
भारत में एक ऐतिहासिक क्षण तब सामने आया जब 127 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भगवान बुद्ध (Lord Buddha) के पवित्र पिपरहवा अवशेष (Piprahwa Relics) एक बार फिर भारत लौट आए। ये अवशेष केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत की एक अमूल्य धरोहर भी हैं। इनकी वापसी न केवल भारतीयों के लिए गौरव का विषय है, बल्कि पूरी दुनिया के बौद्ध अनुयायियों के लिए भी एक भावनात्मक पल है।
पिपरहवा अवशेषों की कहानी की शुरुआत होती है 1898 में, जब उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर ज़िले के पिपरहवा गाँव में ब्रिटिश एस्टेट एजेंट विलियम क्लैक्सटन पेप्पे ने खुदाई के दौरान बौद्ध स्तूप के नीचे एक अस्थि कलश और 334 दुर्लभ रत्न खोजे। इन रत्नों में मूंगा, नीलम, रॉक क्रिस्टल, गार्नेट, शंख, मोती और सोने से बने मनके और पेंडेंट शामिल थे। ये सभी वस्तुएँ 240 से 200 ईसा पूर्व के बीच स्तूप में रखी गई थीं। सबसे खास बात यह थी कि इन अवशेषों के साथ एक शिलालेख भी मिला, जिसमें लिखा था कि ये अवशेष गौतम बुद्ध के शाक्य वंश को सौंपे गए थे। यह खोज भारत की सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक उपलब्धियों में से एक मानी जाती है, क्योंकि यह सीधे तौर पर बुद्ध से जुड़ी वास्तविक अस्थियों को प्रमाणित करती है।
बुद्ध की अस्थियाँ और बौद्ध देशों को भेंट
समय के साथ इन अवशेषों को विभाजित कर भारत सरकार और थाईलैंड के बौद्ध राजा राम पंचम को सौंपा गया। पाँच कलश, एक पत्थर का संदूक और कई अन्य वस्तुएँ कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में भेजी गईं। 1971 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने इस स्थल पर दोबारा खुदाई की और पहले से भी अधिक गहराई में बुद्ध (Lord Buddha) की अस्थियों से युक्त नए कलश प्राप्त किए। इन अवशेषों को अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। भारत ने समय-समय पर इन पवित्र अवशेषों को श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों को उपहार में दिया है ताकि बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच आध्यात्मिक एकता बनी रहे।
मई 2025 में एक चौंकाने वाली खबर सामने आई कि पिपरहवा रत्नों को हांगकांग स्थित प्रसिद्ध नीलामी घर सोथबी द्वारा बिक्री के लिए सूचीबद्ध किया गया है। यह सुनते ही भारत सरकार हरकत में आई। भारत ने इस नीलामी को रोकने के लिए राजनयिक हस्तक्षेप, कानूनी चेतावनियाँ और वित्तीय साधनों का उपयोग किया। भारत ने स्पष्ट किया कि ये रत्न महज़ कलाकृतियाँ नहीं, बल्कि एक महान धार्मिक नेता की पवित्र धरोहर हैं।
भारत सरकार के प्रयासों के साथ, गोदरेज इंडस्ट्रीज समूह ने आगे आकर इन अवशेषों को अधिग्रहित करने में अहम भूमिका निभाई। समूह के कार्यकारी उपाध्यक्ष पिरोजशा गोदरेज ने कहा, "ये अवशेष केवल कलाकृतियाँ नहीं हैं, ये शांति, करुणा और मानवता की साझी विरासत के शाश्वत प्रतीक हैं।" संस्कृति मंत्रालय ने इस पूरे प्रयास को जन-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership) का एक अनुकरणीय उदाहरण बताया।
30 जुलाई, 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन अवशेषों की भारत वापसी की घोषणा करते हुए इसे "एक गौरवशाली और आनंददायक क्षण" बताया। उन्होंने X (ट्विटर) पर लिखा है, "हर भारतीय को इस बात पर गर्व होगा कि भगवान बुद्ध के पवित्र पिपरहवा अवशेष 127 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद स्वदेश लौटे हैं। ये पवित्र अवशेष (Piprahwa Relics) भगवान बुद्ध और उनकी महान शिक्षाओं के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध को दर्शाते हैं।"
विलियम पेप्पे के परपोते क्रिस पेप्पे ने बताया कि उनका परिवार कई वर्षों से इन अवशेषों को सही हाथों में सौंपना चाहता था, लेकिन उन्हें कानूनी और प्रशासनिक अड़चनों का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि, “नीलामी ही इन अवशेषों को बौद्ध (Lord Buddha) अनुयायियों तक पहुँचाने का सबसे पारदर्शी तरीका लगा।” हालाँकि, भारत सरकार ने इस प्रक्रिया को चुनौती दी और इन्हें भारत वापस लाने में सफलता प्राप्त की।
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आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व
बौद्ध धर्म में ये अवशेष अत्यंत पवित्र माने जाते हैं। ये न केवल बुद्ध (Lord Buddha) के जीवन और उनके निर्वाण की स्मृति हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि भारत ही वह भूमि है जहाँ बौद्ध धर्म का जन्म हुआ और जहाँ उसकी जड़ें आज भी जीवित हैं। इन अवशेषों को एक विशेष समारोह में जनता के दर्शन के लिए प्रदर्शित किया जाएगा ताकि देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालु और पर्यटक इन दुर्लभ धरोहरों को देख सकें और अपना सम्मान प्रकट कर सकें।
निष्कर्ष
127 साल बाद बुद्ध के पवित्र पिपरहवा अवशेषों (Piprahwa Relics) की भारत वापसी केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक पुनर्जन्म है। यह घटना बताती है कि भारत अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को लेकर सजग है और अपनी ऐतिहासिक विरासत को सहेजने के लिए वैश्विक मंच पर आवाज़ उठाने से भी पीछे नहीं हटता। यह क्षण आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा है कि धरोहर केवल संग्रहालय की वस्तुएँ नहीं होतीं, बल्कि वह हमारी आत्मा और पहचान का हिस्सा होती हैं। भारत की यह पहल न केवल सराहनीय है, बल्कि विश्व के लिए भी एक उदाहरण भी है कि कैसे अतीत को सम्मान देकर वर्तमान को समृद्ध बनाया जा सकता है। [Rh/PS]