झारखंड की राजनीति में अगर किसी नेता ने अपना नाम संघर्ष और पहचान के प्रतीक के रूप में बनाने में सफलता हासिल की है, तो वो हैं शिबू सोरेन (Shibu Soren)। आदिवासी समाज (Tribal Society Of Jharkhand) के मसीहा, जंगलों और ज़मीन के अधिकार की लड़ाई में अगुवा, और झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha) के संस्थापक नेता शिबू सोरेन (Shibu Soren) ने अपनी राजनीतिक यात्रा ज़मीन से संसद तक तय की। कभी संसद में मंत्री बने, तो कभी झारखंड के मुख्यमंत्री। लोगों ने उन्हें 'गुरुजी' (Shibu Soren Or Guruji) कहकर पुकारा और उनकी आवाज़ ने दशकों तक आदिवासी जनभावनाओं को दिशा दी।
लेकिन इतनी लंबी राजनीतिक यात्रा और जनसमर्थन के बावजूद, शिबू सोरेन (Shibu Soren) के साथ एक अजीब विडंबना जुड़ी रही, वो जब-जब झारखंड के मुख्यमंत्री (Former CM Of Jharkhand) बने, कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। क्या इसकी वजह राजनीतिक अस्थिरता थी? या उनके नेतृत्व पर उठते सवाल? क्या उनके पीछे चलते रहे गठबंधन के समीकरण ज़िम्मेदार थे या फिर उनके खिलाफ बनते-बिगड़ते आपसी समीकरण?आख़िर क्यों शिबू सोरेन का हर मुख्यमंत्री कार्यकाल अधूरा रह गया?
कौन हैं शिबू सोरेन और राजनीति में कैसे रखा कदम?
शिबू सोरेन (Shibu Soren) झारखंड की राजनीति का एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने आदिवासी (Tribal Society OF Jharkhand) समाज के हक और अधिकार के लिए ज़मीन से लेकर संसद तक आवाज़ उठाई। उनका जन्म 11 जनवरी 1944 को झारखंड के दुमका जिले के नेमरा गांव में हुआ था जो उस समय बिहार में था। आदिवासी समुदाय (Tribal Community) से ताल्लुक रखने वाले शिबू सोरेन (Shibu Soren) बचपन से ही अपने समाज के दुख-दर्द को करीब से देखते आ रहे थे। उनके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब उनके पिता सोबन सोरेन की जमीन विवाद में हत्या कर दी गई। इस घटना ने शिबू सोरेन (Shibu Soren) को अंदर से झकझोर दिया और उन्होंने आदिवासियों की जमीन और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने का फैसला किया।
इसी सोच से उन्होंने 1972 में 'झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha)' की स्थापना की। शुरुआत में यह आंदोलन सिर्फ आदिवासी अधिकारों और ज़मीन की रक्षा तक सीमित था, लेकिन जल्द ही यह एक बड़ा राजनीतिक आंदोलन बन गया। शिबू सोरेन (Shibu Soren) ने लोगों को जागरूक करना शुरू किया और देखते ही देखते वे आदिवासी समाज (Tribal Society) के गुरुजी' बन गए। धीरे-धीरे शिबू सोरेन राष्ट्रीय राजनीति (Shibu Soren In National Politics) में भी सक्रिय हुए और कई बार सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बने। उनका राजनीतिक सफर संघर्ष, जन आंदोलन और सत्ता के उतार-चढ़ाव से भरा रहा, लेकिन उन्होंने हमेशा झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग को ज़िंदा रखा और उसमें अहम भूमिका निभाई।
अलग राज्य झारखंड की मांग और शिबू सोरेन का संघर्ष
झारखंड, जो कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था, वहां के आदिवासियों की पीड़ा अलग ही थी। वे महसूस करते थे कि उनकी ज़मीन, संसाधन और पहचान सब कुछ छिन रहा है। इसी दर्द ने जन्म दिया एक आंदोलन को। झारखंड नाम का एक अलग राज्य इस आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बने शिबू सोरेन (Shibu Soren), जिन्हें लोग सम्मान से “गुरुजी” (Shibu Soren Or Guruji) कहने लगे। शुरुआत 1970 के दशक में हुई। शिबू सोरेन (Shibu Soren) गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करते, बताते कि उनकी पहचान, संसाधनों पर अधिकार और संस्कृति बचाने का एक ही रास्ता है एक अलग राज्य। एक बार जब उनके पिता की ज़मीन छीनी गई और हत्या कर दी गई, तो शिबू सोरेन ने कसम खाई कि वो अब किसी आदिवासी को मजबूर नहीं होने देंगे। इसी जुनून ने उन्हें झारखंड आंदोलन (Jharkhand Movement) का अगुवा बना दिया।
एक घटना बहुत प्रसिद्ध है, रांची के मोराबादी मैदान में हजारों आदिवासी इकट्ठा हुए थे, और शिबू सोरेन (Shibu Soren) ने वहाँ मंच से कहा "हम सिर्फ मिट्टी नहीं माँग रहे, हम अपने वजूद की पहचान माँग रहे हैं।" यह भाषण इतना प्रभावी था कि आंदोलन और तेज़ हो गया। शिबू सोरेन (Shibu Soren) की अगुवाई में आंदोलन दिल्ली तक पहुँचा। संसद में उन्होंने कई बार झारखंड राज्य की मांग उठाई। लंबे संघर्ष और कई बलिदानों के बाद, 15 नवंबर 2000 को झारखंड को बिहार से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। यह जीत सिर्फ एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि एक समुदाय के आत्मसम्मान की वापसी थी, और इसके पीछे सबसे बड़ा चेहरा था गुरुजी शिबू सोरेन।
शिबू सोरेन कभी अपना कार्यकाल क्यों नहीं पूरा कर पाए?
शिबू सोरेन (Shibu Soren) तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने (Shibu Soren became the Chief Minister of Jharkhand thrice), लेकिन एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। इसका कारण सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता नहीं था, बल्कि खुद उनके ऊपर लगे आरोप, गठबंधन सरकारों की खींचतान और आदिवासी नेतृत्व को बार-बार दबाने की कोशिशें भी थीं।
पहली बार वे 2 मार्च 2005 को मुख्यमंत्री बने, लेकिन मात्र 9 दिन में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि वे बहुमत साबित नहीं कर पाए। बीजेपी और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) में सत्ता को लेकर ज़बरदस्त टकराव चल रहा था। गवर्नर ने उन्हें सरकार बनाने का न्योता तो दे दिया, लेकिन राजनीतिक समीकरण उनके खिलाफ थे।
दूसरी बार, 2008 में, वे दोबारा मुख्यमंत्री बने। लेकिन इस बार उन्हीं की पार्टी के सहयोगी दलों ने साथ छोड़ दिया क्योंकि लोकसभा में विश्वास मत के दौरान कांग्रेस और JMM के बीच मतभेद गहरा गया। गठबंधन की खींचतान ने उनकी कुर्सी हिला दी।
तीसरी बार, 2009 में, शिबू सोरेन फिर से सीएम बने, लेकिन सिर्फ 5 महीने ही रह पाए क्योंकि इस बार भी राजनीतिक समर्थन टूट गया। उनकी छवि पर एक हत्या मामले में लगे पुराने आरोपों का भी असर पड़ा, जिससे उनका नैतिक दबाव और भी बढ़ा।
कुल मिलाकर, शिबू सोरेन कभी इसलिए नहीं टिक सके क्योंकि झारखंड की राजनीति में गठबंधन की मजबूरियां, दल-बदल की संस्कृति, और संस्थागत अस्थिरता हमेशा उनके सामने दीवार बनकर खड़ी हो गई।
नहीं रहें “गुरुजी”
5 अगस्त 2025 को भारतीय राजनीति ने अपना एक सच्चा सपूत खो दिया। शिबू सोरेन, जिन्हें श्रद्धा से "धरती बाबा" कहा जाता था, अब हमारे बीच नहीं रहे। झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने वाले इस महान नेता ने आदिवासी समाज की आवाज़ को संसद तक पहुँचाया। उनका जीवन संघर्ष, बलिदान और जनता के लिए समर्पण की मिसाल रहा।
वे कई बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन हर बार राजनीतिक उठापटक ने उनका कार्यकाल अधूरा छोड़ दिया। उनकी मृत्यु केवल एक नेता की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की है जो हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकारों के लिए लड़ती थी। आज जब वे नहीं हैं, तो झारखंड की हवा भी शायद उनकी कमी महसूस कर रही है। शिबू सोरेन भले ही चले गए हों, लेकिन उनकी लड़ाई, उनकी आवाज़ और उनकी पहचान हमेशा जीवित रहेगी।
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शिबू सोरेन की राजनीतिक यात्रा एक प्रेरक गाथा है, संघर्ष से सत्ता तक, ज़मीन से संसद तक, उन्होंने सिर्फ़ झारखंड की आत्मा को आवाज़ दी, आदिवासी समाज को पहचान दिलाई और एक नए राज्य की नींव रखने में केंद्रीय भूमिका निभाई। लेकिन यह भी एक विडंबना रही कि जिस राज्य के लिए उन्होंने जीवन भर लड़ाई लड़ी, उसी राज्य में वे कभी भी स्थायी और स्थिर नेतृत्व नहीं दे सके। उनके बार-बार अधूरे रह गए मुख्यमंत्री कार्यकाल सिर्फ उनकी व्यक्तिगत असफलता नहीं, बल्कि झारखंड की जटिल राजनीति, दलगत स्वार्थ और गठबंधन की कमजोर नींव का भी आईना हैं। शिबू सोरेन का जीवन यह सिखाता है कि संघर्ष महान हो सकता है, लेकिन सत्ता को स्थिरता देने के लिए सिर्फ जनभावनाओं से नहीं, बल्कि मजबूत रणनीति, भरोसेमंद गठबंधन और स्पष्ट नेतृत्व की भी ज़रूरत होती है। झारखंड को उन्होंने जन्म दिया, पर उसे स्थायित्व देने की लड़ाई अधूरी रह गई। [Rh/SP]