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ऋषिकेश मुखर्जी: साधारण जीवन का असाधारण कहानीकार

ऋषिकेश मुखर्जी, एक ऐसे निर्देशक थे जिन्हें कॉमन मैन कहा गया है, क्योकि उनके फिल्मों के पात्र हमारे जैसे आम इंसान होते थे। और उनकी फिल्में देख कर अक्सर लोग यह सोचते थे कि अरे ये तो हमारी कहानी है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

ऋषिकेश मुखर्जी, एक ऐसे निर्देशक थे जिन्हें कॉमन मैन कहा गया है, क्योकि उनके फिल्मों के पात्र हमारे जैसे आम इंसान होते थे। और उनकी फिल्में देख कर अक्सर लोग यह सोचते थे कि अरे ये तो हमारी कहानी है। बता दें की भारतीय सिनेमा ने अनेक ऐसे निर्देशक दिए हैं जिन्होंने दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी। परन्तु उन सबमें ऋषिकेश मुखर्जी (Hrishikesh Mukherjee) एक ऐसा नाम है, जो अपनी सादगी, मानवीय संवेदनाओं और साधारण कहानियों को असाधारण अंदाज में प्रस्तुत करने की कला के लिए आज भी अमर हैं। आप देखेगे की इनकी सिनेमा में न तो चकाचौंध थी और न ही बहुत शोर–गुल, बल्कि यह जीवन की छोटी-छोटी खुशियों, रिश्तों की गर्माहट और मानवीय मूल्यों की कहानी कहते थे। यही कारण है कि उन्हें हिन्दी सिनेमा का ‘कॉमन मैन का निर्देशक’ कहा जाता है। आज उनके जन्मदिवस पर हम उनकी यात्रा, कार्य और लोकप्रियता पर एक नज़र डालेंगे।

इनका जीवन परिचय और प्रारम्भिक सफर

इनका जन्म 30 सितम्बर 1922 को पश्चिम बंगाल (West Bengal) के कोलकाता में हुआ था। बचपन से ही पढ़ाई में तेज़ रहे ऋषि दा ने विज्ञान और गणित में स्नातक किया था। लेकिन किस्मत ने उन्हें फिल्मों की ओर मोड़ दिया। वह संगीत और फोटोग्राफी के बड़े शौकीन थे। इसी रुचि ने उन्हें सिनेमा से जोड़ दिया।

शुरू में उन्होंने अपना करियर फिल्म उद्योग में एडिटिंग और कैमरा विभाग से शुरू किया था। सुप्रसिद्ध निर्देशक बिमल रॉय (Director Bimal Roy) के साथ सहायक के रूप में काम करना उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। बिमल रॉय की सामाजिक और यथार्थवादी फिल्मों ने उन्हें अंदर से प्रभावित किया था। वहीं से उन्होंने सीखा कि सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं, बल्कि समाज को दिशा दिखाने और दिलों को छूने वाली कला भी है।

सिनेमा का सफ़र

1957 में ऋषिकेश मुखर्जी (Hrishikesh Mukherjee) का निर्देशक (Director) के रूप में जर्नी शुरू हुआ। उन्होंने अपनी पहली फिल्म “मुसाफिर” बनाई थी। यह फिल्म भले ही व्यावसायिक रूप से बहुत बड़ी सफलता हासिल नहीं कर पायी, लेकिन उनकी अलग सोच और मानवीय दृष्टिकोण को सबने नोटिस किया था। इसके बाद उन्होंने ऐसी फिल्मों की श्रृंखला बनाई जिसने उन्हें न केवल लोकप्रियता दी बल्कि हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक स्थायी स्थान दिलाया।

उनकी कई बड़ी और यादगार फिल्मों में शामिल है अनुपमा (1966), आशीर्वाद (1968), आनंद (1971), गुड्डी (1971), बावर्ची (1972), अभिमान (1973), चुपके-चुपके (1975), मिली (1975), खट्टा-मीठा (1978) और गोलमाल (1979)

उनके सिनेमा की विशेषताएँ

ऋषिकेश मुखर्जी के फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सादगी थी। उन में यह अद्भुद कला थी की वह किसी भी विषय के फिल्मों को आम आदमी के नजरिए से दिखाते थे। उनकी फिल्मों में ना तो बड़े सेटों का दिखावा हुआ करता था और ना ही अनावश्यक भव्यता थी। बल्कि उनकी कहानियाँ मध्यमवर्गीय परिवारों, उनकी समस्याओं और रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती थीं। वह गंभीर मुद्दों को भी हल्के-फुल्के अंदाज़ में पेश करते थे। “गोलमाल” और “चुपके-चुपके” इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। इतना ही नहीं उनके निर्देशन में बनी फिल्मों के गाने उस कहानी का हिस्सा लगते थे, आज-कल के फिल्मों जैसा नहीं था की वह गाने फिल्म के कॉन्सेप्ट से ही अलग दिख रहे है।

ऋषिकेश मुखर्जी के फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सादगी थी।

क्यों है यह इतने लोकप्रिय

ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का सबसे बड़ा आकर्षण यही था कि दर्शक खुद को उनकी बनी कहानियों में देख पाते थे। उनकी “आनंद” जैसी बनी फिल्म ने जीवन की नश्वरता और जीने की कला को सरल भाषा में समझाया है। वहीं “बावर्ची” और “गोलमाल” ने परिवार, रिश्ते और ईमानदारी जैसे मूल्यों को हंसी-खुशी के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी फिल्मों में बड़े सितारे तो होते थे,लेकिन चमक-दमक के बजाय कहानी और भावनाएँ मुख्य पात्र बन जाती थीं। यही कारण है कि उनकी फिल्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज भी पसंद की जाती हैं।

पुरस्कार और सम्मान

ऋषिकेश मुखर्जी (Hrishikesh Mukherjee) को उनकी फिल्मों और सिनेमा में योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले है। उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है और दादासाहेब फाल्के पुरस्कार भी प्राप्त हुई है, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है। इसके अलावा उन्होंने कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्मफेयर अवॉर्ड भी जीते है।

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इनका व्यक्तित्व

उनके व्यक्तित्व की बात करे तो कई भव्य उपलब्धियों के बावजूद ऋषिकेश मुखर्जी का जीवन बेहद सरल रहा है। वे भव्य पार्टियों और ग्लैमर (Grand Parties and Glamor) से दूर रहते थे। सादे कपड़े पहनना, सीधे-सपाट बोलना और सादगी से जीना उनकी पहचान थी। यही सादगी उनके सिनेमा में भी झलकती थी। वे मानते थे कि सिनेमा का उद्देश्य लोगों को जीवन से जोड़ना है, उन्हें खुद से मिलाना है।

निष्कर्ष

इनके सिनेमा का जर्नी हमे यह सिखाता है कि जीवन की असली खूबसूरती छोटी-छोटी खुशियों, रिश्तों की गर्माहट और मानवीय मूल्यों में छिपी है। उन्होंने बिना भव्यता के, बिना दिखावे के, सादगी और संवेदनशीलता से फिल्मों को नयी ऊँचाई तक पहुंचाया है। आज जब हम उनके जन्मदिवस पर उन्हें याद करते हैं, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक नई परिभाषा दी है। उनकी फिल्में आज भी हमें हंसाती हैं, रुलाती हैं और जीवन जीने का नया नजरिया देती हैं। ऋषिकेश मुखर्जी (Hrishikesh Mukherjee) भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी रचनाएँ और उनका सिनेमा सदैव अमर रहेगा। वे न केवल एक महान निर्देशक थे, बल्कि जीवन के दार्शनिक और भावनाओं के सच्चे कथाकार भी थे।

[Rh/SS]

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