दीपावली का त्यौहार नजदीक आते ही बाजार में टेसू दिखाई देने लगते हैं आप सोच रहे होंगे कि यह टेसू क्या है सुनने में तो यह सामान जैसा लगता है लेकिन आपको बता दे कि यह कोई सामान नहीं है बल्कि एक त्यौहार है जिसे टेसू पूर्णिमा कहा जाता है। या ज्यादातर चंबल क्षेत्र में मनाया जाता है तो लिए टेसू पूर्णिमा के बारे में पूरी जानकारी लेते हैं।
दीपावली से पहले चंबल क्षेत्र में टेसू का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है इसकी तैयारी नवमी से ही शुरू हो जाती है और शरद पूर्णिमा पर इसे धूमधाम से मनाया जाता है। दशहरे से पूर्णिया तक लड़कों की टोलियां टेसू लेकर भीख मांगते हैं वहीं लड़कियों की तोलिया जिंजी लिए घर-घर घूमती है और गीत गाती है भीख मांगती हैं। इसके बाद दोनों की शादी की जाती है यही से शादियां शुरू हो जाती है। यानी मान्यता के अनुसार पहले टेसू और सांझी की शादी होती है और इसके बाद सहालग शुरू हो जाते ह
आचार्य प्रशांत शास्त्री बताते हैं की टिशु की उत्पत्ति और इस त्यौहार के आरंभ के संबंध में यह अनेक किंवदंतीयां प्रचलित है। कुंती को अविवाहित अवस्था में ही उसे दो पुत्र की प्राप्ति हुई थी जिसमें पहला पुत्र बाबरावाहान था जिसे कुंती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था पैदा होते ही सामान्य बालक से दुगनी रफ़्तार से बढ़ने लगा और कुछ साल बाद तो अपद्रव्य करना शुरू कर दिया। पांडव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा के कहने पर कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका गर्दन काट दिया। परंतु बब्बरावहन अमर था। फिर कृष्ण ने अपनी माया से सांझी को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह रचाया और उसे अपद्रव्य न करने का वादा लिया।
टेसू की मुख्य आकृति का ढांचा तीन लड़कियों को जोड़कर बनाया गया स्टैंड होता है। जिस पर बीच में दिया रखने का स्थान होता है गांव में जहां केवल टिशु का सर बनाया जाता है उसे पर गेरू पीली मिट्टी चुना और काजल से रंगे की जाती है कहीं टेसू की मुख्य कृति भयंकर राक्षस जैसी होती है तो कहीं साधारण मनुष्य जैसी।