Passing Marks: देश के अलग-अलग राज्य के एजुकेशन बोर्ड 10वीं और 12वीं के बोर्ड एग्जाम्स के रिजल्ट्स घोषित कर रहे हैं। व्यवस्था के आधार पर जो स्टूडेंट कम से कम 33 फीसदी अंक हासिल कर लेता है, उसे परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। इस बार ज्यादातर स्टेट बोर्ड्स के एग्जाम्स में लड़कियों ने बाजी मारी है। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत में प्राइमरी और सेकेंडरी एग्जाम्स में पासिंग मार्क्स दुनिया में सबसे कम हैं। भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में पासिंग पर्सेंटेज सभी राज्यों में 35-40 फीसदी के बीच है।
भारत में स्कूलों में न्यूनतम उत्तीर्ण प्रतिशत बहुत कम माना जाता है। यह देश में उच्च शिक्षा प्रणाली में बिल्कुल उलटा है। अगर दिल्ली विश्वविद्यालय की ही बात करें तो किसी भी अच्छे कॉलेज में एडमिशन के लिए कट-ऑफ 95% से 100% रहती है, जो देश अपनी आबादी को जल्दी साक्षर बनाना चाहते हैं, वो कम उत्तीर्ण अंक की रणनीति अपनाते हैं।
1858 में गुलामी के दौरान भारत में ब्रिटेन ने ही पहली मैट्रिक परीक्षा आयोजित की थी। उस समय ब्रिटेन में न्यूनतम 65 फीसदी अंक पाने वाला ही उत्तीर्ण होता था। इसके बाद भी ब्रिटेन के अधिकारियों ने भारतीयों के लिए उत्तीर्ण अंक 33 फीसदी निर्धारित किए क्योंकि ब्रिटिश शासकों का मानना था कि भारतीय उनके मुकाबले केवल आधे बुद्धिमान ही हो सकते हैं। लेकिन अंग्रेजो के जाने के बाद भी हम उत्तीर्ण अंकों के मामले में ब्रिटेन की शुरू की गई व्यवस्था को आज तक चलाते हुए आ रहे हैं। वो भी तब, जब भारत तकनीकी क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान गढ़ रहा है।
जर्मन ग्रेडिंग प्रणाली ग्रेड प्वाइंट एवरेज पर आधारित है। यह 1 से 6 या 5 प्वाइंट ग्रेडिंग प्रणाली है, जहां 1- 1.5 (भारतीय प्रणाली में 90-100%) ‘बहुत अच्छा’ है और 4.1- 5 ( भारतीय प्रणाली में 0-50%) ‘पर्याप्त नहीं’ है। चीन में स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय या तो 5 स्केल या 4 स्केल ग्रेडिंग प्रणाली का पालन करते हैं। फाइव स्केल ग्रेडिंग प्रणाली में 0 से 59 फीसदी तक अंक पाने वाले छात्रों को एफ ग्रेड दिया जाता है, ग्रेड डी दर्शाता है कि छात्र असफल हो गए हैं। शून्य से 59 फीसदी के बीच अंक पाने वाले छात्रों को डी दिया जाता है।