![When did China's interference in Tibet begin? [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-09-02%2F685ws9qk%2Fassetstask01k45p2hp0e1prvqrjrpv0shyd1756832639img0.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
तिब्बत, जो हिमालय की ऊँचाइयों पर बसा एक शांत, आध्यात्मिक और रहस्यमय देश माना जाता था, सदियों तक अपनी अलग पहचान और संस्कृति के लिए जाना जाता रहा। बौद्ध धर्म (Baudh Dharma) का गढ़ होने के कारण इसे दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन तिब्बत की इस शांति पर सबसे पहले नज़र पड़ी उसके पड़ोसी देश चीन की। चीन ने लंबे समय से तिब्बत को केवल एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र ही नहीं, बल्कि एक रणनीतिक और भौगोलिक महत्व वाले क्षेत्र के रूप में देखा।
यही कारण था कि बीसवीं सदी की शुरुआत में, जब दुनिया औपनिवेशिक ताक़तों के खिंचाव में उलझी थी, चीन ने धीरे-धीरे तिब्बत की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। तिब्बत का विशाल भूभाग, उसकी प्राकृतिक संपदाएँ और भारत समेत कई देशों से जुड़ने वाले रास्ते, चीन की नज़र में इसे बेहद अहम बना रहे थे। हालांकि शुरू में चीन ने सीधा कदम नहीं उठाया, बल्कि कूटनीति और ऐतिहासिक दावों के सहारे अपने अधिकार की नींव रखने की कोशिश की। तो आईए जानते हैं कि चीन ने कब-कब और कैसे तिब्बत पर अपना नियंत्रण बनाने की कोशिश की है (How China Have Tried to Establish Their Control Over Tibet)।
जब चीन ने की तिब्बत पर राज करने की कोशिश
चीन के झूठे दावे
20वीं सदी की शुरुआत में चीन ने तिब्बत को अपनी ऐतिहासिक सीमा का हिस्सा बताकर (China has claimed Tibet as part of its Historical Territory) नियंत्रण की कोशिश की। 1910 में चीन ने अपनी सेना ल्हासा तक पहुँचा दी और तिब्बत के प्रशासन में हस्तक्षेप करने लगा। लेकिन यह दखल ज़्यादा दिन टिक नहीं पाया। 1911 की क्रांति (Revolution of 1911) में जब चिंग वंश का पतन हुआ, तो चीन की पकड़ ढीली हो गई और 1912 में तिब्बत ने खुद को आज़ाद घोषित कर दिया। उस समय तिब्बत ने चीन की सेना को बाहर कर दिया और लगभग चार दशकों तक स्वतंत्र रूप से काम करता रहा।
1914 की शिमला संधि और असफल दावे
ब्रिटिश भारत, चीन और तिब्बत के बीच 1914 में शिमला समझौते (Shimla Agreement in 1914) की कोशिश हुई। इसमें तिब्बत को एक स्वतंत्र इकाई माना गया, लेकिन चीन ने इस संधि को मानने से इनकार कर दिया। इसके बावजूद तिब्बत ने ब्रिटिश भारत और अन्य देशों से सीधे संबंध बनाए रखे। चीन इस समय केवल दावे करता रहा, लेकिन व्यावहारिक नियंत्रण स्थापित नहीं कर सका।
जब चीन ने किया तिब्बत पर हमला
चीन ने आखिरकार अक्टूबर 1950 में “शांतिपूर्ण मुक्ति” के नाम पर तिब्बत पर हमला किया। चीनी सेना ने तिब्बती सेना को हराया और 1951 में 17 सूत्रीय समझौते (17 Point Agreement) पर तिब्बत को हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया। इस समझौते के तहत तिब्बत को चीन का हिस्सा माना गया, लेकिन उसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता (Cultural and Religious Autonomy) का वादा किया गया। चीन इस बार सफल रहा और तिब्बत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।
1959 का विद्रोह और दलाई लामा का पलायन
1950 के बाद भी तिब्बत में असंतोष बना रहा। 1959 में ल्हासा में चीन के खिलाफ बड़ा विद्रोह हुआ, जिसमें हज़ारों तिब्बती मारे गए। दलाई लामा को मजबूर होकर भारत भागना पड़ा। इस विद्रोह के बाद चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया और किसी भी तरह की स्वायत्तता की गुंजाइश खत्म कर दी। चीन ने यहाँ पूर्ण सफलता हासिल की।
1965 में तिब्बत को “स्वायत्त क्षेत्र” घोषित करना
विद्रोह को दबाने के बाद चीन ने 1965 में तिब्बत को आधिकारिक तौर पर “तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र” (“Tibet Autonomous Region”) घोषित कर दिया। यह नाम तो स्वायत्तता का था, लेकिन असल में सारा प्रशासन, सेना और राजनीति चीन के हाथों में रही। चीन ने बुनियादी ढांचे का विकास तो किया, लेकिन तिब्बत की संस्कृति और धर्म पर कड़ा नियंत्रण भी लगाया। नतीजा यह हुआ कि चीन सफल रहा और आज तक नियंत्रण बनाए हुए है।
आखिर क्यों पड़ा है चीन तिब्बत के पीछे?
चीन तिब्बत पर शासन चलाना कई कारणों से चाहता है। सबसे बड़ा कारण है भौगोलिक स्थिति। तिब्बत एशिया के ऊँचे पहाड़ों पर बसा है और इसे "एशिया की छत" ("Roof of Asia") कहा जाता है। यहाँ से कई बड़ी नदियाँ निकलती हैं, जो चीन सहित एशिया के कई देशों को पानी उपलब्ध कराती हैं। अगर तिब्बत पर चीन का नियंत्रण रहता है, तो वह इन नदियों और जल संसाधनों पर भी नियंत्रण बनाए रख सकता है।
तिब्बत भारत और चीन के बीच एक रणनीतिक बफर ज़ोन है। चीन मानता है कि अगर तिब्बत उसके अधीन नहीं रहेगा, तो भारत जैसे पड़ोसी देशों का प्रभाव वहाँ बढ़ सकता है। इसीलिए वह इसे अपने कब्ज़े में रखना चाहता है। उसके अलावा तिब्बत में सोना, तांबा और कई अन्य खनिज प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं। चीन इन संसाधनों का दोहन करके अपनी अर्थव्यवस्था को और मज़बूत बनाना चाहता है। चीन तिब्बत को खोकर अपनी ताकत कमजोर नहीं दिखाना चाहता। उसकी कोशिश है कि दुनिया को दिखाया जाए कि वह हर हाल में अपनी “राष्ट्रीय एकता” बनाए रख सकता है।
क्या है तिब्बत की आज की स्थिति?
आज भी चीन तिब्बत को पूरी तरह से कंट्रोल करता है। 1950 में जब चीन की सेना ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया था, तब से लेकर आज तक उसने वहाँ अपना प्रशासन, सेना और कानून लागू कर रखा है। तिब्बत आधिकारिक रूप से चीन का "स्वायत्त क्षेत्र" (“Tibet Autonomous Region”) कहलाता है, लेकिन असलियत में वहाँ की जनता को आज़ादी से जीने या अपने धर्म और संस्कृति को पूरी तरह से निभाने की आज़ादी नहीं है।
चीन ने तिब्बत की पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था और दलाई लामा (Dalai Lama) की सत्ता को खत्म कर दिया। आज तिब्बत की सरकार और प्रशासन पूरी तरह बीजिंग से नियंत्रित होता है। धार्मिक गतिविधियों पर भी सख़्त निगरानी रखी जाती है। हालाँकि तिब्बत के लोग बार-बार स्वतंत्रता और अपनी संस्कृति बचाने की माँग करते हैं, लेकिन चीन किसी भी विरोध को दबा देता है। यानी, आज भी तिब्बत पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में है और उसकी आज़ादी का सपना अधूरा है।
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दलाई का चीन के प्रति खुली चुनौती
दलाई लामा (Dalai Lama) ने कई बार साफ किया है कि वे अपने बाद किसी उत्तराधिकारी को चुनने के पारंपरिक तरीके को बदल सकते हैं या हो सकता है कि वे अपने बाद कोई उत्तराधिकारी ही न चुनें। उन्होंने कहा है कि यदि उनका अगला उत्तराधिकारी चीन सरकार के निर्देशानुसार चुना जाता है, तो वे उसे मान्यता नहीं देंगे। दलाई लामा (Dalai Lama) का मानना है कि उनका उत्तराधिकारी केवल आध्यात्मिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर चुना जाना चाहिए, न कि किसी राजनीतिक दबाव में।
वे यह भी कहते रहे हैं कि तिब्बतियों की धार्मिक आज़ादी और संस्कृति की रक्षा सबसे जरूरी है। दूसरी ओर, चीन सरकार ने इस बयान पर कड़ा रुख अपनाया है। बीजिंग ने बार-बार कहा है कि दलाई लामा (Dalai Lama) के मरने के बाद उनका अगला उत्तराधिकारी केवल चीन की अनुमति से ही मान्य होगा। चीन के अनुसार, तिब्बत का धार्मिक नेतृत्व उनके नियंत्रण में होना चाहिए ताकि क्षेत्र में स्थिरता बनी रहे। उन्होंने दलाई लामा के समर्थकों पर भी आरोप लगाया है कि वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का उपयोग कर रहे हैं। इस तरह, दलाई लामा और चीन के बीच उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद न केवल धार्मिक, बल्कि राजनीतिक विवाद का रूप ले चुके हैं, जो तिब्बत की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा हुआ है।
क्या तिब्बत खुद को आज़ाद कर पाएगा?
तिब्बत का भविष्य चीन के चंगुल से बाहर निकल पाएगा या नहीं, यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। तिब्बतियों की सबसे बड़ी ताकत उनकी संस्कृति, धर्म और पहचान है, जिसे वे तमाम दबावों के बावजूद जिंदा रखे हुए हैं। दलाई लामा और निर्वासित तिब्बती सरकार लगातार विश्व समुदाय से समर्थन माँगते हैं, लेकिन बड़े देशों के अपने हित चीन से जुड़े होने के कारण खुलकर मदद नहीं कर पाते। हालाँकि तिब्बतियों की आज़ादी की चाह आज भी मज़बूत है। समय-समय पर विरोध प्रदर्शन, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज़ उठाना और सांस्कृतिक एकजुटता दिखाना यह बताता है कि तिब्बत ने हार नहीं मानी है। फिर भी, चीन की सैन्य और राजनीतिक ताकत को देखते हुए निकट भविष्य में तिब्बत का पूरी तरह आज़ाद होना मुश्किल लगता है। फिर भी उम्मीद की लौ जिंदा है कि एक दिन तिब्बत अपने लोगों की इच्छाओं के अनुसार जी सकेगा। [Rh/SP]