![एक ऐसी चित्रकला जिसकी शुरुआत को लेकर पिछले 800 सालों से बंगाल और उड़ीसा के बीच एक जंग छिड़ी हुई है। [Pixabay]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-07-05%2Fp8flmadw%2Fistockphoto-1090018510-612x612.jpg?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
एक ऐसी चित्रकला जिसकी शुरुआत को लेकर पिछले 800 सालों से बंगाल और उड़ीसा के बीच एक जंग छिड़ी हुई है। क्योंकि दोनों ही राज्य इसे अपनी धरोहर मानते हैं। बंगाल के लोगों का कहना है कि यह पेंटिंग बंगाल से शुरू हुई तो वही उड़ीसा के लोगों का मानना है कि इस पेंटिंग की शुरुआत उड़ीसा से हुई है। हम बात कर रहे हैं पट्टचित्र की।
यह एक ऐसी चित्रकला है जिसे कपड़े पर उकेरा जाता है। यह चित्रकला अपने आप में काफी अद्भुत है क्योंकि यह सिर्फ चित्रकला नहीं है बल्कि देवी देवताओं के जीवन की कहानी है जिसे गाकर और कपड़े पर हर छोटी से छोटी कहानी को रंगों से भरकर पेश किया जाता है। अब चुकी बंगाल और उड़ीसा दोनों में इस चित्रकला को लेकर बहस होती रहती है तो इसलिए हम इस चित्रकला को दोनों ही राज्यों की धरोहर मानते हैं। आपको बता दें कि यह चित्रकला इतनी अद्भुत और खूबसूरत है कि इसे GI Tag भी मिल चुका है। तो आईए जानते हैं और समझते हैं कि आखिर इसकी शुरुआत कहां से हुई और इस चित्रकला में क्या खास है?
क्या है पट्टचित्र?
पट्ट' का अर्थ होता है कपड़ा और 'चित्र' यानी पेंटिंग। पट्टचित्र एक पारंपरिक चित्रकला है जिसमें कलाकार कपड़े, सूखी हथेली की पत्तियों या दीवारों पर पौराणिक कथाओं, देवी-देवताओं और लोककथाओं को चित्रित करते हैं। कहानी तो किताबों में भी मिल जाते हैं खासकर देवी देवताओं की कहानी वेद पुराण में मिल जाएंगे लेकिन देवी देवताओं की कहानियों को एक चित्र के माध्यम से दर्शाना यह काफी अद्भुत कला है। इतना ही नहीं बंगाल की महिलाएं तो इन चित्रों में चित्रित कहानियों को गाकर भी सुनाती हैं। यह कला मुख्यतः ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में पाई जाती है, लेकिन ओडिशा के पुरी, रघुराजपुर और पिपली जैसे क्षेत्रों में यह परंपरा आज भी पूरे गौरव से जीवित है।
कहां से हुई इसकी शुरुआत?
पट्टाचित्र पेंटिंग्स की शुरुआत को लेकर काफी मतभेद है। कुछ लोगों का मानना है की पट्टचित्र कला की उत्पत्ति 10वीं या 11वीं शताब्दी में बंगाल से हुई थी। पश्चिम बंगाल में पुरुलिया, बीरभूम, बांकुरा और पश्चिम मेदनीपुर जिले इस आकर्षक कला रूप के मुख्य केंद्र हैं। तो वहीं कुछ लोग इसकी शुरुआत उड़ीसा से मानते हैं। लोगों की माने तो पट्टचित्र कला भारत की सबसे प्राचीन हस्तशिल्प कलाओं में से एक है , जिसका इतिहास 12वीं शताब्दी का माना जाता है, जो विशेष रूप से ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से जुड़ा हुआ है।
पट्टाचित्र की उत्पति को लेकर कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति जगन्नाथ मंदिर के अनुष्ठानों से निकटता से जुड़ी हुई है। जब मंदिर के देवताओं को उनके वार्षिक अनुष्ठान स्नान (स्नान यात्रा) के लिए हटा दिया जाता था, तो उनकी जगह 'अनासर पट्टी' नामक चित्रित चित्रण लगाए जाते थे । ये चित्रित कैनवस(Canvas) अंततः विकसित होकर उस रूप में सामने आए जिसे हम अब पट्टचित्र कहते हैं। चित्रकला की यह शैली ओडिशा की जीवंत विरासत है, जो इस क्षेत्र की समृद्ध हस्तशिल्प परंपरा का प्रमाण है । यह भारत के लोक कला आंदोलन में एक प्रमुख खिलाड़ी है , जो मधुबनी या वारली जैसे विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त रूपों के मुकाबले अपनी जगह बनाए हुए है।
गीत गाकर जब सुनाई जाती है कहानियां
पट्टाचित्र पेंटिंग्स को करने वाले लोगों को पटुआ कहा जाता है। पटुआ कलाकारों का एक समुदाय है जो कथावाचक हैं और जिनके पास कहानी कहने की एक अनूठी कला है। वे अपनी कला को सुंदर पेंटिंग और गीत गाकर प्रस्तुत करतें हैं। चित्रकार कहानियां सुनाते समय धीरे-धीरे चित्रों को खोलता है जिससे पूरा प्रदर्शन अधिक आकर्षक हो जाता है। कई पारखी, कलाकार और शोधकर्ता पटचित्र कला से मोहित हुए हैं और इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चित्रकला की एक प्रशंसित शैली माना गया है। कुछ लोग कहानी कहने के इस सदियों पुराने तरीके की तुलना आधुनिक समय की कॉमिक स्ट्रिप्स से करते हैं। कहानी सुनाने के दौरान गाए जाने वाले गीतों को पाटेर गान कहा जाता है ।
आपको बता दें कि पटुआ या पटचित्र कलाकार एक गांव से दूसरे गांव तक यात्रा करते हैं और अपने पट्टे दिखाते हैं और बहुत ही स्पष्ट तरीके से गीतों की मदद से दर्शकों को इसकी कहानियां सुनाते हैं ताकि उनका संदेश ग्रामीण समाज में व्यापक रूप से पहुंच सके। पटचित्र कलाकारों द्वारा अतीत की धार्मिक कहानियां जैसे रामायण, महाभारत, मंगलकाव्य, कृष्ण लीला, बेहुला मनशामंगल या पौराणिक तथा वीरता और बलिदान की कहानियां सुनाई जाती हैं।
रघुराजपुर में घर घर मिलते हैं चित्रकार
पुरी जिले का रघुराजपुर गांव पट्टचित्र कला का केंद्र माना जाता है। इस गांव के लगभग हर घर में कोई न कोई पट्टचित्र कलाकार है। यहां की गलियां, घरों की दीवारें, दरवाज़े – सब कुछ इस कला से सजे होते हैं। यहां हर साल एक उत्सव भी होता है – 'बसंत उत्सव', जिसमें देश-विदेश से पर्यटक आते हैं और इस कला का आनंद लेते हैं।
जब पट्टचित्र को मिला GI Tag
सबसे पहले आपको बता दें कि GI (Geographical Indication) टैग किसी खास भौगोलिक क्षेत्र की विशिष्टता और गुणवत्ता को मान्यता देता है। बंगाल और उड़ीसा की यह कला सदियों पुरानी परंपरा है, जो ओडिशा के खास इलाकों जैसे रघुराजपुर, पुरी, और गंजाम में आज भी प्रचलित है। इसमें इस्तेमाल होने वाले रंग, ब्रश और तकनीक पारंपरिक और पूरी तरह से प्राकृतिक होते हैं। इसके डिज़ाइन और स्टाइल की विशेष पहचान है, जो इसे दूसरी कलाओं से अलग बनाती है। यह चित्रकला एक सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, जो धार्मिक और सामाजिक भावनाओं से जुड़ा हुआ है। जिसके कारण भारत सरकार द्वारा इसे GI TAG दिया गया है।
बंगाल और उड़ीसा की इस कला को मिल चुके है कई पुरस्कार
बंगाल और उड़ीसा की अद्भुत कला को समय-समय पर कई प्रकार के पुरस्कारों से नवाजा गया है। कई पट्टाचित्र कलाकारों को राष्ट्रीय शिल्प पुरस्कार के द्वारा नवाजा गया है। इसके अलावा ओडिशा सरकार द्वारा स्थानीय कलाकारों को उनकी प्रतिभा और योगदान के लिए State Handicraft Awards से सम्मानित किया गया है। जयदेव महाराणा और गंगाधर महाराणा जैसे कलाकारों को पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई कलाकारों को यूनेस्को के द्वारा सेल ऑफ़ एक्सीलेंस से भी नवाजा गया है।
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पट्टाचित्र केवल एक कला नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, परंपरा और भक्ति का प्रतीक है। GI टैग और कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों ने इस कला को पहचान दी है और इसके कलाकारों को भी सम्मानित किया है। यह न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में हस्तकला का गर्व बन चुका है। [Rh/SP]