
हमिदा बानो (Hamida Bano) भारत की पहली पेशेवर महिला (Woman) पहलवान (Wrestler) थीं, जिन्होंने 1940 और 50 के दशक में देशभर में नाम कमाया। शोहरत और लोकप्रियता के बावजूद, उन्हें अपने फैसलों के लिए भारी विरोध का सामना करना पड़ा। आज भी उनकी विरासत लगभग भुला दी गई है, जबकि वो अपने दौर की खेल जगत की सुपरस्टार थीं।
पहलवानी की शुरुआत
हमिदा बानो का जन्म 1900 के शुरुआती दशक में उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले में हुआ था। उनका परिवार पहलवानी से जुड़ा हुआ था, लेकिन परिवार ने कभी उनके इस सपने को समर्थन नहीं दिया। अपने जुनून को पूरा करने के लिए उन्होंने घर छोड़ दिया और अलीगढ़ पहुंच गई। यहाँ उन्होंने स्थानीय पहलवान सलाम पहलवान से प्रशिक्षण लिया और धीरे-धीरे अखाड़ों में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी।
अलीगढ़ में ही उन्हें "अमेज़न ऑफ अलीगढ़" का ख़िताब मिला। उत्तर प्रदेश और पंजाब में घूम-घूमकर उन्होंने कई मुकाबले लड़े और हर जगह दर्शकों को दीवाना बना दिया। अख़बारों में उनके कौशल और दावों की ख़ूब चर्चा होती थी। कहा जाता है कि उनकी लंबाई लगभग 5 फीट 3 इंच और वज़न 108 किलो था। उनका खानपान भी हैरान कर देने वाला था वो रोज़ाना 2.8 लीटर सूप, 5.6 लीटर दूध, 1.8 लीटर जूस, एक मुर्गा, लगभग एक किलो मटन और बादाम, आधा किलो मक्खन, 6 अंडे, दो बड़े लोफ ब्रेड और दो प्लेट बिरयानी खाती थीं।
1944 में मुंबई में हमीदा बानो (Hamida Bano) का एक बड़ा मुक़ाबला गूंगा पहलवान से तय हुआ। बॉम्बे क्रॉनिकल के मुताबिक़, यह लड़ाई देखने के लिए 20,000 से ज़्यादा दर्शक पहुँचे थे। लेकिन आख़िरी समय में गूंगा पहलवान (Wrestler) ने अतिरिक्त पैसे और समय की मांग रखी, जिसके चलते मुक़ाबला रद्द कर दिया गया। इससे नाराज़ होकर दर्शकों ने स्टेडियम में तोड़फोड़ मचा दी।
1954 में उन्होंने पूरे देश के पहलवानों को खुली चुनौती दी "जो मुझसे कुश्ती जीत लेगा मैं उससे शादी कर लुंगी।" लेकिन कोई भी उन्हें हरा नहीं पाया। उसी साल उन्होंने देश के तीन नामी पहलवानों से मुक़ाबला किया और पहले दो को आसानी से हरा दिया। तीसरी लड़ाई के लिए वो बड़ौदा पहुँचीं, जहाँ उनका मुक़ाबला छोटे गामा पहलवान से होना था। पूरे शहर में उनके पोस्टर लगे हुए थे और लोग बेताबी से इस लड़ाई का इंतज़ार कर रहे थे। लेकिन छोटे गामा ने यह कहते हुए मुक़ाबला करने से इनकार कर दिया कि वो किसी औरत (Woman) से नहीं लड़ेंगे। उनकी जगह बाबा पहलवान ने उनसे मुक़ाबला किया, जिसे हमीदा बानो ने सिर्फ़ 1 मिनट 34 सेकंड में हरा दिया।
विरोध और आरोप
अक्सर उनके साथ ऐसा होता था कि उनके प्रतिद्वंदी ज्यादातर लड़ाई से पीछे हट जाते थे, शायद उनकी ताक़त और प्रतिष्ठा से डरकर। कई बार दर्शकों ने उन्हें पुरुष पहलवानों को हराने पर हूटिंग और पत्थरबाज़ी तक झेली। कुछ ने उन पर मैच फिक्सिंग के आरोप भी लगाए गए। जब उन्होंने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई से शिकायत की तो उन्हें यही जवाब मिला कि उनके मैचों पर रोक उनके लिंग की वजह से नहीं बल्कि मैच फिक्सिंग की शिकायतों के कारण लगी है।
एक मुस्लिम महिला (Woman) होकर उस दौर में पहलवानी (Wrestler) करना आसान नहीं था। समाज में उन्हें हर कदम पर ताने, मज़ाक और अपमान झेलना पड़ा। मशहूर उर्दू लेखिका क़ुर्रतुलऐन हैदर ने अपनी किताब 'दालान वाला' में लिखा कि उनकी घरेलू मददगार फकीरा ने एक बार मुंबई में हमीदा बानो का मुक़ाबला देखा और लौटकर कहा कि "उन्हें कोई नहीं हरा पाया, शेरनी हैं वो।"
1954 में बड़ौदा की जीत के बाद उन्होंने मुंबई में रूसी मुक्केबाज़ वीरा चिस्टिलिन को भी हराया, जिसे "फीमेल बियर" कहा जाता था। इसके बाद उन्होंने ऐलान किया कि वो यूरोप जाकर विदेशी पहलवानों से मुक़ाबला करेंगी। लेकिन जल्द ही वो गुमनाम हो गईं।
बानो का निजी जीवन और अंत
बानो (Hamida Bano) का नाम सलाम पहलवान से जुड़ा रहा। उनके पोते फ़िरोज़ शेख़ का कहना है कि बानो और सलाम साथ रहते थे, लेकिन शादीशुदा नहीं थे। वहीं सलाम की बेटी का दावा था कि दोनों ने शादी की थी। फ़िरोज़ के अनुसार, जब बानो ने यूरोप जाने का ऐलान किया तो सलाम पहलवान को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने उन्हें डंडों से इतना पीटा कि उनके हाथ और पैर टूट गए। सालों तक वो लाठी के सहारे ही चलती थीं।
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आख़िरकार, हमीदा बानो कल्याण में अपने पोते के साथ रहने लगीं। उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी साल अपना मकान किराये पर देकर, उसके बाद दूध और घर का बना नाश्ता बेचकर उन्होंने अपना गुजरा किया। 1986 में उनका निधन हो गया। उनके पोते कहते हैं कि उनकी जिंदगी के "आख़िरी दिन उनके लिए बहुत मुश्किल थे।"
हमीदा बानो की कहानी सिर्फ़ एक महिला (Woman) पहलवान (Wrestler) की नहीं, बल्कि उस दौर की एक बागी और साहसी औरत की है, जिसने समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी और अखाड़ों में पुरुष वर्चस्व को तोड़ा। लेकिन अफ़सोस, आज उनकी गाथा धूल में दब गई है। [Rh/PS]