

19वीं सदी के मध्य में, एक छोटी-सी भारतीय रियासत की राजकुमारी ने समुद्र पार करके इंग्लैंड की धरती पर कदम रखा था। वह वहां मेहमान बनकर नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की राजनीति की शिकार बनकर पहुंची थी। उसका नाम था, राजकुमारी गौरम्मा, जो बाद में बन गई प्रिंसेस विक्टोरिया गौरम्मा (Gowramma)। यह कहानी है उस भारतीय युवती की, जिसने रानी विक्टोरिया की "दत्तक बेटी" बनने की कीमत अपनी संस्कृति, अपनी आस्था और अपनी पहचान से चुकाई है।
बनारस से लंदन तक: एक राजकुमारी की यात्रा
साल 1841 में बनारस में जन्मी गौरम्मा कोर्ग (Korga) जो कि (आज का कोडगु, कर्नाटक) के अंतिम राजा चिका वीरराजेन्द्र की इकलौती संतान थीं। 1834 में कूर्ग युद्ध के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके पिता को गद्दी से हटाकर निर्वासन में भेज दिया था। निर्वासन में रहते हुए भी, राजा का सपना था कि वह एक दिन अपना खोया राज्य वापस पा सके। और इसी कोशिश में उन्होंने अपनी बेटी को साथ लेकर 1852 में इंग्लैंड की यात्रा शुरू की। पिता और बेटी वह दोनों ब्रिटेन के पहले भारतीय शाही परिवार बने। राजा का उद्देश्य था कि रानी विक्टोरिया से मिलकर अपने राजकीय अधिकार और संपत्ति की मांग करें। लेकिन उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि यह यात्रा उनकी बेटी की किस्मत हमेशा के लिए बदल देगी।
रानी विक्टोरिया के दरबार में कैसे हुआ "भारतीय चमत्कार"
जब गौरम्मा (Gowramma) और उनके पिता लंदन पहुंचे, तो ब्रिटिश समाज में हलचल मच गई। वहां के अख़बारों ने लिखा "कौवों के बीच एक कबूतर', यानी एक विदेशी सुंदर राजकुमारी जो ब्रिटिश साम्राज्य की ताकत और शान का प्रतीक बन गई थी। रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) खुद इस भारतीय बालिका से बेहद प्रभावित हुईं। उन्होंने गौरम्मा को अपने संरक्षण में लेने की इच्छा जताई। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि राजा ने बेटी की शिक्षा और सुरक्षा के लिए यह मंज़ूरी दी, जबकि कई लोग मानते हैं कि यह ब्रिटिश साम्राज्य की एक "राजनैतिक चाल' थी, जहां एक भारतीय राजकुमारी को दिखावे के लिए ब्रिटिश संस्कृति में ढाला गया।
ईसाई धर्म में दीक्षा और पहचान का अंत
रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) ने जल्द ही तय किया कि गौरम्मा को ईसाई धर्म अपनाना चाहिए। इसके बाद लंदन में एक भव्य धार्मिक समारोह आयोजित किया गया, जहां कैंटरबरी के आर्कबिशप ने उसका बपतिस्मा यानी कि धर्मांतरण (Conversion) संस्कार किया। उसके बाद गौरम्मा का नया नाम रानी के नाम पर रखा गया "विक्टोरिया गौरम्मा"। अब वह कोर्ग की गौरम्मा (Gowramma) नहीं रही, बल्कि रानी विक्टोरिया की "दत्तक ईसाई राजकुमारी" बन गईं।
रानी (Queen Victoria) ने उनकी शिक्षा-दीक्षा की पूरी जिम्मेदारी ले ली। उन्होंने उसे एक अंग्रेज परिवार के पास भेजा दिया, जहां उन्हें ब्रिटिश समाज के तौर-तरीके, पोशाक, भाषा और शिष्टाचार सिखाए गए।उसके बाद वो कई बार रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) के साथ सार्वजनिक समारोहों में दिखती लगीं और समाज में 'ब्रिटिश दरबार की भारतीय राजकुमारी" के रूप में मशहूर हो गईं। लेकिन इस चमक-दमक के पीछे एक अकेली बच्ची छिपी थी, जो अपने वतन, अपनी भाषा और अपने पिता को हमेशा याद करती थी। रानी के आदेश पर गौरम्मा को अपने पिता से मिलने की इजाज़त नहीं थी, जबकि उनके पिता उसी शहर में रहते थे, कई बार गौरम्मा ने भागने की कोशिश भी की, लेकिन वह "सुनहरे पिंजरे" से कभी बाहर नहीं निकल पाईं।
प्यार, शादी और बर्बादी
जैसे-जैसे गौरम्मा बड़ी हुईं, रानी विक्टोरिया ने उनके लिए एक उपयुक्त वर तलाशना शुरू कर दिया। रानी चाहती थीं कि गौरम्मा की शादी महाराजा दलीप सिंह से हो, जो सिख साम्राज्य के आखिरी राजा थे और उन्हें भी ईसाई धर्म में परिवर्तित (Conversion) किया गया था। रानी को यह विवाह 'पूर्व और पश्चिम के मिलन' का प्रतीक लगता था। लेकिन दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं बना। इसके बाद इसी बीच, गौरम्मा को लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन कैंपबेल नामक एक ब्रिटिश अधिकारी से प्रेम हो गया जो की उनसे 30 साल बड़े थे। 1860 में उन्होंने उससे शादी कर ली, यह सोचकर कि अब उन्हें आज़ादी मिलेगी। पर यह शादी उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा दुख साबित हो गया। क्योंकि कैंपबेल जुए का आदी था जिसकी वजह से उन्होंने जल्द ही गौरम्मा (Gowramma) की संपत्ति उड़ा दी। 1861 में गौरम्मा ने एक बेटी एडिथ कैंपबेल को जन्म दिया, लेकिन तब तक उनका स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन दोनों बिगड़ चुके थे।
एक राजकुमारी की अंतिम सांस
साल 1864 में, मात्र 23 साल की उम्र में ही, गौरम्मा की टीबी होने की वजह से मृत्यु हो गई, आपको बता दें वह अपने वतन से हजारों मील दूर इंग्लैंड में ही दफ़न हो गई। वो भी न अपने नाम के साथ, न अपनी भाषा के साथ, न अपनी ही पहचान के साथ। उनकी बेटी एडिथ उस समय सिर्फ तीन साल की थी।
निष्कर्ष
गौरम्मा (Gowramma) की कहानी सिर्फ एक राजकुमारी की कहानी नहीं है, बल्कि उस युग की कहानी है जब ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत के गर्व, संस्कृति और आत्मा को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की थी। रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) के संरक्षण में आई यह एक भारतीय लड़की इस बात का प्रतीक बन कर रह गई कि "सभ्यता" के नाम पर किस तरह एक साम्राज्य ने किसी की पूरी पहचान ही मिटा दी। [Rh/PS]