सन 1943 का समय था। महाराष्ट्र के सांगली ज़िले के भवानी नगर थाने में एक अजीब दृश्य देखने को मिला। थाने के कमरे में एक आदमी नशे में धुत होकर अपनी पत्नी को बुरी तरह पीट रहा था। गालियाँ, चीखें और शोर से माहौल बेहद तनावपूर्ण था। अचानक, उसने एक बड़ा पत्थर उठाकर धमकी दी, "मैं तुम्हें इसी पत्थर से मार डालूँगा!" बाहर खड़े दो पुलिस वाले यह सुनकर भीतर आ गए, लेकिन उन्होंने कुछ करने के बजाय दोनों को सुलह कराने की कोशिश शुरू कर दी। वहां मौजूद एक महिला थी हौसा बाई पाटिल (Hausa Bai Patil) और यह सारा नज़ारा, दरअसल, एक सोची-समझी योजना का हिस्सा था।
हौसा बाई के साथ मौजूद "पति" और "भाई" वास्तव में उनके साथी क्रांतिकारी थे। पुलिस (Dodging the Police) को बाहर निकालने और उनका ध्यान भटकाने के लिए यह पूरा ड्रामा रचा गया था। पुलिस जैसे ही झगड़ा सुलझाने में लगी, बाहर हौसा बाई (Hausa Bai Patil) के बाकी साथियों ने थाने पर धावा बोल दिया। उन्होंने वहाँ से चार बंदूकें और कारतूस लूट लिए और फौरन फरार हो गए। उस समय हौसा बाई की उम्र महज़ 17 साल थी, शादी को तीन साल हो चुके थे और एक बच्चा भी था। लेकिन वो पहले ही तूफ़ान सेना की सक्रिय सदस्य बन चुकी थीं।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सतारा ज़िले में प्रति सरकार नाम का एक स्वतंत्र संगठन उभरा। इसका मुख्यालय कुंदल में था और इसके अंतर्गत 600 से अधिक गाँव आते थे जिन्होंने ब्रिटिश राज की अधीनता मानने से इनकार कर दिया था। 'तूफ़ान सेना' (Toofan Sena) इसी प्रति सरकार की सशस्त्र इकाई थी। उनका काम था पुलिस थानों से हथियार लूटना, अंग्रेज़ अफ़सरों के ठहरने वाले डाक बंगलों में आग लगाना, ब्रिटिश ट्रेनों पर हमला कर सरकारी धन लूटना, यह पैसा गरीबों और आंदोलन को चलाने में लगाना। तूफ़ान सेना (Toofan Sena) रेलवे ट्रैक पर बड़े पत्थर रखकर ट्रेन रोकती थी। ट्रेन के आगे और पीछे दोनों तरफ पत्थर रख दिए जाते थे ताकि वह हिल भी न सके। हथियार के नाम पर उनके पास लाठी, हँसिया और हाथ से बने बम होते थे। एक बार उन्होंने इसी तरीके से ट्रेन रोककर पाँच लाख 51 हज़ार रुपये लूटे जो उस दौर में बहुत बड़ी रकम थी। यह सारा पैसा आंदोलन और गरीबों की मदद में लगा दिए गए।
हौसा बाई (Hausa Bai Patil) का जन्म 12 फरवरी 1926 को हुआ। जब वह तीन साल की थीं, तभी उनकी माँ का निधन हो गया था। उनके पिता पहले ही ज्योतिबा फुले और गांधीजी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद चुके थे। उन्होंने गाँव के लेखपाल की नौकरी छोड़ दी और अंग्रेज़ी राज के खिलाफ़ काम करने लगे। लेकिन अंग्रेज़ सरकार उन्हें पकड़ नहीं पाई, तो हौसा बाई की सारी संपत्ति ज़ब्त कर ली। परिवार के पास रहने के लिए केवल एक छोटा कमरा बचा, खेत भी कुर्क कर लिए गए। गाँव के लोग डर के मारे उनसे बात तक नहीं करते थे। नमक तक कोई नहीं देता था, और उनका परिवार गूलर की सब्जी खाकर गुज़ारा करता था।
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ग़रीबी इतनी थी कि हौसा बाई की दादी के पास नया कपड़ा तक नहीं था। उन्होंने बेटे की पुरानी लुंगी फाड़कर उससे दो सफ़ेद ब्लाउज़ बना लिए और आज़ादी मिलने तक वही पहनती रहीं। यह परिवार की त्याग और सादगी का प्रतीक बन गया।
1944 में हौसा बाई को गोवा मिशन में भेजा गया। उनके एक साथी, बाल जोशी, पुर्तगाली पुलिस के हाथ लग गए थे। हौसा बाई अपनी बहन बनकर उनसे जेल में मिलीं। उन्होंने भागने की योजना एक कागज़ पर लिखी, उसे अपने जूड़े में छुपाया और उनके पास पहुँचा दिया। इसके बाद उन्हें हथियार लेकर गोवा से सतारा लौटना था, लेकिन रेल से नहीं क्योंकि पुलिस उन्हें पहचान चुकी थी। वह और उनके साथी घने जंगलों से पैदल चलते हुए माँडवी नदी के किनारे पहुँचे। वहां नाव नहीं थी, नदी चौड़ी थी, और रात का अँधेरा था। तभी उन्हें मछली के जाल में फंसा एक लकड़ी का बक्सा मिला। हौसा बाई उस पर पेट के बल लेट गईं और साथी तैरते हुए उन्हें सहारा देते रहे। ऐसे ही उन्होंने नदी पार की और 13 दिन पैदल चलकर घर पहुँचीं। कुछ समय बाद, बाल जोशी भी जेल से भाग निकले, उसी कागज़ की मदद से जो हौसा बाई ले गई थीं।
थाने और गोवा मिशन से पहले, हौसा बाई (Hausa Bai Patil) का मुख्य काम ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना था, किस डाक बंगले में कितने पुलिस वाले हैं, कब आते-जाते हैं, और कब हमला आसान होगा। डाक बंगले अंग्रेज़ी प्रशासन का अहम हिस्सा थे, और उन्हें जलाना आंदोलन की रणनीति में जरूरी था। हौसा बाई ने 1943 से 1946 तक क्रांतिकारियों के लिए काम किया, पर स्वतंत्रता के बाद उनका नाम इतिहास में लगभग गुम हो गया। 23 सितंबर 2021 को 95 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ। महाराष्ट्र के कुछ इतिहास ग्रंथों में प्रति सरकार का हल्का-सा ज़िक्र है, लेकिन तूफ़ान सेना (Toofan Sena) और हौसा बाई जैसी नायिकाओं का योगदान भुला दिया गया।
हौसा बाई (Hausa Bai Patil) केवल हथियार उठाने वाली योद्धा नहीं थीं, वो साहस, बुद्धिमानी और बलिदान की मिसाल थीं। चाहे पिटाई का नाटक करके थाने से हथियार लुटवाना हो, नदी पार करके मिशन पूरा करना हो या ग़रीबी में भी आंदोलन के लिए खड़ी रहना, उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि आज़ादी सिर्फ़ रैलियों और भाषणों से नहीं, बल्कि जान की बाज़ी लगाकर लड़ी जाती है। [Rh/PS]