Shravan Month 2022: श्रावण मास के महीने में हम पढ़ रहे हैं द्वादश (12) ज्योतिर्लिंगों के बारे में। पिछली कड़ियों में हमने क्रमशः सोमनाथ, मल्लिकार्जुन और महाकालेश्वर। आज हम जानेंगे चौथे ज्योतिर्लिंग श्री ओंकारेश्वर-श्री ममलेश्वर (Shri Omkareshwar-Shri Mamleshwar) के बारे में।
मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित यह ज्योतिर्लिंग एक टापू पर स्थित है। दरअसल इस स्थान पर नर्मदा नदी कि धाराओं की दो हिस्सों में विभक्ति हो जाती है, जिसके कारण इन दोनों के बीच एक टापू का निर्माण हो गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी के नाम से जाना जाता है। अगर भौगोलिक चित्रण देखें तो पाएंगे कि इस नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है।
ऐसा कहा जाता है कि दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा है, और इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग (Shri Omkareshwar Jyotirlinga) का मंदिर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न किया था, अतः तभी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा।
इस ज्योतिर्लिंग के मंदिर में दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। यहाँ अंदर निरंतर गूढ़ अंधेरा छाया रहता है, जिसके कारण यहाँ निरंतर प्रकाश जलता रहता है। बताया जाता है कि ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित लिंग नहीं है, बल्कि यह स्वयं प्रकृति द्वारा निर्मित है। लिंग के चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। लोगों द्वारा संपूर्ण मान्धाता-पर्वत को ही भगवान शिव के रूप में पूजा जाता है। अतः इसी कारण से लोग इसे शिवपुरी भी कहते हैं, और भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं।
कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहां बहुत भारी मेला लगता है, जहां लोग भगवान शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं। यहाँ भगवान शिव की रात्रि आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ आयोजित होता है।
वैसे तो ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं, जिनमें से एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है। ये दोनों पृथक होते हुए भी इनकी गणना एक ही में की जाती है।
पुराणों के अनुसार लिंग के दो स्वरूप होने की कथा कुछ इस प्रकार बताई गई है। कहा जाता है कि एक बार विन्ध्यपर्वत ने पार्थिव शिवलिंग का निर्माण कर उपासना-अर्चना के साथ ही भगवान् शिव की छः मास तक कठिन तपस्या की। भूतभावन शंकरजी प्रसन्न होकर वहाँ प्रकट हुए और विन्ध्य को उनके मनोवांछित वर प्रदान किए। इस घटना से आकर्षित होकर वहां बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। सभी की प्रार्थना पर शिवजी ने अपने ओंकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। इन दो भागों में से एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिंगों का स्थान अलग-अलग होते हुए भी उनकी सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।
शिव महापुराण (Shiva Mahapurana) में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा को विस्तार में बताते हुए कहा गया है कि श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर का दर्शन अत्यंत पुण्यदायी है। इस महिमा वृत्तान्त में नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। पुराण की वाणी है कि लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के उत्तम फलों की प्राप्ति चाहने वालों को इस क्षेत्र की यात्रा करते हुए भगवान ओंकारेश्वर की कृपा अवश्य प्राप्त करनी चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के लिए अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन सहज हो जाते हैं, और ऐसे लोग अंत समय में लोकेश्वर महादेव भगवान शिव के परमधाम को प्राप्त करते हैं।