लोक भागीदारी से परिष्कृत होगा लोकतंत्र: मुनीश रायज़ादा  Wikimedia Commons
साक्षात्कार

लोक भागीदारी से परिष्कृत होगा लोकतंत्र: मुनीश रायज़ादा

लोकनायक जेपी के शब्दों में हम मतदाता परिषदें बना सकते हैं, एक-एक ग्राम से कुछ प्रतिनिधि मांग सकते हैं, शहरों के वार्डों से भी प्रतिनिधि मांग सकते हैं, जो मिलकर एक चुनाव करवाएं। इसमें फिर जो उम्मीदवार हैं वो चुनाव लड़ें। ऐसे में एक बड़ी संख्या में लोग इस तरह की प्रक्रिया में शामिल होंगे।

Prashant Singh

बीते दिनों नई दिल्ली में, शिकागो में नवजात शिशु रोग चिकित्सक व 'ट्रांसपेरेंसी: पारदर्शिता वेब सीरीज' के निर्देशक, डॉ मुनीश रायज़ादा (Dr. Munish Raizada) द्वारा 'पार्टीलेस डेमोक्रेसी' पर एक सर्वेक्षण कार्य किया गया, जिसमें लोगोने ने लोक भागीदारी के अहम बिंदुओं को समझा। इस अनूठे विचार के साथ युवा बहुत ही उत्साहित नज़र आए। इसी विषय में, मुनीश रायज़ादा से न्यूज़ग्राम हिन्दी की टीम ने खास बात-चीत की जिसका एक अंश यहाँ दिया जा रहा है।

1. 'पार्टीलेस लोकतंत्र', यह एक बहुत ही अद्भुत शब्द है। पार्टीलेस लोकतंत्र के बारे में यह विचार आपके पास कैसे आया?

मैं अक्सर लोकतंत्र अथवा राजनीति जैसे विषयों पर अध्ययन करता रहता हूँ। इसी क्रम में मैं भारत की राजनीतिक स्थिति पर गहराई से विचार कर रहा था। काफी अध्ययन करने के बाद यह पार्टीलेस डेमोक्रेसी (Partyless Democracy) का विचार आया। इसी को ध्यान में रखते हुए हमने हाल ही में कनाट प्लेस, नई दिल्ली में इसपर एक सर्वेक्षण भी किया, जिसमें लोगों की तरह-तरह की प्रक्रियाएं मिली। अधिकांश लोग इसके बारे में सुनकर बिल्कुल ही आश्चर्य में थे। कुछ लोग बहुत ज्यादा उत्साहित भी थे। उनमें से कुछ ने यह भी कहा कि उन्होंने इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं था। यह नई पहल उनके लिए एक नई आशा की तरह है।

शिकागो में नवजात शिशु रोग चिकित्सक व 'ट्रांसपेरेंसी: पारदर्शिता वेब सीरीज' के निर्देशक, डॉ मुनीश रायज़ादा द्वारा 'पार्टीलेस डेमोक्रेसी' पर एक सर्वेक्षण कार्य किया गया

यहाँ से एक बात स्पष्ट तौर पर निकलकर हमारे समक्ष आती है कि विश्व में जो लोकतंत्र आज हमारे पास है वो यही कोई 200 से 250 साल पुराना है। और, इस प्रणाली से लोग अब परेशान हैं। वो बदलाव चाहते हैं। हमारे पास बस कहने भर को ही एक प्रतिनिधि लोकतंत्र है जो लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में कहीं न कहीं पीछे रह गया है। क्योंकि यह प्रतिनिधि लोकतंत्र अब एक पार्टी आधारित लोकतंत्र बन कर रह गया है।और इसी कारण ही मैंने ये महसूस किया कि इस तरह के लोकतंत्र को उसे परिष्कृत करने की आवश्यकता है। मैंने कई देशों से भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन किया। उदाहरण के लिए आप अमेरिकी और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य को देखें। वहाँ (अमेरिका में) दो पार्टी सिस्टम है, लेकिन इसकी खामियां भी गहराई में जाएँ तो दिखती हैं। वास्तव में इन दो पार्टियों ने डुओ-पोली बना ली है, जबकि भारत में मल्टीपार्टी सीस्टम है, और इसकी खामियां अलग तरह की हैं। यहाँ पर विपक्ष केवल इसलिए विरोध करता है क्योंकि वह विपक्ष में है, नाकि उन्हें मुद्दे से कोई लेना-देना है। सही कहा जाए तो यह एक “पार्टीबाजी” प्रथा है, जिसने पूरे लोकतंत्र को कब्जे में ले लिया है। ऐसे में ये पार्टी जब सत्ता में आती है तो लोगों के अपेक्षाओं को लात मार देती है।

2. आपने बिल्कुल सही कहा। लेकिन हमारे पास उम्मीदवार चुनने का अधिकार है। क्या हम सही उम्मीदवार चुनकर ऐसे समस्याओं से निजात नहीं पा सकते?

आपने बिल्कुल सही कहा कि मतदान द्वारा प्रतिनिधि हम ही चुनते हैं। लेकिन हम बस चुन ही सकते हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। हमारे द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि यदि वादे नहीं पूरे करते तो फिर अगले चुनाव में हम उनकी जगह नए उम्मीदवार या दूसरी पार्टी को वोट डालते हैं, और ये क्रम निरंतर चलता रहता है। यहाँ यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो ये नया उम्मीदवार भी कौन होता है? उन्हीं पार्टिओं में से किसी एक की तरफ से खड़ा किया गया व्यक्ति। ऐसे में यहाँ उम्मीदवार जनता ने नहीं खड़ा किया, बल्कि पार्टी ने खड़ा किया है। फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हमने अपना प्रतिनिधि चुना है? दरअसल ये उम्मीदवार पार्टी द्वारा ही नागरिकों पर थोपे जाते हैं। नागरिकों को मजबूरी में उन्हीं खड़े किये गए उम्मीदवारों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। अच्छा एकक्षण के लिये यदि मतदान द्वारा एक सरकार बन भी गई तो उस मतदान का सम्मान भी कहाँ तक होता है? पार्टी में जरा सी ऊँच-नीच हुई, एक नेता ने सोचा कि अब पार्टी बदल ली जाए। तो दल-बदल कानून द्वारा अब यह भी मुमकिन है। बस उसे अपना एक गुट तैयार करना है। दल-बदल कानून के तहत पार्टी छोड़ने के लिए अगर 1/3 सदस्य मान जाते हैं, तो फिर सरकार बदला जा सकता है। जैसा कि आपने हाल ही में महाराष्ट्र में देखा। ऐसे में आप साफ-साफ देख सकते हैं कि यहाँ लोगों के मतों का किस प्रकार से दुरूपयोग किया गया।

हमारे कई नेताओं ने भारत के लिए ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी।

3. आप पार्टीलेस डेमोक्रेसी की बजाय पार्टी में स्वच्छता/ सुधार लाने जैसे विषय पर क्या सोचते हैं?

पार्टी में स्वच्छता लायी जा सकती है, लेकिन उसके लिए सभी पार्टियों के अधिकांश सदस्यों का तैयार होना अनिवार्य है। वर्तमान पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी है जिसके कारण आलाकमान वाला व्यवहार ज्यादा चलता है। ये स्वयं ही वादे करते हैं फिर उसे तोड़ भी देते हैं। लेकिन जनता के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिससे कि वो नेताओं से सवाल कर सकें। जनता निराश हो कर फिर दूसरा उम्मीदवार चुनती, पर कहानी जस की तस। अच्छा ऐसे में एक रास्ता ‘नोटा’ भी है पर उसका कोई अपना वजूद नहीं है। यदि कुछ विशेषज्ञों या आंदोलनकारियों की बात मानें तो उनका कहना है कि नोटा को एक उम्मीदवार घोषित कर देना चाहिए। और यह मेरी समझ से सही भी है।

इससे इतर एक बात और आपको बताना चाहूँगा कि जब भारतीय संविधान का मूल तैयार हुआ तब उसमें राजनीतिक पार्टी शब्द का कोई प्रयोग ही नहीं था। उस समय व्यक्ति विशेष के लिए मानक तय किये गए थे। समय के अंतराल में पार्टी सिस्टम का उदय हुआ। धीरे धीरे , पार्टियां लोकतंत्र पर हावी होती गयीं। और अब तो इलेक्टोरल बॉन्डस (Electoral Bonds) जैसे कानून आ गए। इसमें दान की गई राशि का ब्योरा लोगों के बीच आ ही नहीं पाता और पार्टियां काले या अज्ञात धन से अपने को मालामाल कर रही हैं। इनके अलावा वंशवाद, परिवारवाद और भतीजावाद जैसे विकार राजनीतिक दलों में समां चुके हैं । यही सब सूक्ष्म विषय हैं जो मुझे चिंता में डालते हैं और पार्टीलेस डेमोक्रेसी के विषय की तरफ आकर्षित करते हैं।

लोकनायक जेपी के शब्दों में हम मतदाता परिषदें बना सकते हैं: मुनीश रायज़ादा

4. आप की चिंता निश्चित ही विचारणीय है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इतने बड़े लोकतंत्र को बिना किसी पार्टी के कैसे चलाएंगे?

आपने सही पूछा, पहले मुझे भी यही लगता था। पर कुछ अध्ययन करने पर यह समझ आया कि आज लोगों को जो लगता है कि अंग्रेजों ने हमें लोकतंत्र सिखाया, तो यह बिल्कुल झूठ और भ्रामक है। हमें अपने वैदिक काल में भी यह साफ दिखता है कि हमारे पास लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। पंचायत की अवधारणा कोई नयी नहीं है, जिनमें लोगों द्वारा चुने गए मुखिया होते थे, जिन्हें हम पंच परमेश्वर की संज्ञा देते थे। ग्राम सभाएँ हुआ करती थीं, जिनमें राजा सीधे-सीधे हस्तक्षेप नहीं करता था। यह पुख्ता सबूत है कि हमारे इतिहास में ग्राम स्वराज्य की अवधारणा स्थापित थी।

पर जब हम 1947 में पहुंचे तो हमने पश्चिमी सभ्यता की संसदीय कार्य प्रणाली अपना ली, और यहाँ भारत अपने खुद के लोकतंत्र के सांस्कृतिक तरीके को भूल गया। 1944 में एम एन रॉय (MN Roy) ने स्वयं पीपल्स कमिटी (People's Committee) की वकालत की, पार्टी बनाने के विरोध में रहे। महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने भी स्वतंत्र भारत के लिए ग्राम स्वराज (Gram Swaraj) की परिकल्पना की थे ,पर अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) इसके विरोध में रहे। बाद में यही बात जयप्रकाश नारायण ने भी कही।

5. हमारा इतिहास वास्तव में बहुत समृद्ध रहा है। लेकिन क्या आपको यह नहीं लगता कि पार्टीलेस लोकतंत्र की मांग करने वाले अन्य भी मिलकर एक नए समूह बन जाएंगे, और यही समूह पुनः एक पार्टी बन जाएगी?

इस विषय पर मैं आपकी बात को ही लेकर चलता हूँ। हम पार्टी की जगह, एक व्यक्ति विशेष को वोट दे सकते हैं, फिर उनमें से एक अनुभवी को स्पीकर के तौर पर चुन लिया जाए, और अन्य पदों के लिए भी। ऐसे में पार्टी से संबंधित कुरीति शामिल होने की कोई गुंजाइश नहीं होगी। हम ग्रुप के रूप में बस ये विचार रख रहे हैं, नकि हम स्वयं कोई पार्टी बन रहे हैं। इसमें अगर इलेक्शन कमीशन (Election Commission) ही यह स्पष्टता से कह दे कि 2024 के चुनाव में कोई चिह्न नहीं होगा, व्यक्ति ही लड़ेगा। यकीन मानिए यदि इसे कोई सुप्रीम कोर्ट में भी चैलेंज करता है तो भी सुप्रीम कोर्ट इलेक्शन कमीशन की ही बात मानेगा।

6. कोई यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि राजनीतिक और शासन प्रणाली में इस तरह के बदलाव से अराजकता और सामाजिक अशांति नहीं फैलेगी?

यहाँ अराजकता की बात तो खड़ी ही नहीं होती क्योंकि यहाँ व्यक्ति विशेष खड़ा होगा। जैसे, आप ग्राम पंचायत को देखिए, इसमें सारी प्रक्रिया पार्टीलेस ही होती हैं (यद्यपि पंचायत राज में स्वार्थवश दलगत राजनीती की रोटियां सेंकी जाती है, लेकिन कानूनी तौर पर पंचायती राज दाल विहीन प्रक्रिया है)। हम बस यही चाहते हैं कि जनता स्वयं उम्मीदवार खड़ा करे। लोकनायक जेपी (Loknayak JP) के शब्दों में हम मतदाता परिषदें (Voter Councils) बना सकते हैं, एक-एक ग्राम से कुछ प्रतिनिधि मांग सकते हैं, शहरों के वार्डों से भी प्रतिनिधि मांग सकते हैं, जो मिलकर एक चुनाव करवाएं। इसमें फिर जो उम्मीदवार हैं वो चुनाव लड़ें। ऐसे में एक बड़ी संख्या में लोग इस तरह की प्रक्रिया में शामिल होंगे।

7. यदि मान लीजिए यह प्रस्ताव नहीं लागू हो पाता है तो इसके अतिरिक्त आप कोई और सुझाव देना चाहेंगे?

वैसे तो यह एक अच्छा सुझाव है जो देश के हित में है पर यदि इसके अतिरिक्त कोई सुझाव मांगा जाता है तो वो हमारी तरफ से तरह-तरह के सुधारों का सुझाव है। जैसे कि ह्विप को हटा दीजिए, इस प्रावधान ने तो मंत्रियों तक को उसके आलाकमान के आगे झुकने को मजबूर कर दिया है। पार्टी के पैसों का ब्योरा पूरा सामने लाइये, इनर-पार्टी डिमाक्रसी बढ़ाइए, राइट टू रिकॉल (Risght to Recall) पद्धती को इजात में लाइये, पार्टी सिंबल्स हटा (Remove Party Symbols) दीजिए। इलेक्शन कमिशन यह शक्ति ले कि यदि कोई उम्मीदवार अपने वादे पूरे नहीं कर पाता है तो उसकी जमानत जब्त कर ली जाएगी। ऐसे में लिखित तौर पर उम्मीदवार यह साफ-साफ बताए कि वो कितने समय में कितने वादे पूरे कर पाएगा। इससे यह होगा कि वह कोई हवाई वादा करने से पहले सौ बार विचार करेगा। चुनाव के लिए रैंक चॉइस वोटिंग सिस्टम (Preferential Voting) भी लायी जा सकती है। यहाँ बस समस्या यही है की रिफॉर्म्स संसद लेकर आती है, वो ये लाना नहीं चाहती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि सत्ता अपना घाटा कभी नहीं चाहती। पर देश के जनता की यह आकांक्षा है कि इस लोकतंत्र को अपग्रेड होने की आवश्यकता है। यदि इस अभिलाषा की भी पूर्ति होती है तो लोगों को जरूरत नहीं है इस तरह के पार्टीलेस डेमोक्रेसी जैसी मांग उठाने की।

डॉ. मुनीश रायज़ादा ने बिजली के बढ़े हुए बिलों के मुद्दे को हल करने में विफल रहने के लिए आप सरकार की आलोचना की

भारतीय लिबरल पार्टी (बीएलपी) दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में सभी 70 विधानसभाओं पर चुनाव लड़ेगी

कभी रहे खास मित्र, अब लड़ रहे केजरीवाल के खिलाफ चुनाव। कौन हैं मुनीश रायज़ादा?

नई दिल्ली विधानसभा (AC - 40) से केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे डा मुनीश रायज़ादा

भारतीय लिबरल पार्टी (बीएलपी) के अध्यक्ष डॉ. मुनीश रायज़ादा ने शहर में प्रदूषण के मुद्दे को हल करने में विफलता के लिए आप सरकार को ठहराया जिम्मेदार।