भारत की कुछ ऐसी जगहें जहाँ दीवाली मनाना माना जाता है अपशकुन!

हर साल जब पूरा भारत दीयों की रोशनी में नहाया होता है, आसमान में आतिशबाज़ी चमक रही होती है, और घर-घर में लक्ष्मी पूजा की तैयारी होती है तब भी देश के कुछ कोने ऐसे हैं जहाँ सन्नाटा पसरा रहता है।
Places in India where celebrating Diwali is considered inauspicious
Places in India where celebrating Diwali is considered inauspiciousSora Ai
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Summary

  • धार्मिक-ऐतिहासिक कारण – कर्नाटक (Mandyam Iyengars), हिमाचल (Sammoo गाँव) और कुछ उत्तराखंडी क्षेत्रों में दीवाली को शोक दिवस माना जाता है क्योंकि यह दिन उनके इतिहास और त्रासदियों से जुड़ा है।

  • आर्थिक-सामाजिक पहलू – तमिलनाडु का Mampatti गाँव दीवाली नहीं मनाता क्योंकि खेती के मौसम (Samba season) में खर्च और विपत्तियों का अनुभव इसे अपशकुन मानने की परंपरा बना चुका है।

  • सांस्कृतिक-पर्यावरणीय दृष्टि – पूर्वोत्तर के कई राज्य अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान और उत्सवों को प्राथमिकता देते हैं, वहीं विलुपुरम जैसे गाँवों में परंपरागत रूप से पटाखे न फोड़कर पर्यावरण और पक्षियों की रक्षा की जाती है।

हर साल जब पूरा भारत दीयों की रोशनी में नहाया होता है, आसमान में आतिशबाज़ी चमक रही होती है, और घर-घर में लक्ष्मी पूजा की तैयारी होती है तब भी देश के कुछ कोने ऐसे हैं जहाँ सन्नाटा पसरा रहता है। वहाँ न दीप जलते हैं, न मिठाइयाँ बाँटी जाती हैं, और न ही दीवाली (Diwali) की खुशियाँ मनाई जाती हैं। क्यों? क्योंकि उन जगहों पर दीवाली को उत्सव नहीं, अपशकुन माना जाता है।

कहीं ये दिन किसी त्रासदी की याद दिलाता है, तो कहीं इसे शोक का प्रतीक माना जाता है। कुछ स्थानों पर लोगों का विश्वास है कि इसी दिन उनके देवी-देवता दुखी हुए थे, इसलिए वहाँ रोशनी करना उनके लिए अनादर जैसा है। वहीं दक्षिण भारत (South India) के कुछ इलाकों में रावण को महान शिवभक्त मानते हुए, उसके वध के दिन को शोक दिवस के रूप में देखा जाता है। भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ हर कुछ किलोमीटर पर भाषा और परंपरा बदल जाती है, वहाँ त्योहारों की यह विविधता कोई अचरज की बात नहीं। लेकिन यह सोचने पर मजबूर ज़रूर करती है जिस दिन बाकी देश रोशनी में डूबा होता है, उसी दिन कुछ जगहें अंधेरे को क्यों गले लगाती हैं? (Places in India where celebrating Diwali is considered inauspicious) आइए विस्तार से जानतें है।

धार्मिक और सांस्कृतिक कारण

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भारत विविधताओं का देश है यहाँ हर पर्व के पीछे एक कथा, एक मान्यता और एक भाव छिपा होता है। Pixabay

भारत विविधताओं का देश है यहाँ हर पर्व के पीछे एक कथा, एक मान्यता और एक भाव छिपा होता है। लेकिन यही विविधता कई बार ऐसी परंपराएँ भी जन्म देती है, जहाँ दीवाली को मनाना अपशकुन माना जाता है। कुछ स्थानों पर यह निषेध पूरी तरह धार्मिक या पौराणिक घटनाओं (Religious or Mythological Events) से जुड़ा है। उदाहरण के तौर पर, कर्नाटक के मण्ड्य जिले के मेलकोटे क्षेत्र में रहने वाले मण्ड्य Iyengar समुदाय के लोग नरक चतुर्दशी के दिन दीवाली नहीं मनाते। उनके अनुसार, 18वीं सदी में इसी दिन उनके सैकड़ों पूर्वजों की हत्या हुई थी। तब से यह दिन उनके लिए शोक और व्रत का प्रतीक बन गया। इसी तरह, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाक़ों में ऐसी मान्यता है कि दीवाली के दिन कभी किसी स्थानीय देवता की मृत्यु या युद्ध हुआ था। इसलिए वहाँ लोग उस दिन को ‘शांति दिवस’ या ‘प्रायश्चित दिवस’ के रूप में बिताते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में दीवाली सिर्फ़ एक त्योहार नहीं, बल्कि स्थानीय आस्था, इतिहास और सांस्कृतिक स्मृति का दर्पण भी है जहाँ हर रोशनी के पीछे एक कहानी छिपी है।

1.भारत का समू गाँव, हिमाचल प्रदेश

हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर ज़िले में स्थित समू (Sammoo) गाँव सदियों से दीवाली नहीं मनाता। इस गाँव की परंपरा पुराने समय में हुए एक दुखद घटना और उसके बाद लगे श्राप पर आधारित है। कहानी कुछ इस तरह है: बहुत साल पहले एक महिला दीवाली मनाने के लिए अपने मायके गई थी, लेकिन वहाँ उसे सुचना मिली कि उसका पति (राजा की सेना में सैनिक) मर चुका है। वह गर्भवती थी और यह खबर सुनते ही उसने सती कर ली। अपने अंतिम सांसों में उसने गाँव वालों को श्राप दिया कि वे कभी दीवाली न मनाएँ। उसके बाद से गाँव में कोई घर दीप नहीं जलाता, पटाखे नहीं फोड़ता, कोई ख़ास पकवान नहीं बनाता। यदि कोई गलती से दीवाली मनाने की कोशिश करता है, तो माना जाता है कि कोई आपदा आती है आग लगने जैसी घटना, नुकसान आदि का सामना करना पड़ता है। वहीं कुछ गाँव के बुजुर्गों का कहना है कि चाहे गाँव से बाहर जाएँ, पर श्राप उनकी पीढ़ियों पर असर करता है। लोग हवन-यज्ञ कर चुके हैं श्राप मुक्ति के लिए, लेकिन उनका दावा है कि श्राप अब तक नहीं टूटा है।

2.मम्पाट्टी गाँव, तमिलनाडु

तमिलनाडु में मम्पाट्टी (Mampatti) एक ऐसा गाँव है जहाँ लगभग छह दशकों से दीवाली नहीं मनाई जाती। यह परंपरा इस गाँव में इतनी मजबूत है कि लोग त्योहार के समय भी उत्सव नहीं करते। कारण मुख्यतः कृषि-आर्थिक हैं। गाँव इस समय वर्ष के उस मौसम में होता है जब कृषि पर खर्च बहुत अधिक होता है इस अवधि को “Samba season” कहा जाता है। यानी खेती, फसल की तैयारी, पानी-सिंचाई आदि कार्यों में निवेश होता है, और दीवाली मनाने पर खर्च बढ़ जायेगा। दूसरा कारण यह कि उन वर्षों में जब गाँव ने दीवाली मनाने की कोशिश की थी, उसी समय सूखा पड़ा था। लोग आस्था की वजह से त्योहार से जुड़े खर्च को नहीं उठा सकते थे, और उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि दीवाली के दिन सुख-समृद्धि की आशा के बावजूद विपत्ति आती है। इसलिए, मम्पाट्टी गाँव में दीवाली का उत्सव न करना सिर्फ धार्मिक या लोकश्रद्धा का मामला नहीं है, बल्कि आर्थिक व्यवहार और जीवनशैली से जुड़ा अनुभव है, जहाँ लोग त्योहार के खर्च और प्राकृतिक परिस्थितियों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहते हैं।

3.पूर्वोत्तर में भी नहीं जलते दिए

पूर्वोत्तर राज्यों (जैसे नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर) और कुछ आदिवासी इलाक़ों में दीवाली का स्थानिक या सांस्कृतिक अस्तित्व बहुत सीमित है क्योंकि वहाँ की प्रमुख जनसांख्यिकीय धार्मिक/सांस्कृतिक परंपराएँ अलग हैं (ईसाईकरण और स्थानीय फसल-आधारित उत्सव जैसे Hornbill आदि)। इन जगहों पर दीवाली न मनाने का कारण मज़हबी-सांस्कृतिक प्राथमिकताएँ हैं। लोग अपने पर्वों-त्योहारों, स्थानीय अनुष्ठानों और फसल-तिथियों को प्राथमिकता देते हैं। इसलिए ‘दीवाली नहीं मनाना’ यहाँ उपेक्षा नहीं बल्कि अलग सांस्कृतिक पहचान का संकेत है। मीडिया और सांस्कृतिक शोध में इसे अक्सर भारत की विविधता के हिस्से के रूप में समझाया जाता है।

4.कर्नाटक का मैल्कोटे गांव

कर्नाटक के मेलकोटे-क्षेत्र की कुछ ब्राह्मण/अर्ह समुदायों (Mandyam Iyengars) के बीच दीवाली (नरक चतुर्दशी/दीपावली) को हमेशा खुशी का दिन नहीं माना गया। इतिहास बताता है कि 18वीं-सदी में तैश-भरा हमला/कठिन घड़ी आई थी उस घटना में समुदाय को भारी नुकसान झेलना पड़ा और तब से वे उस दिन को स्मृति-दिवस/व्रत-दिवस के रूप में देखते हैं। इस कारण उनके धार्मिक व्यवहार में वो दिन उत्सव नहीं बल्कि मौन, व्रत और स्मरण का दिन बन गया। यह उदाहरण दर्शाता है कि कैसे ऐतिहासिक घटनाएँ लोक-परंपराओं को हद तक आकार देती हैं।

5.Kazhuperumpakkam / Vanur के पास के गाँव भी नहीं मानते दिवाली

विलुपुरम के पास के कुछ गाँवों (जैसे Kazhuperumpakkam) में सैंकड़ों चमगादड़/पंछी बरगद के पेड़ पर रहते आए हैं। यह पेड़ गाँव के कुलदेवता के साथ जुड़ा हुआ माना जाता है। सदियों पुरानी परंपरा के कारण यहाँ लोग पटाखे नहीं फोड़ते; कुछ गाँवों ने ‘Noiseless Diwali’ की परंपरा शताब्दियों से निभाई है ताकि पंछियों और पेड़ का संरक्षण हो सके। स्थानीय साहित्य-रिपोर्टिंग में यह प्रथा सामाजिक-आध्यात्मिक और पारिस्थितिक दोनों वजहों से दायरे में लाई जाती है, यानी श्रद्धा और तर्क दोनों। इससे प्रतीत होता है कि त्योहार बदलते पर्यावरणीय चेतना के अनुसार भी रूप ले रहे हैं।

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दीवाली को अक्सर हम सिर्फ़ दीयों, मिठाइयों और खुशियों का त्योहार मानते हैं, लेकिन भारत की कुछ जगहों की कहानियाँ बताती हैं कि यह पर्व सिर्फ़ उत्सव नहीं, बल्कि स्मृति और भावना का प्रतीक भी है। जहाँ एक ओर देश का अधिकांश हिस्सा दीयों से घर जगमगाता है, वहीं कुछ गाँव और समुदाय इस दिन मौन रखकर अपने इतिहास, दर्द और परंपरा को याद करते हैं। यही भारत की विविधता और गहराई है जहाँ हर त्योहार का अर्थ हर जगह अलग होता है। दीवाली का असली संदेश शायद यही है। अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना, लेकिन उस अंधकार को पहचानना और स्वीकारना भी उतना ही ज़रूरी है। यही संतुलन भारत की आत्मा को जीवंत रखता है और इसे दुनिया का सबसे भावनात्मक रूप से समृद्ध देश बनाता है। [Rh/SP]

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