प्राचीन भारत में सेक्स और सेक्स एजुकेशन (Sex Education) को कभी भी शर्म की नज़र से नहीं देखा जाता था। कामासूत्र (Kamasutra), जिसे आचार्य वात्स्यायन ने तीसरी-चौथी शताब्दी में लिखा, केवल शारीरिक संबंध बनाने के तरीकों की किताब नहीं थी, बल्कि यह रिश्ते, प्रेम और आनंद को गहराई से समझने का ज़रिया था। इसमें काम को जीवन के चार मुख्य लक्ष्यों में से एक माना गया था।
इसी सोच को हम भारतीय मंदिरों की दीवारों पर बनी मूर्तियों में भी देखते हैं। मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के खजुराहो मंदिर, ओडिशा (Odisha) के कोणार्क सूर्य मंदिर और कर्नाटक (Karnataka) के वीरुपाक्ष मंदिर की दीवारों पर बनी मूर्तियों स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि उस समय यौन संबंध और कामुकता जीवन का प्राकृतिक हिस्सा माने जाते थे। यह मूर्तियाँ अश्लील नहीं बल्कि जीवन की ऊर्जा, उर्वरता और ईश्वर से जुड़ाव का प्रतीक थी।
समय के साथ भारत में बाहरी आक्रमण और शासकों के असर से समाज की सोच बदलने लगी।मुग़ल काल में पर्दा प्रथा और औरतों को घर की चारदीवारी में सीमित करने की परंपरा प्रचलित हुई। हालांकि शाही दरबारों में इश्क और शृंगार पर कविता और कला भी होती रही, लेकिन समाज में औरतों की आज़ादी कम होने लगी।
फिर आए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक, जिन्होंने विक्टोरियन नैतिकता के नाम पर भारत की कामुक संस्कृति को “अश्लील” और “अनैतिक” कहकर दबाने की कोशिश की। भारतीय दंड संहिता 1860 में “अनैसर्गिक यौन कृत्यों” को अपराध घोषित किया गया। मंदिरों की मूर्तियों को छुपाया गया और सेक्स पर चर्चा को अपवित्र मान लिया गया। धीरे-धीरे भारतीय समाज ने भी इन विचारों को आत्मसात कर लिया और सेक्स के बारे में खुलकर बात करना बंद कर दिया।
क्यों बना सेक्स टैबू?
यही वजह है कि आज भी भारत (India) में सेक्स को लेकर खुलकर बात करना मुश्किल लगता है। जो विषय कभी मंदिरों और ग्रंथों में गर्व से दिखाए जाते थे, वे आज घरों, स्कूलों और समाज में छुपा दिए गए हैं।
सेज जर्नल में प्रकाशित शोध बताता है कि यह चुप्पी आज भी महिलाओं के शरीर, एलजीबीटीक्यू+ पहचान और प्रजनन अधिकारों पर गहरी पाबंदियाँ डालती है। सेक्स को स्वाभाविक मानने के बजाय उसे छुपाने और नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है।
सेक्स एजुकेशन की चुनौतियाँ
आज जब दुनिया आगे बढ़ चुकी है, भारत में सेक्स एजुकेशन को लागू करना अब भी कठिन काम है। कई राज्य सरकारें सेक्स एजुकेशन के कार्यक्रमों को लागू करने से मना कर देती हैं। उनका मानना है कि यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और बच्चों को बिगाड़ देगा।
जहाँ-जहाँ यह पढ़ाया भी जाता है, वहाँ ज़्यादातर ध्यान केवल स्वच्छता या प्रजनन तक ही सीमित रहता है। ज़रूरी विषय जैसे सहमति (consent), रिश्तों की समझ, यौन हिंसा से बचाव,लैंगिक समानता और एलजीबीटीक्यू+ अधिकार को शामिल नहीं किया जाता। शिक्षक भी इस विषय को पढ़ाने में हिचकिचाते हैं क्योंकि समाज अब भी इसे शर्म का विषय मानता है।
यह कमी सीधे तौर पर युवाओं की ज़िंदगी पर असर डालती है। एनएफएचएस-5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे) के अनुसार, आज भी बहुत से युवाओं के पास एचआईवी/एड्स या यौन स्वास्थ्य से जुड़ी पूरी जानकारी नहीं है। इसके चलते असुरक्षित गर्भपात, एसटीआई (यौन संचारित रोग) और किशोरावस्था में गर्भधारण जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।
अगर भारत ने कभी कामासूत्र और खजुराहो जैसे मंदिर दुनिया को दिए, तो आज सेक्स पर बात करना शर्म की बात क्यों होनी चाहिए? असलियत यह है कि सेक्स को लेकर आज जो शर्म और चुप्पी है, वह भारत की मूल संस्कृति से नहीं बल्कि आक्रमणों और औपनिवेशिक प्रभावों से आई है।
आगे बढ़ने का रास्ता यही है कि भारत अपने इतिहास से सीखकर सेक्स एजुकेशन को अधिकार के रूप में स्वीकार करे। इसका मतलब है कि इसे स्कूलों में उम्र और स्तर के हिसाब से पढ़ाया जाए, शिक्षकों को सही प्रशिक्षण मिले, माता-पिता को भी जागरूक किया जाए और समाज में मिथकों और डर को तोड़ा जाए।
निष्कर्ष
भारत (India) का सफ़र, जहाँ कभी कमासूत्र और खजुराहो जैसी धरोहरें सेक्स और कामुकता को जीवन का सामान्य हिस्सा मानती थीं, वहीं आज के समय में यही विषय समाज में टैबू बन चुका है। लेकिन इस चुप्पी ने युवा पीढ़ी को नुकसान पहुँचाया है। असुरक्षित प्रथाएँ, जानकारी की कमी और हिंसा जैसे मुद्दों से बचने के लिए ज़रूरी है कि भारत सेक्स एजुकेशन को खुलेपन से अपनाए।
सेक्स एजुकेशन भारतीय संस्कृति का विरोध नहीं बल्कि उसका विस्तार है, एक ऐसा कदम जिससे हम अपने अतीत की खुली सोच को फिर से जागृत कर सकते हैं और भविष्य की पीढ़ी को सुरक्षित और जागरूक बना सकते हैं।
(Rh/BA)