हिंदी भाषा क्यों नहीं बन पाई एक संपर्क की भाषा?

भारत एक बहुभाषी (Multilingual) देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें हिंदी सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, इसलिए अक्सर इसे संपर्क भाषा यानी लिंक लैंग्वेज (Link Language) माना जाता है।
भारत एक बहुभाषी (Multilingual) देश है [Sora Ai]
भारत एक बहुभाषी (Multilingual) देश है [Sora Ai]
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भारत एक बहुभाषी (Multilingual) देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें हिंदी सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, इसलिए अक्सर इसे संपर्क भाषा यानी लिंक लैंग्वेज (Link Language) माना जाता है। लेकिन दक्षिण भारत की स्थिति अलग है। यहाँ की प्रमुख भाषाएँ तमिल (Tamil), तेलुगु (Telugu), कन्नड़ (Kannada) और मलयालम (Malayalam) न सिर्फ़ पुरानी और समृद्ध हैं, बल्कि इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में है। हिंदी का प्रभाव यहाँ उतना नहीं है जितना उत्तर भारत में है। यही कारण है कि दक्षिण भारत हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया।

अब स्थिति कुछ ऐसी है कि दक्षिण भारत में हिंदी भाषा को लेकर एक आंदोलन या विरोध देखने को मिलता है। दक्षिण भारत की इस भाषा अस्वीकृति के पीछे केवल भाषा का सवाल नहीं, बल्कि संस्कृति, राजनीति और पहचान भी गहराई भी छुपी हुई है। तो आइए जानतें है कि भारत की धरती से जन्मी हिंदी भाषा जो पूरी दुनिया पर अपना प्रभाव बना रही है वह खुद भारत में ही क्यों विरोध का सामना कर रही है ?

दक्षिण भारत की है अपनी भाषा

दक्षिण भारत की भाषाएँ बेहद प्राचीन हैं और उनकी जड़ें द्रविड़ भाषाओं में मिलती हैं। तमिल भाषा (Tamil Language) को तो दुनिया की सबसे पुरानी जीवित भाषाओं में गिनी जाती है, जिसकी अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है। तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम का भी लंबा और समृद्ध इतिहास है। यहाँ के लोग अपनी भाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि अपनी पहचान और गौरव से जोड़कर देखते हैं। इसलिए जब हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में आगे लाने की बात होती है, तो उन्हें लगता है कि यह उनकी भाषाओं और संस्कृति को दबाने का प्रयास है।

दक्षिण भारत की भाषाएँ बेहद प्राचीन हैं और उनकी जड़ें द्रविड़ भाषाओं में मिलती हैं। [Pixabay]
दक्षिण भारत की भाषाएँ बेहद प्राचीन हैं और उनकी जड़ें द्रविड़ भाषाओं में मिलती हैं। [Pixabay]

अपनी मातृभाषा को सुरक्षित रखने और सम्मानित करने की भावना ही दक्षिण भारत के लोगों को हिंदी स्वीकार करने से रोकती है। ये आंदोलन या विरोध आज का नया नहीं है बल्कि सदियों से यह विरोध देखने को मिलता है ऐसा कहा जाता है कि तमिल भाषा जो की सबसे पुरानी जीवित भाषा है उसे भारत की राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करना ही दक्षिण भारत के लोगों को नाराज करता है। अब चाहे वजह जो भी हो मौजूदा स्थिति यह है कि जिस भाषा को पूरी दुनिया आज शान के साथ अपना रही है सीख रही है वही भाषा भारत में विरोध का सामना कर रही है।

भाषा पर टकराव की क्या है कहानी?

भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि राजनीति का भी हिस्सा है। आज़ादी के बाद जब हिंदी को “राजभाषा” बनाने का प्रस्ताव रखा गया, तो दक्षिण भारत में भारी विरोध हुआ। 1965 में तो तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन हुआ, जिसमें छात्र और आम लोग सड़कों पर उतर आए। उनका कहना था कि हिंदी थोपने से उनकी मातृभाषा और पहचान खतरे में पड़ जाएगी। तब से राजनीति में यह मुद्दा ज़िंदा है। कई राजनीतिक दल चुनावों में “हिंदी थोपने का विरोध” करके समर्थन जुटाते हैं।

यही वजह है कि राजनीतिक दृष्टि से भी दक्षिण भारत हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करने से बचता रहा है। दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के द्वारा हिंदी का भारी विरोध देखने को मिलता है और वह खुले आम लोगों को हिंदी ना अपने और अपनी भाषा यानी कि तमिल तेलुगू मलयालम को बढ़ावा देने के पक्ष में बयान देते नजर आते हैं। यहां तक की दक्षिण भारत में कर्नाटक में रेलवे स्टेशन और अन्य कई सार्वजनिक स्थानों से हिंदी भाषा में लिखी हुई चीजों को मिटा दिया गया यह विरोध अब एक अलग सवाल पैदा करता है कि क्या भारत अब भाषा के आधार पर भी बंट जाएगा?

अंग्रेज़ी क्यों बन गई संपर्क भाषा?

अंग्रेज़ी का इस्तेमाल स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ़्तर और निजी कंपनियों में बड़े पैमाने पर होता है। [Sora Ai]
अंग्रेज़ी का इस्तेमाल स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ़्तर और निजी कंपनियों में बड़े पैमाने पर होता है। [Sora Ai]


जहाँ उत्तर भारत में हिंदी संपर्क भाषा का काम करती है, वहीं दक्षिण भारत में अंग्रेज़ी ने यह स्थान ले लिया। अंग्रेज़ी का इस्तेमाल स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ़्तर और निजी कंपनियों में बड़े पैमाने पर होता है। अंग्रेज़ी एक “तटस्थ भाषा” मानी जाती है क्योंकि यह किसी एक भारतीय राज्य की नहीं है। यही कारण है कि लोग इसे आसानी से अपनाते हैं और किसी क्षेत्रीय अस्मिता को खतरा भी महसूस नहीं होता। आईटी सेक्टर और ग्लोबल कंपनियों के आने के बाद अंग्रेज़ी का महत्व और बढ़ गया। नतीजतन, जहाँ हिंदी को लेकर विरोध रहता है, वहीं अंग्रेज़ी को दक्षिण भारत में सहजता से स्वीकार किया गया और यह वहाँ की संपर्क भाषा बन गई।

दक्षिण भारत का हिंदी के प्रति रवैया कैसा है?

आज की पीढ़ी पहले जैसी नहीं है। बहुत से युवा बॉलीवुड फिल्मों, टीवी सीरियल्स और सोशल मीडिया की वजह से हिंदी समझने और बोलने लगे हैं। लेकिन फिर भी, आधिकारिक और सामाजिक स्तर पर हिंदी को अपनाने में हिचक बनी हुई है। तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में लोग अभी भी अंग्रेज़ी और अपनी मातृभाषा को प्राथमिकता देते हैं। हाँ, पर्यटन, व्यापार और शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी का उपयोग बढ़ा है। इसका मतलब है कि व्यक्तिगत स्तर पर हिंदी की स्वीकार्यता है, लेकिन सामूहिक स्तर पर इसे संपर्क भाषा का दर्जा नहीं मिला है।

भारत जैसे विविधता वाले देश में यह सवाल हमेशा रहेगा कि संपर्क भाषा कौन हो? उत्तर भारत में यह भूमिका हिंदी निभाती है, जबकि दक्षिण भारत में अंग्रेज़ी आगे है। भविष्य में तकनीक और इंटरनेट के चलते भाषाओं के बीच दूरी कम हो रही है। हो सकता है आने वाले समय में हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों मिलकर संपर्क भाषा की भूमिका निभाएँ। लेकिन यह तभी संभव है जब हिंदी को “थोपी गई भाषा” की बजाय “विकल्प” के रूप में प्रस्तुत किया जाए। सम्मान और समानता के साथ ही लोग इसे अपनाएँगे।

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दक्षिण भारत हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में क्यों स्वीकार नहीं करता, इसका जवाब भाषा से ज़्यादा अस्मिता और सम्मान में छिपा है। यहाँ के लोग अपनी मातृभाषा और संस्कृति को बचाना चाहते हैं, इसलिए किसी दूसरी भाषा को अपने ऊपर प्राथमिकता देने को तैयार नहीं हैं। अंग्रेज़ी इसीलिए वहाँ स्वीकार हुई क्योंकि उसमें क्षेत्रीय अस्मिता का सवाल नहीं था। असल समाधान यही है कि हिंदी को विकल्प के रूप में बढ़ावा मिले और साथ ही हर भाषा का सम्मान किया जाए। भारत की ताकत उसकी भाषाई विविधता में है, और इसे बनाए रखना ही सही संतुलन है। [Rh/SP]

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