सर, आप अपने बारे में बताइए।
मेरा नाम अनिल गांधी (Anil Gandhi) है। मैं संसद, राज्यसभा में संयुक्त सचिव (Joint Secretary) के पद से सेवानिवृत्त (Retired) हुआ हूँ। इससे पहले मैं दूरदर्शन में उप महानिदेशक (प्रशासन) के रूप में कार्यरत रहा हूँ तथा आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी (Programme Executive) और समाचार वाचक के रूप में भी कार्य किया है। यह मेरा कर्मक्षेत्र रहा है। इसके अतिरिक्त, मैं 1982 से 1985 के बीच रंगमंच (Theatre) से भी सक्रिय रूप से जुड़ा रहा हूँ। बाद के वर्षों में भी मैंने शौकिया रंगमंच में अपनी सहभागिता बनाए रखी थी।
सेवानिवृत्ति के बाद, 2018 में मैंने एक उपन्यास (Novel) लिखा था— “ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की”। इसके अलावा मेरा एक कहानी-संकलन भी प्रकाशित है — “ना होने वाला इंतज़ार”। अब तक मेरी दो पुस्तकें पूरी हो चुकी हैं और मैं वर्तमान में प्रकाशक की तलाश में हूँ। मेरी तीसरी पुस्तक का लेखन भी पूर्ण हो चुका है। यही मेरी क्रिएटिव जर्नी (Creative Journey) रही है।
आपने जो उपन्यास ‘ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की’ लिखा है, उसके बारे में कुछ बताइए — इसकी प्रेरणा क्या रही?”
दरअसल, मैं दलित वर्ग के प्रति थोड़ा संवेदनशील रहा हूँ,यह उस समय की बात है जब मैं बच्चा था। उस दौर में शौचालय आज की तरह आधुनिक नहीं हुआ करते थे। उस वक़्त अलग प्रकार के शौचालय होते थे, जिन्हें साफ करने के लिए कर्मचारी आया करते थे। उन कर्मचारियों के साथ एक छोटी बच्ची भी आया करती थी। एक दिन जब मैंने उस बच्ची को प्रसाद के रूप में पूरी आदि देने की कोशिश की, तो माँ ने कहा — “ऊपर से दो।” मैं भी उस समय छोटा था, इसलिए यह बात मुझे समझ नहीं आई। मैंने उनसे पूछा, “ऊपर से क्यों?” तब उन्होंने कहा, “ये लोग गंदगी उठाते हैं, इनके हाथ स्वच्छ नहीं होते।” उस दिन की वह बात मेरे मन में गहराई तक उतर गई।
बाद में मैंने उस बच्ची की जीवन-यात्रा को जानने की कोशिश की और मालूम पड़ा कि उसका जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा। उसी से प्रेरित होकर मैंने एक काल्पनिक कहानी (फिक्शन) रची, जिसका परिणाम है यह उपन्यास “ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की।”
इस उपन्यास की मुख्य पात्र एक दलित महिला है, जो आगे चलकर एक ब्यूरोक्रेट बनती है। उसकी एक के बाद एक शादियाँ होती हैं, और सरकारी व्यवस्था में उसके साथ किस प्रकार भेदभाव किया जाता है। यह सब इस उपन्यास में लिखा गया है। यह उपन्यास मूल रूप से एक प्रेमकथा है, लेकिन इसके भीतर कई मिनी प्लॉट्स भी बुने गए हैं।
इस उपन्यास में जो मिनी प्लॉट्स (Mini Plots) हैं, उनमें से एक जातिवाद पर आधारित है। दूसरा विषय सरकार से जुड़ा है — कि प्रशासन वास्तव में किस प्रकार कार्य करता है। क्योंकि मैं स्वयं प्रशासनिक सेवा में रहा हूँ, इसलिए मुझे लगा कि इस उपन्यास के माध्यम से मैं प्रशासन की वास्तविक कार्यप्रणाली को भी लिख सकता हूँ।
इसके अतिरिक्त, एक और पात्र है — एक रंगकर्मी (Theatre Artist), जो एक छोटे से गाँव में रंगमंच करता है। यह मेरी कल्पना थी, जिसे मैंने उपन्यास में रूप दिया है। मैंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि किसी छोटे शहर या गाँव में थिएटर करना कितना कठिन होता है।
ये मेरे तीन-चार मिनी प्लॉट्स हैं, जो मूल कथा के साथ-साथ चल रहे होते हैं और उसे गहराई प्रदान करते हैं।
सर, इस उपन्यास का कोई ख़ास बात जो आपके दिल के बहुत क़रीब है?
इस उपन्यास में पुरुष और महिला के बीच का जो संवाद है वो काफ़ी अच्छा है, और अलका नाम की जो पात्र है इस उपन्यास में वो मेरे दिल के बहुत क़रीब है।
दूरदर्शन में आपका जर्नी कैसा रहा है ?
जब मैं आज पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि असल में मैं एक अभिनेता था। हम अविभाजित भारत के उस हिस्से से आए थे, जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है। उस समय हम बहुत असुरक्षित महसूस करते थे। उस दौर में यह माना जाता था कि पहले नौकरी ढूँढो, फिर बाकी चीज़ों के बारे में सोचो। ऐसे माहौल में मैंने अपने अंदर के कलाकार को, अपने अभिनेता को, दबा दिया था।
आज के समय में तो लोग अपने घर में अपने पैशन (Passion) के बारे में खुलकर बात करते हैं, लेकिन तब ऐसा माहौल नहीं था। मैंने सोचा था कि मैं एनएसडी (National School of Drama) जाऊँगा, यह सुन कर ही मेरे माता-पिता घबरा जाते थे। उन्हें लगता था कि पता नहीं यह क्या करेगा। इसलिए मैंने अपने उस शौक को दबाया और दूसरी तरफ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता रहा।
सरकारी नौकरी में आने से पहले मैं अध्यापक (Teacher) भी रहा हूँ। मैं सैनिक स्कूल में पढ़ाता था और वहीं नाटक निर्देशित किया करता था। वहाँ लोगों ने मेरे काम की प्रशंसा भी की थी। उसी समय मेरे अंदर का दबा हुआ थिएटर का कीड़ा फिर जागा और कहने लगा — “तू जा, थिएटर कर।” इसलिए मैंने शिक्षक की नौकरी छोड़ दी और दिल्ली आ गया।
लेकिन दिल्ली में जीवन-यापन आसान नहीं था, इसलिए मैंने संसद में सरकारी नौकरी जॉइन कर ली। कुछ समय बाद मुझे लगा कि यह मेरा क्षेत्र नहीं है। फिर यूपीएससी के माध्यम से “प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव” की भर्ती निकली, जिसमें मेरा चयन हो गया। वहाँ मैंने पाँच साल तक काम किया।
जैसा कि आपने दूरदर्शन के बारे में पूछा, तो मेरी रचनात्मक रुचि (Creative Urge) हमेशा ऑल इंडिया रेडियो की ओर रही। 1984 में जब मैंने रेडियो में समाचार वाचक (News Reader) के पद के बारे में सुना, तो मैंने उसे जॉइन कर लिया और वहीं से मेरी रचनात्मक यात्रा को नया मोड़ मिला।
आपने ये कैसे डिस्कवर किया की आर्टिस्ट बनना ही आपका रियल पैशन है ?
आप किसी बड़े कलाकार से बात करें, मैं तो सिर्फ एक छोटे शहर का छोटा कलाकार रहा हूँ। जब मैं ऑल इंडिया रेडियो में था, तब मैं कई छोटे-छोटे शहरों के कलाकारों को बुलाता था और उनका साक्षात्कार (Interview) लेता था। उस कार्यक्रम का नाम मैंने रखा था — “छोटे शहर का बड़ा कलाकार।” वह कार्यक्रम मैं खुद ही तैयार करता और प्रस्तुत करता था।
मुझे बचपन से ही मंच पर जाने में बहुत अच्छा लगता था। जब मैं नौवीं या दसवीं कक्षा में था, तभी मुझे महसूस हुआ कि मैं अभिनय (Acting) भी कर सकता हूँ। दसवीं कक्षा में मैंने एक नाटक में मुख्य भूमिका निभाई थी, जिसमें मैं हीरो बना था। उसी नाटक के लिए मुझे ज़िला स्तर (District Level) पर “सर्वश्रेष्ठ अभिनेता” का पुरस्कार भी मिला था। तब मुझे लगा की मैं एक्टर बन सकता हूँ, और जब मैं रिटायर हो गया 2018 में तब मुझे लगा मैं फिल्म इंडस्ट्री जाता हूँ, और मैं मुंबई भी गया था, इधर - उधर के लोग सब कह रहे थे,की क्या है इसका दिमाग ख़राब हो गया है इतना सीनियर लेवल से रिटायर हुआ है और अब इधर जा रहा है। लेकिन खुश किस्मती से पहले दो महीने में मुझे एक रोल भी मिल गया था, दिवाकर बेनर्जी एक डायरेक्टर है जिनकी फिल्म है खोसला का घोसला। फिर कोविड आ गया तब मैं घर लौट आया और अब मैं मुंबई नहीं जाता, मुंबई की एक ख़ासियत है आउट ऑफ़ साईट आउट ऑफ़ माइंड, जब आप मुंबई में है तब तक आप उनके नज़र में है। और अब तो मैं लेखन पठान करते रहता हूँ।
अपने सपने को पूरा करने में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा था?
मैं भी एक समय स्कूल शिक्षक रहा हूँ। मेरे स्कूल और कॉलेज में मुझे किसी तरह की बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा, यहाँ तक कि इंडस्ट्री स्तर पर भी नहीं, क्योंकि वहाँ लोग आपके टैलेंट को पहचान लेते हैं। उस समय यह फर्क नहीं पड़ता था कि आपको बड़ा रोल मिल रहा है या छोटा।
फिर, जब मैं 1985 में दिल्ली आया और फुल-टाइम एक्टर बनने का फैसला किया, तब मैंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। उस समय मुझे थिएटर से सिर्फ 500 रुपये मिलते थे। अब सोचिए, सिर्फ 500 रुपये में दिल्ली जैसे शहर में कैसे गुजारा किया जा सकता था? यह मेरी पहली बड़ी चुनौती थी। दूसरी चुनौती यह थी कि मैंने सरकारी नौकरी छोड़ी थी, जहाँ मुझे अच्छी-खासी सैलरी मिलती थी, और अचानक मेरी आमदनी पहले की तुलना में बहुत कम हो गया था।
मैं दिल्ली में ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाया। लगभग एक साल तक मैंने किसी तरह गुज़ारा किया। घर से कुछ पैसे मिल जाते थे, लेकिन यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। अंदर से मुझे बहुत तकलीफ़ होती थी कि मैं घर से पैसे ले रहा हूँ। उस समय भी थिएटर कलाकारों के लिए आर्थिक मुश्किलें थीं, और आज भी यह स्थिति बनी हुई है।
अब बात मुंबई की करें तो वहाँ सबसे पहली चुनौती होती है रहने की जगह ढूँढ़ना। फिर कास्टिंग डायरेक्टर्स के पास जाना, जहाँ कई बार शोषण भी होता है, खासकर पैसों को लेकर — पैसे समय पर नहीं मिलते था।
एक बार मुझे एक बहुत बड़े बैनर की फिल्म में रोल भी मिला था। मैं उनका नाम नहीं लूँगा। उस फिल्म में मेरा किरदार एक जज का था। फिल्म रिलीज़ भी हुई थी बाद में और मैं अच्छा काम कर भी रहा था। लेकिन एक मशहूर अभिनेता ने कहा कि हमें कोई जाना-पहचाना चेहरा चाहिए। इस वजह से मैं उस प्रोजेक्ट में आगे नहीं रह पाया।
तो ऐसी बातें अक्सर होती हैं कि नए कलाकारों को पहले मौका मिलता है, और लास्ट वक़्त में कह दिया जाता है, “सॉरी सर।” मुंबई में आपको सब कुछ अपने दम पर करना पड़ता है। इसलिए मैं उन सभी कलाकारों को सलाम करता हूँ, जो बिना किसी पारिवारिक पहचान या सहारे के वहाँ अपने आप को स्थापित कर लेते हैं।
अगर आपके बीते समय को वापस लाया जाए तो वो कौन सा वक़्त होगा जिसे आप ठीक करना चाहेंगे ?
इसमें सबसे बड़ी बात यह थी कि मैं यह तय नहीं कर पाया कि मुझे अभिनेता बनना है या नहीं। शायद मुझमें इतना साहस नहीं था। मेरे माता-पिता ने भी मना कर दिया था कि वे मुझे नाटक (Drama) करने के लिए पैसे नहीं देंगे। मुझे लगता है कि मुझे थोड़ा ठहरकर थिएटर करना चाहिए था और मुझमें इतना हौसला होना चाहिए था ताकि मैं थिएटर को जारी रख पता ।
मेरा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) में चयन लगभग हो गया था। उस समय शांता गांधी वहाँ की चेयरपर्सन थीं। और मेरा इंटरव्यू था वहां, लेकिन मैं किसी तरह अपना डायलॉग भूल गया। तब शांता गांधी ने कहा कि “तुम हरियाणा के हो, तो कोई हरियाणवी डायलॉग सुनाओ।” मैंने हरियाणवी में डायलॉग बोला और वे प्रभावित हो गईं। उन्होंने कहा, “देखो अनिल गांधी, मैं तुम्हें एक मौका और देती हूँ। तुम जाओ, अपनी लाइनें याद करो और कल फिर आओ। तुम्हारे अंदर एक अच्छा कलाकार है।”
लेकिन उसी शाम ख़बर आई कि सिविल सर्विसेज परीक्षा की उम्र सीमा बढ़ा दी गई है। तब मैंने सोचा कि मुझे एक और मौका मिला है, तो क्यों न मैं इसकी कोशिश करूँ। इसलिए मैं अगले दिन इंटरव्यू देने नहीं गया।
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि मुझमें इतना साहस होना चाहिए था कि मैं कहता — “नहीं, मुझे तो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ही जाना है।” ऐसे मौके ज़िंदगी में बहुत कम मिलते हैं, और अब महसूस होता है कि मुझे अपने जुनून (Passion) को ही अपनाना चाहिए था।
आप विदेश में भी रहे है तो आपको वहां की कौन सी बात सही या ग़लत लगी इंडिया के हिसाब से ?
मैं कई बार विदेश गया हूँ क्योंकि मेरे बच्चे वहाँ रहते हैं। जब कोई व्यक्ति विदेश जाता है 4-5 दिनों के लिए तब वह वहां घूमने या पर्यटन के लिए जाता है। ऐसे में लोग कुछ प्रसिद्ध जगहें देखते हैं, तस्वीरें खिंचवाते हैं, लेकिन उस शहर या वहाँ के कल्चर को करीब से नहीं जान पाते है।
मैं जब कई बार विदेश गया, तो मैंने महसूस किया कि वहाँ के लोग बहुत सभ्य होते हैं। हमें भी वैसा ही सभ्य बनना चाहिए। उदाहरण के तौर पर समझिए — जब आप वहाँ सड़क पर चलते हैं, तो शायद ही कभी हॉर्न की आवाज़ सुनाई देती है। लेकिन हमारे यहाँ तो ऐसा लगता है कि हॉर्न बजाना हमारी “नेशनल हॉबी” बन गई है।
वहाँ के लोगों में सिविक सेंस (Civic Sense) बहुत अच्छी होती है, और हमें भी उसे अपनाना चाहिए। मुझे सबसे ज़्यादा दुख तब होता है जब हमारे देश के लोग, खासकर नौजवान, विदेश से लौटकर आते हैं और यहाँ आकर सब कुछ भूल जाते हैं, जैसे कि “civic sense” नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं है। मुझे लगता है कि हमें विदेशों से ये एक चीज़ ज़रूर अपनानी चाहिए।
आप आज के बढ़ते कलाकार से क्या कहना चाहेंगे जो सपने देखते है ?
आज-कल के जो युवा अभिनेता बनना चाहते हैं, वे सिर्फ अभिनय करना चाहते हैं या फिर सीधे किसी एक्टिंग स्कूल में चले जाते हैं। लेकिन सबसे पहली बात यह है कि उन्हें साहित्य के बहुत करीब रहना चाहिए। क्योंकि लेखक ने जो लिखा है, उसमें उसके पात्रों के भाव, उनकी भूमिका और उनका व्यक्तित्व शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त होता है। जब आप साहित्य पढ़ते हैं, तो आपके मन में एक कल्पना बनती जाती है। जितना अधिक आप साहित्य पढ़ेंगे, उतना ही आप अपनी क्रिएटिव जर्नी में आगे बढ़ेंगे। तो पहली ज़रूरी चीज़ है साहित्य से जुड़ाव। दूसरी बात यह है कि आप आईने के सामने देखें कि आप किस तरह के रोल में फिट बैठते हैं, क्योंकि यह बात आपसे बेहतर कोई नहीं जानता। और तीसरी बात ये है कि आवाज़ में मॉड्युलेशन बहुत जरूरी है। यह तभी आएगा जब आप अलग-अलग तरह के डायलॉग पढ़ेंगे और अभ्यास करेंगे।
सर,आप अपने लाइफ को एक लाइन में डिस्क्रिबे करें ?
मैं अपने जीवन से काफी संतुष्ट रहा हूँ।
"वक़्त मिला तो तेरी ज़ुल्फ़ो को सुलझाऊंगा अभी तो उलझा हूँ अपने वक़्त को सुलझाने में"—अनिल गाँधी
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