

आधुनिक कैनो और कयाक की अवधारणा उत्तरी अमेरिका के आदिवासी समुदायों की नौकाओं से प्रेरित थी, जिन्हें यूरोपीय खोजकर्ताओं ने अपनाया।
कैनो स्प्रिंट (Canoe Sprint) की खोज का श्रेय जॉन मैकग्रेगर को जाता है, जिन्होंने साल 1860 के करीब पारंपरिक मछली पकड़ने वाली नावों को खेल में इस्तेमाल होने वाली नावों में बदला। इसके बाद उन्होंने 1866 में 'रॉयल कैनो क्लब' की स्थापना की।
इसके बाद मैकग्रेगर ने पहली मान्यता प्राप्त प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसकी वजह से यूरोप और अमेरिका में यह खेल लोकप्रिय हुआ।
'कैनो स्प्रिंट' में इस्तेमाल होने वाली नाव लंबी, संकरी और काफी हल्की होती है। इस खेल में 200, 500, 1,000 और 5,000 मीटर की दूरी पर वाली प्रतियोगिताएं होती हैं, जिसमें घुटनों के बल बैठकर सिंगल ब्लेड पैडल चलाने वाले को 'कैनो', जबकि बैठकर दो डबल-ब्लेडेड पैडल चलाने वाले को 'कयाक' कहा जाता है।
इस खेल में 8 इंडिविजुअल एथलीट (Athlete) या नाविक टीम रेस के लिए लाइन-अप होती हैं, जिन्हें अपनी ही लेन के अंदर रहना होता है, जिनका मकसद सबसे पहले फिनिश लाइन को पार करना होता है।
इस खेल को 1924 पेरिस ओलंपिक में प्रदर्शनी खेल के रूप में शामिल किया गया। इसी साल अंतरराष्ट्रीय कैनो फेडरेशन (International Canoe Federation) (आईसीएफ) की स्थापना हुई, जिससे खेल के नियम और प्रतियोगिताएं मानकीकृत हुईं।
इसके बाद 1936 बर्लिन ओलंपिक में यह पूर्ण रूप से ओलंपिक डिसिप्लीन बना। 1948 लंदन ओलंपिक में पहली बार इसमें महिलाओं की स्पर्धा हुई। समय के साथ नावों के डिजाइन, तकनीक और प्रशिक्षण पद्धतियों में बदलाव आए, जिससे यह खेल और अधिक तेज और रोमांचक बना।
भारत में कैनो स्प्रिंट उभरता हुआ खेल है। एशियाई स्तर पर भारतीय खिलाड़ियों ने पदक के करीब प्रदर्शन किए हैं। बुनियादी ढांचा, अंतरराष्ट्रीय अनुभव और बेहतर प्रशिक्षण के साथ भारत इस खेल में ओलंपिक मेडल अपने नाम कर सकता है। इसमें लॉन्ग-टर्म रोडमैप की जरूरत होगी। इसके साथ ही नेशनल लीग और जूनियर सर्किट को मजबूत करना होगा।
[AK]