2013 में देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे ज़बरदस्त जन आंदोलन के बाद लोगों ने उम्मीद की थी कि अब बदलाव होगा। यही उम्मीद लेकर लोकपाल (Lokpal) और लोकायुक्त अधिनियम को 18 दिसंबर 2013 को संसद में पास किया गया। लेकिन बारह साल बाद, जिस लोकपाल (Lokpal) से लोगों को भ्रष्टाचार(Corruption) के खिलाफ एक मज़बूत हथियार मिलने की उम्मीद थी, वह आज तक अपने मकसद में असफल साबित हो रहा है।
लोकपाल (Lokpal) को 2019 में आधिकारिक रूप से काम सौंपा गया था। तब से अब तक सैकड़ों शिकायतें सामने आईं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी 2024-25 के दौरान पाँच शिकायतें की गईं। लेकिन जांच के मामले में आंकड़े बेहद कमजोर हैं। अब तक मिले 620 अंतिम आदेशों में से सिर्फ 34 मामलों में जांच का आदेश दिया गया और सिर्फ 7 मामलों में अभियोजन की अनुमति दी गई है, वो भी ज़्यादातर निचले स्तर के बैंक कर्मियों या अफसरों के खिलाफ [1]। उच्च स्तर के राजनेताओं के खिलाफ जांच ना के बराबर रही है।
लोकपाल बना आंदोलन की उपज, लेकिन परिणाम कमजोर
लोकपाल (Lokpal) कानून 2011 के ऐतिहासिक अन्ना हज़ारे आंदोलन (Anna Movement) के कारण अस्तित्व में आया। उस आंदोलन में लाखों लोगों ने भाग लिया था और सरकार को मजबूर होना पड़ा था कि वह भ्रष्टाचार (Corruption)के खिलाफ कोई ठोस क़ानून बनाए। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी लोकपाल (Lokpal) विधेयक को “राष्ट्र के जीवन का ऐतिहासिक क्षण” कहा था। लेकिन जब इसकी असल कार्यप्रणाली सामने आई, तो यह उम्मीदें टूटने लगीं। अब तक सिर्फ दो बड़े नेताओं, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, के खिलाफ गंभीर जांच हुई है। वो भी भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की शिकायत पर। वहीं प्रधानमंत्री मोदी, राहुल गांधी, या सेबी की पूर्व अध्यक्ष माधवी पुरी बुच के खिलाफ आई शिकायतें “राजनीतिक उद्देश्य” या “प्रचार” बताकर खारिज कर दी गईं।
इस तरह की चयनात्मक कार्यवाही ने लोकपाल (Lokpal) की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पारदर्शिता के लिए लड़ने वालों का कहना है कि लोकपाल की मौन कार्यप्रणाली से उसकी साख पर बुरा असर पड़ा है।
भारतीय लिबरल पार्टी के अध्यक्ष डॉ. मुनीश कुमार रायज़ादा (Dr. Munish Kumar Raizada) कहते हैं,
“देश को जिस जन लोकपाल (Lokpal) की उम्मीद थी, वो कभी नहीं आया। जो कानून बना, उसमें भी पिछले पाँच सालों में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं दिखी। लोकपाल सिर्फ छोटी मछलियाँ पकड़ रहा है।”
2013 में कानून पास होने के बाद भी, लोकपाल (Lokpal) की नियुक्ति में छह साल लग गए। सरकार ने बहाना बनाया कि लोकसभा में विपक्ष के नेता नहीं हैं, इसलिए चयन समिति नहीं बन सकती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में स्पष्ट कर दिया था कि यह कोई बाधा नहीं है। उसके बाद जब 2019 में न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष पहले अध्यक्ष बने, तब उन्होंने एक होटल से काम शुरू किया। फिर धीरे-धीरे कार्यालय, स्टाफ और नियम बने। लेकिन शुरुआत से ही आलोचनाएँ शुरू हो गईं, जैसे कि न्यायमूर्ति डीबी भोसले ने सिर्फ 9 महीने में इस्तीफा दे दिया यह कहकर कि काम ही नहीं है। 2022 में घोष के रिटायर होने के बाद लगभग दो साल तक लोकपाल के पास कोई अध्यक्ष ही नहीं रहा, जब तक कि 2024 में न्यायमूर्ति एएम खानविलकर को नियुक्त नहीं किया गया। लेकिन उनकी नियुक्ति पर भी सवाल उठे, क्योंकि उन पर सरकार के पक्ष में फैसले देने के आरोप लगे हैं।
लोकपाल (Lokpal) के चयन को लेकर भी गंभीर सवाल उठे हैं। आरटीआई कार्यकर्ता भारद्वाज ने चयन समिति की बैठक का रिकॉर्ड मांगा था, लेकिन उसे गोपनीय बताकर देने से मना कर दिया गया। कानून के अनुसार, चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित व्यक्ति और एक प्रतिष्ठित न्यायविद होना चाहिए। लेकिन विपक्ष के नेता को बाहर रखने के कारण यह शक पैदा हुआ कि नियुक्तियाँ एकतरफा हो रही हैं।
एक और बड़ी कमी यह रही कि लोकपाल के पास अब तक अपनी खुद की जांच या अभियोजन शाखा नहीं है। जबकि कानून में इसकी व्यवस्था की गई थी। अभी तक हर जांच सीबीआई या सीवीसी जैसी एजेंसियाँ ही करती हैं। इन एजेंसियों पर पहले से बहुत काम है, और इन पर राजनीतिक प्रभाव के भी आरोप लगते रहे हैं। इससे लोकपाल की कार्यवाही धीमी और निर्भर हो जाती है। संसद की एक समिति ने सुझाव दिया है कि लोकपाल को जल्द से जल्द अपनी स्वतंत्र शाखाएँ बनानी चाहिए।
पारदर्शिता की स्थिति भी कमजोर
लोकपाल (Lokpal) की वेबसाइट पर कोई ऐसा विकल्प (Option) नहीं है जहाँ आम जनता जाकर शिकायत की स्थिति देख सके। सिर्फ अंतिम आदेश ही अपलोड किए जाते हैं। जाँच से जुड़े अंतरिम आदेश गोपनीय रखे जाते हैं, ताकि “प्रतिष्ठा को नुकसान” न हो। हालांकि अप्रैल 2023 से कुछ अंतरिम आदेश (बिना नाम के) प्रकाशित किए जा रहे हैं और जून 2025 में एक समिति बनाई गई है, जो सुझाव देगी कि कौन-कौन से आदेश सार्वजनिक किए जाएँ।
केवल चूहे पकड़े, शेर अभी भी आज़ाद
लोकपाल (Lokpal) का मकसद था बड़े स्तर के भ्रष्टाचार से निपटना। लेकिन अब तक जिन पाँच मामलों में अभियोजन की स्वीकृति दी गई, उनमें से तीन बैंक कर्मचारियों के थे, एक टकसाल कर्मचारी का और एक भारतीय पुरातत्व विभाग के कर्मचारी का। इनसे यह सवाल उठता है कि क्या लोकपाल सिर्फ "चूहे" पकड़ रहा है जबकि "शेर" अब भी खुले घूम रहे हैं ? 2024 की शुरुआत में लोकपाल ने कहा कि उच्च न्यायालय के जज भी उसकी जांच के दायरे में आते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत इस पर रोक लगा दी। इससे यह बहस फिर से छिड़ गई कि लोकपाल की असली सीमा क्या है?
कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े अब भी उम्मीदवार हैं। उनके अनुसार
> “कोई भी संस्था अपनी जांच एजेंसी नहीं चाहती। यह सिर्फ सरकार की गलती नहीं है, जनता को भी ज़िम्मेदारी लेनी होगी।”
उनका मानना है कि जनता के दबाव और निरंतर मांग से लोकपाल बेहतर हो सकता है।
निष्कर्ष:
जिस लोकपाल (Lokpal) से जनता को भ्रष्टाचार (Corruption) से मुक्ति की उम्मीद थी, वह आज अपने अस्तित्व को बचाने में ही संघर्ष कर रहा है। देरी, पक्षपात, अपारदर्शिता और अधिकारों की कमी ने उसे एक शक्तिहीन संस्था बना दिया है। अगर इसमें सुधार नहीं हुआ तो यह संस्था सिर्फ कागज़ों पर सिमट जाएगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में भारत की एक और उम्मीद खत्म हो जाएगी।
"पाँच साल बाद, लोकपाल अब बस छोटे-मोटे मामलों का देवता बन गया है। यह सिर्फ छोटे अधिकारियों को ही पकड़ रहा है, बड़े लोगों को नहीं।" [Rh/PS]
Reference
1. Mandhani, Apoorva. "Five years on, Lokpal is now ‘god of small things’. It’s been catching ‘tiny fish’" The-Print, July 27, 2025. https://theprint.in/judiciary/five-years-on-lokpal-is-now-god-of-small-things-its-been-catching-tiny-fish/2681750/