जो भाषा हमारे दिलों से जुड़ी है, वही हमारे अपने लोग क्यों भूलते जा रहे हैं? [Sora Ai] 
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क्यों हिंदी अपना महत्व खोती जा रही है?

हिंदी, जो हमारे देश की आत्मा कही जाती है, आज धीरे-धीरे अपनी चमक खोती जा रही है। कभी जो भाषा घर-घर में बोली जाती थी, अब वह आधुनिकता की दौड़ में कहीं पीछे छूटती नजर आ रही है। आज के समय में अंग्रेज़ी को ही बुद्धिमानी और तरक्की की निशानी माना जाने लगा है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

हिंदी, जो हमारे देश की आत्मा कही जाती है, आज धीरे-धीरे अपनी चमक खोती जा रही है। कभी जो भाषा घर-घर में बोली जाती थी, अब वह आधुनिकता की दौड़ में कहीं पीछे छूटती नजर आ रही है। आज के समय में अंग्रेज़ी को ही बुद्धिमानी और तरक्की की निशानी माना जाने लगा है। स्कूल हो या दफ्तर, लोग हिंदी बोलने में संकोच महसूस करते हैं, जैसे यह भाषा पुरानी या पिछड़ी हुई हो। सोचने वाली बात यह है कि जो भाषा हमारे दिलों से जुड़ी है, वही हमारे अपने लोग क्यों भूलते जा रहे हैं? क्या हिंदी में भावनाएं कम हैं? क्या यह ज्ञान देने में कमजोर है? बिलकुल नहीं! हिंदी में वो ताकत है जो दिलों को जोड़ सकती है, विचारों को व्यक्त कर सकती है और एकता को मजबूत कर सकती है। लेकिन आज का युवा वर्ग, सोशल मीडिया और शिक्षा प्रणाली के प्रभाव में आकर हिंदी से दूर होता जा रहा है। हमें समझना होगा कि अपनी भाषा से दूरी, अपनी पहचान से दूरी है। यही सवाल उठता है क्या हम हिंदी को उसका असली स्थान फिर से दिला पाएंगे?

हमें समझना होगा कि अपनी भाषा से दूरी, अपनी पहचान से दूरी है। [Pixabay]


क्या है हिंदी भाषा का इतिहास ?

हिंदी का इतिहास (History of Hindi) बेहद समृद्ध रहा है। इसकी जड़ें संस्कृत से जुड़ी हैं। हिंदी का प्रारंभिक रूप अपभ्रंश कहलाता था, जो बाद में अवधी, ब्रज, और अंत में खड़ी बोली के रूप में विकसित हुआ। खड़ी बोली ही आज की आधुनिक हिंदी का आधार बनी। भक्तिकाल के कवियों जैसे तुलसीदास, कबीर, सूरदास ने हिंदी को जन-जन तक पहुँचाया। 1949 में संविधान सभा ने हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित किया। यह भाषा न केवल भावना की, बल्कि क्रांति, शिक्षा और संस्कृति की भी भाषा रही है।

हिंदी का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है। [Sora Ai]


हिंदी भाषा का महत्व कम होने का क्या है कारण?

आज के समय में हिंदी भाषा का महत्व धीरे-धीरे इसलिए कम हो रहा है (The importance of Hindi is gradually decreasing) क्योंकि समाज में अंग्रेज़ी को एक ऊँचे दर्जे की भाषा माना जाने लगा है। लोग सोचते हैं कि अगर किसी को अंग्रेज़ी अच्छे से आती है, तो वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा और समझदार है। यही सोच लोगों को हिंदी से दूर कर रही है। स्कूल और कॉलेज में बच्चों को शुरू से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाया जाता है। यहाँ तक कि कई माता-पिता अपने बच्चों से हिंदी में बात करने से भी कतराते हैं। उन्हें लगता है कि इससे बच्चे पिछड़ जाएंगे।

सोशल मीडिया, टीवी, औरइंटरनेट पर भी अंग्रेज़ी का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। युवा वर्ग विदेशी शब्दों और भाषा को "कूल" और "स्टाइलिश" मानता है। [Sora Ai]

इसके अलावा, सोशल मीडिया, टीवी, औरइंटरनेट पर भी अंग्रेज़ी का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। युवा वर्ग विदेशी शब्दों और भाषा को "कूल" और "स्टाइलिश" मानता है। उन्हें लगता है कि हिंदी बोलने से वे पुराने ज़माने के लगेंगे। शिक्षा प्रणाली, समाज की सोच, और आधुनिक जीवनशैली ये सभी मिलकर हिंदी को पीछे ढकेल रहे हैं। जब तक हम इस सोच को नहीं बदलते, तब तक हिंदी को उसका सम्मान वापस दिलाना मुश्किल होगा।

भाषा पर राजनीति, राज्यों के झगड़े और आम लोगों की उलझन

हिंदी भाषा का महत्व सिर्फ शिक्षा या बोलचाल से नहीं घट रहा है, बल्कि इसके पीछे एक राजनीतिक खेल और क्षेत्रीय असमानता भी छिपी है। भारत जैसे विशाल और विविधताओं वाले देश में, जहाँ हर राज्य की अपनी भाषा और पहचान है, वहाँ हिंदी को लेकर एक संतुलन बनाना हमेशा चुनौती रहा है। कई दक्षिण भारतीय राज्यों, जैसे तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश में हिंदी को "थोपी गई भाषा" माना जाता है। वहाँ लोग अक्सर कहते हैं कि हिंदी को राजभाषा तो बना दिया गया, लेकिन यह राष्ट्रभाषा नहीं है और इसे सभी पर थोपा नहीं जाना चाहिए। इस सोच का असर यह हुआ कि हिंदी को स्वीकार करने के बजाय विरोध का रूप मिलने लगा। दूसरी ओर, उत्तर भारत के लोग, जहाँ हिंदी मुख्य भाषा है, ये महसूस करते हैं कि उनकी भाषा को अब भी वह सम्मान नहीं मिला जो एक राजभाषा को मिलना चाहिए। सरकारी नौकरियों, UPSC जैसी परीक्षाओं और उच्च शिक्षण संस्थानों में आज भी अंग्रेज़ी को ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है।

हिंदी भाषा का महत्व सिर्फ शिक्षा या बोलचाल से नहीं घट रहा है, बल्कि इसके पीछे एक राजनीतिक खेल और क्षेत्रीय असमानता भी छिपी है। [Sora Ai]


राजनीतिक पार्टियाँ भी भाषाओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं। कहीं हिंदी को "राष्ट्र की एकता का प्रतीक" कहा जाता है, तो कहीं इसे "एक भाषा का जबरदस्ती थोपा जाना" बताया जाता है। यह दोगली नीति भाषा को एकजुट करने के बजाय और ज्यादा बांट देती है। इस सबके बीच आम जनता फँस जाती है। कोई हिंदी बोलने में शर्म करता है, कोई हिंदी सीखना ही नहीं चाहता, और कोई ये सोचता है कि भाषा से बड़ा पेट भरना है चाहे वो किसी भी भाषा में

हिंदी का पतन कब और कैसे शुरू हुआ?

लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति (1835) [Wikimedia Commons]

हिंदी का पतन कोई अचानक हुई घटना नहीं है। इसका आरंभ ब्रिटिश काल में हुआ, जब लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति (1835) के तहत अंग्रेज़ी को शिक्षा और प्रशासन की भाषा बना दिया गया। धीरे-धीरे हिंदी को कमजोर किया जाने लगा। आज़ादी के बाद उम्मीद थी कि हिंदी को प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन अंग्रेज़ी का वर्चस्व बरकरार रहा। फिर आया टीवी, सिनेमा और इंटरनेट का युग, जिसमें अंग्रेज़ी को "स्टाइल" और "स्मार्टनेस" का प्रतीक बना दिया गया। हिंदी अब भी जीवित है, लेकिन हर दिन अपनी जगह खो रही है हमारे बोलचाल, हमारी सोच और हमारे समाज में।


युवा पीढ़ी की नज़र में हिंदी का क्या है स्थान?

आज की युवा पीढ़ी दो हिस्सों में बँटी हुई है। एक हिस्सा वो है जो मानता है कि करियर में आगे बढ़ने के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है, और हिंदी सिर्फ घर या स्कूल तक सीमित रह गई है। उन्हें लगता है कि हिंदी बोलना "देसी" या "गाँव वाला" बनने जैसा है। वहीं दूसरा हिस्सा ऐसे युवाओं का है जो अपनी जड़ों से जुड़ना चाहते हैं। वे हिंदी में वीडियो बना रहे हैं, लेख लिख रहे हैं, पॉडकास्ट चला रहे हैं और हजारों लोगों से जुड़ भी रहे हैं। आज सोशल मीडिया पर हिंदी कंटेंट तेजी से बढ़ रहा है। यह दिखाता है कि अगर भाषा को सही मंच मिले, तो युवा उसे अपनाने से हिचकिचाते नहीं।

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हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं, यह हमारी पहचान है। अगर हम इसे खुद ही नजरअंदाज करेंगे, तो दुनिया से क्या उम्मीद करें? अंग्रेज़ी सीखना ज़रूरी है, लेकिन हिंदी को छोड़ना ज़रूरी नहीं। हमें चाहिए कि हम अपने घर, स्कूल, ऑफिस और सोशल मीडिया में हिंदी को सम्मान दें। जब हम खुद हिंदी को अपनाएँगे, तभी आने वाली पीढ़ी भी इससे जुड़ पाएगी। हिंदी को बचाना कोई आंदोलन नहीं, बल्कि हमारी जिम्मेदारी है। [Rh/SP]

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