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पीसा की मीनार से भी ज्‍यादा झुका हुआ है  वाराणसी का रत्नेश्वर महादेव मंदिर, क्या है मन्दिर का इतिहास​

Lakshya Gupta

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी को वर्तमान में वाराणसी कहा जाता है। काशी में इस समय लगभग 1500 मंदिर हैं, जिनमें से अधिकांश इतिहास के विविध कालों से जुड़ी हुई हैं। इन्हीं मंदिरों में से एक ऐसा मंदिर है रत्नेश्वर महादेव। जो अपनी दिव्यता एवं भव्यता के लिए एक अलग पहचान बनाए हुए है। आज हम आपको रत्नेश्वर महादेव मंदिर की विशेषता के बारे में बताएंगे।

क्यों प्रसिद्ध है रत्नेश्वर महादेव मंदिर?

रत्नेश्वर महादेव का मंदिर वाराणसी के 84 घाटों पर स्थित सभी मंदिर से पूरी तरह से अलग है। इसकी खासियत यह है कि लगभग 400 सालों से 9 डिग्री के कोण पर झुका हुआ है। यह मंदिर आज तक ज्यों का त्यों खड़ा है, जबकि यह मंदिर गंगा नदी के तलहटी पर बना हुआ है। आपको बता दें जर्मनी में स्थित पीसा की मीनार केवल 4 डिग्री ही झुकी हुई है। अब आप सोचिए 400 वर्ष पूर्व ना कोई मशीन रही होगी ना कोई यंत्र फिर भी हमारे हमारे पूर्वजों की कलाकृति इतनी विशाल थी कि उन्होंने सैकड़ों वर्ष पूर्व ऐसी दिव्य कृति दुनिया को दी।

क्या है रत्नेश्वर महादेव मंदिर का इतिहास?

माना जाता है इस मंदिर को महारानी अहिल्याबाई की दासी रत्नाबाई ने बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि मंदिर की जमीन को अहिल्याबई ने अपनी दासी रत्नाबाई को दी थी। जिसके बाद रत्नाबाई ने उसी जमीन पर मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया था। लेकिन बाद में रत्नाबाई के पास कुछ पैसों की कमी आ गई थी जिसके बाद मंदिर का निर्माण कार्य अहिल्याबाई की मदद से हुआ था। किवदंतियों के अनुसार निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद अहिल्याबाई ने मंदिर देखने की इच्छा जताई अहिल्याबाई मंदिर पहुंची तो वह मंदिर की खूबसूरती देखकर दंग रह गई थी और इसके बाद अहिल्याबाई ने रत्नाबाई से मंदिर का नाम ना देने की बात कहीं लेकिन रत्नाबाई ने इस मंदिर को अपने नाम से जोड़ते हुए रत्नेश्वर महादेव का नाम दिया जिसके कारण तभी से या मंदिर दाहिनी ओर झुक गया।

भारत सरकार द्वारा अहिल्याबाई की स्मृति में जारी किया गया डाक टिकट।(Wikimedia commons)

कौन है अहिल्याबाई जिन्होंने दी थी रत्नेश्वर महादेव मंदिर के निर्माण को जमीन?

मालवा राज्य की महारानी अहिल्याबाई भारत की प्रमुख वीरांगनाओं में से एक है।अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को चौंडी नामक गाँव में हुआ था जो आजकल महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड में पड़ता है। दस-बारह वर्ष की आयु में इनका विवाह खण्डेराव होलकर के साथ हुआ। दुर्भाग्यवश उनतीस वर्ष की अवस्था में अहिल्याबाई को विधवा होना पड़ा। मल्हारराव के निधन के बाद उन्होंने पेशवाओं को आग्रह किया कि उन्हें मालवा की प्रशासनिक बागडोर सौंपी जाए। मंजूरी मिलने के बाद 1766 में रानी अहिल्यादेवी मालवा की शासक बन गईं। उन्होंने तुकोजी होल्कर को सैन्य कमांडर बनाया। उन्हें उनकी राजसी सेना का पूरा सहयोग मिला। अहिल्याबाई ने कई युद्ध का नेतृत्व किया। वे एक साहसी योद्धा थी और बेहतरीन तीरंदाज भी थी। हमेशा आक्रमण करने को तत्पर भील और गोंड्स से उन्होंने कई बरसों तक अपने राज्य को सुरक्षित रखा। इसके अलावा आलिया बाई ने कुछ विशेष कार्य करें जिसके कारण वे संपूर्ण भारतवर्ष में अभी भी जानी जाती हैं जैसे अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत भर के प्रसिद्ध तीर्थ और स्थानों में मंदिर बनवाना, घाट, कुआं और बांध का निर्माण करवाना।

अहिल्याबाई होल्कर के नाम से कई राज्य सरकारों ने कई योजनाएं चलाई है। इसके अलावा 1996 में भारत सरकार ने अहिल्याबाई की स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया था। अहिल्याबाई को अभी भी मालवा क्षेत्र के वर्तमान लोग राजमाता कह कर पुकारते हैं तथा उनकी उपासना भी करते हैं।

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