने से पहले ही उसकी शरीर ने जवाब दे दिया। उसने अंतिम सांसें लेते हुए शिवलिंग की ओर जल उड़ेलने की कोशिश की।
तभी एक चमत्कार हुआ। शिवलिंग स्वयं झुक गया और भीमा के जल को स्वीकार कर लिया। उस दिन से यह मान्यता और मजबूत हो गई कि भगवान केवल जात-पात नहीं, भावना को देखते हैं। यह कथा आज भी कई ग्रामीण अंचलों में कांवड़ यात्रा की महिमा को साबित करने के लिए सुनाई जाती है।
कांवड़ यात्रा का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व
कांवड़ यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, यह भारत की एकता, संस्कृति और सहिष्णुता की मिसाल भी है। इसमें शामिल होने वाले हर भक्त, चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या भाषा का हो। एक समान भगवे वस्त्र पहनकर, ‘बोल बम’ के स्वर में शिवभक्ति करता है। यह यात्रा शारीरिक और मानसिक तप का भी माध्यम है, जहां भक्त अपनी इच्छाओं, क्रोध, अहंकार और आराम को त्यागकर केवल भक्ति में लीन होता है। सामाजिक रूप से यह यात्रा सामूहिकता को बढ़ावा देती है। रास्तों में सेवा शिविर, पानी, चिकित्सा और भंडारे से मानवता का अद्भुत प्रदर्शन देखने को मिलता है। भारतीय धर्म और परंपरा में यह यात्रा त्याग, श्रद्धा और ईश्वर के प्रति समर्पण की उच्चतम मिसाल मानी जाती है।
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कांवड़ यात्रा केवल एक तीर्थ नहीं, आस्था की पराकाष्ठा है। यह वो संकल्प है जिसमें भक्त हर बाधा को पार कर, भगवान शिव के चरणों में अपनी भक्ति का जल अर्पित करता है। डाक हो, दंड हो या खड़ी कांवड़, हर रूप में यह यात्रा बताती है, जब आस्था सच्ची हो, तो रास्ते अपने आप खुल जाते हैं। [Rh/SP]