चूड़ी पूर्णिमा भारतवर्ष में मनाये जाने वाला एक प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है जिसे कीच के नाम से भी जाना जाता है। मास के मार्गशीर्ष की यह पूर्णिमा अपने साथ एक ख़ास महत्तव और अर्थ जोड़े हुए हैं। पूर्णिमा का ये त्योहार भी बाकि अन्य धार्मिक त्योहारों की भाँती अपने साथ एक मह्त्वपूर्ण धारणा लिए हुए हैं, जिसको लोग काफी उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं। यह त्योहार/पर्व अपने साथ समाज के एक विशेष समुदाय के लोगो को जोड़े हुए हैं जिन्हे समाज में " ट्रांसजेंडर " के नाम से पुकारा जाता है।
ट्रांसजेडर नाम सुनते ही समाज के लोगो में एक अलग प्रकार की छवि उभर कर सामने आती है जिन्हे अपनाने में उनकी या उनके परिवार से ज्यादा समाज के लोगो की राय को महत्व दिया जाता है। जहाँ २१वी शताब्दी में भी लोगो के अनुसार समाज में सिर्फ़ "आदमी और औरत" दो पहचान ही महत्व रखती है वहीं हिन्दू परम्परा में मनायें जाने वाला यह त्योहार समाज के बाकी लोगों को भी एक पहचान देता है जिनके अस्तित्व को देवी /देवता से जोड़ा गया है।
चूड़ी पूर्णिमा या कीच पूर्णिमा के नाम से प्रचलित यह त्योहार प्रमुख रूप से महाराष्ट्र में काफी मनाया जाता है। इस दिन देवी 'येल्लम्मा' की उपासना की जाती है। देवी येल्लम्मा का सौंदत्ती मंदिर भारत के कर्नाटक राज्य के सौंदत्ती शहर के जिला बेलगावी के पास एक पहाड़ी पर स्थित है, जो देवी रेणुका को समर्पित एक प्रसिद्ध और प्राचीन तीर्थस्थल है। महाराष्ट्र में ट्रांसजेंडर के एक विशेष समुदाय "जोगति समुदाय" द्वारा इस त्योहार को काफी अलग तरीके से मनाया जाता है। वे अपने आप को एक दुल्हन के परिधान में खुद को तैयार करते हैं जिसमे एक आम दुल्हन की तरह ही शादी के जोड़े में सजने - सवरने से लेकर खुद को चूड़ी, मंगलसूत्र और हार पहनाने तक की रीति रिवाज़ शामिल हैं।
माना जाता है की इस दिन ट्रांसजेंडर का समुदाय अपने आप को दुल्हन की तरह तैयार कर के देवी येलल्मा से शादी करने की परम्परा को निभाते हैं हालाँकि शादी वाले रात ही देवी/ देवता के निधन की बात को ऐतहासिक रूप से माना जाता है जिसकी वजह से उसी दिन ट्रांसजेंडर चूड़ियाँ तोड़कर एवं अपने छाती को नारियल और पत्थर से रगड़ कर अपने विधवा होने की रीती-रिवाज़ को पूरा करती है।
यह त्योहर ट्रांसजेंडर लोगों में शामिल "नारीत्व " की ऊर्जा को सबके सामने प्रकट करना है। यह उनके दुःख और उल्लास दोनों को दर्शाता है। यह त्योहार इन लोगो के क्रोध, भावनाओ को दबाये रखने से उमड़ते हुए बोझ एवं समाज में अपनी पहचान को सबके सामने प्रस्तुत करती हैं , वह क्रोध जो साल भर लोगो की आलोचना द्वारा उत्पन्न हुई है, वह आलोचना जिसने एक विशेष समुदाय के लोगो के लिए एक एक पल जीना मुश्किल कर रखा है।
ठीक इसी प्रकार का त्योहार तमिलनाडु में हिजड़ा समुदाय (अरावनी) द्वारा मनाये जाने वाला पर्व "कूंतवर" के नाम से जाना जाता हैं। इस त्योहार में देवता कूंतवर की उपासना की जाती है जिन्हे कृष्ण के एक रूप या महाभारत के पात्र अरावन से जोड़ा गया है। कूंतवर एशिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है जहाँ मुख्य रूप से ट्रांसजेंडर ( किन्नर) समुदाय के लोग भाग लेते हैं, जो भारत भर से आते हैं और अप्रैल-मई के महीनों में 18 दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में अपनी "विवाह" से जुड़ी रस्में निभाते हैं, जो भगवान अरावन (कृष्ण के पुत्र) से जुड़ा है।
यह त्योहार न केवल एक पर्व के रूप में मनाया जाता है बल्कि समाज में यह भी सन्देश देता है की जब एक विशिष्ठ समुदाय/धर्म के द्वारा पूजे जाने वाले देवी/देवता ने सभी लोगो को अपने नज़रों में समान माना है तो हम "मानव" लोगो के बीच में अंतर करने वाले कौन होते हैं।
(Rh/PO)