दिल वालों का शहर कहे जाने वाली दिल्ली के नाम के पीछे की कहानी
दिल वालों का शहर कहे जाने वाली दिल्ली के नाम के पीछे की कहानी दिल्ली (IANS)
इतिहास

दिल वालों का शहर कहे जाने वाली दिल्ली के नाम के पीछे की कहानी

Prashant Singh

दिल्ली, भारत की राजधानी होने के साथ-साथ दुनिया के प्रमुख मेट्रोपॉलिटन शहरों के श्रेणी में शुमार है। दिल वालों की दिल्ली कही जाने वाली ये नागरी अपने नाम के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी छिपाए बैठी हुई है।

कई वसंतों को देख चुकी दिल्ली ने अपना ये नाम कैसे प्राप्त किया, इसकी कई कहानियाँ प्रचलित हैं। इन विभिन्न कहानियों में से एक कहानी खंभे की है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि इस खंभे से ही दिल्ली का नाम आया है।

कई कहानियों को खंगालते हुए यह पता चलता है कि आखिर दिल्ली का नाम दिल्ली ही कैसे फाइनल हुआ।

इतिहास के पन्नों को तबीयत से खंगालने पर पता चलता है कि दिल्ली की राजगद्दी ने कई सम्राटों को अपने आप पर आसीन किया है। और इसी क्रम में इन अलग-अलग कालों में खांडवप्रस्थ से दिल्ली बनने तक का सफर कई पड़ावों से होकर गुजरा, जिसमें इस शहर ने कई बार अपने नाम के कई नए-नए कलेवर ओढ़े हैं। करीब 3500 साल पहले इस खांडवप्रस्थ को पांडवों के हिस्से दिया गया तब इसे एक राजधानी के रूप में बसाते हुए इसका नामकरण इंद्रप्रस्थ हुआ।

एक बहुचर्चित चैनल की दिल्ली पर आधारित डॉक्यूमेंट्री से पता चलता है कि इस शहर का नाम 800 BC से बदलना शुरू हुआ। कहा जाता है कि 800 BC में कन्नौज के गौतम वंश के राजा ढिल्लू ने इंद्रप्रस्थ पर कब्जा कर लिया था। कहा जाता है कि इसी राजा के नाम पर दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ से डिल्लू हो गया। रिपोर्ट से ही पता चलता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश में इस बात की जानकारी दी है। कहते हैं यही ढिल्लू नाम बदलते-बदलते ढिली, देहली, दिल्ली और अंततः देल्ही हो गया।

ये तो थी एक कहानी है पर एक कहानी खंबे की भी है। आइए जानते हैं, क्या है यह खंबे की कहानी?

जिस डॉक्यूमेंट्री की बात ऊपर काही गई, उसी में यह भी बताया गया है कि मध्यकालीन युग में (1052 AD) तोमर वंश के राजा आनंगपाल-2 को दिल्ली की स्थापना के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि उस समय इस शहर का नाम ढिल्लिका था। ढिल्लिका नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। इस कहानी में बताया गया है कि ढिल्लिका में राजा के किले में एक लौह स्तंभ खड़ा था और एक पंडित ने इस स्तम्भ के लिए कहा था कि जब तक यह लौह स्तंभ ऐसे ही रहेगा, तब तक तोमर वंश का राज कायम रहेगा।

बताया जाता है कि राजा ने इस खुदवाने का निर्णय लिया और जब इसे खोदा गया तो पता चला कि ये लौह स्तंभ सांपों के खून में धंसा हुआ है। इसके बाद फिर से इसे वापस वहीं लगा दिया। पर मान्यता है कि ये खंभा पहले की तरह मजबूती से स्थापित नहीं हो पाया और ये ढीला रह गया। और इसी ढीले खंबे की वजह से इसका नाम ढिली या ढिलिका पड़ गया। चंद बरदाई की प्रसिद्ध कविता पृथ्वीराज रासो में इस घटना का जिक्र करते हुए चंद ने बताया था कि यह तोमर वंश की सबसे बड़ी गलतियों में से एक गलती है।

पर अब अगर इतिहासकारों की बात करें तो, कहानी थोड़ी अलग पाएंगे। क्योंकि इतिहासकार तथ्यों पर आधारित निर्णय देते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि यह शब्द फारसी शब्द दहलीज या देहली से निकला है, जिसका मतलब है दहलीज, अर्थात गेटवे। कहा जाता है कि यह गंगा के तराई इलाकों का गेट है और इस वजह से इसका नाम दिल्ली होना संभव है।

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