![अभी भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था, तब से ही कुछ लोग अपने हक़ और पहचान के लिए एक अलग राज्य की मांग कर रहें थें। [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-08-04%2Fofita4sg%2Fassetstask01k1tmdznxe5r8bp5x0fy68d4n1754314369img1.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
अभी भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था, तब से ही कुछ लोग अपने हक़ और पहचान के लिए एक अलग राज्य की मांग कर रहें थें। शुरू में किसी ने भी भारत देश को भाषा, संस्कृति या संसाधनों के आधार पर बांटने की नहीं सोची थी लेकिन जैसे जैसे देश के हर क्षेत्रों में लोगों के बीच भाषा, जाति के आधार पर लड़ाइयां शुरू होने लगीं तब एक अलग राज्य की मांग उठने लगी। पहले बिहार 173,877 वर्ग किलोमीटर था लेकिन जब झारखंड (Jharkhand) नाम का राज्य बिहार (Bihar) से अलग हुआ तो उसका क्षेत्रफल घटकर 97,163 वर्ग किलोमीटर हो गया।।
झारखंड (Jharkhand) एक अलग राज्य कोई आम मांग नहीं थी, बल्कि भाषा, संस्कृति, और संसाधनों के हिसाब से बिहार के कुछ ऐसे हिस्से को अलग करने की मांग थी जहां के लोगों पर बिहार की सरकार का न ही कोई ध्यान था और न ही बिहार के लोगों का समर्थन था। झारखंड राज्य की मांग (Jharkhand state demand) के पीछे आवाज़ थी जयपाल सिंह मुंडा (Jaipal Singh Munda) की। एक ऐसे नेता जिन्होंने 1929 में ही अंग्रेजों के सामने झारखंड राज्य की मांग (Jharkhand state demand) रख दी थी। उन्होंने कहा था कि यह क्षेत्र आदिवासी भाषाओं, परंपराओं और संसाधनों से भरा हुआ है, और इसे बिहार जैसे समतल और अलग संस्कृति वाले इलाके से जोड़ना ठीक नहीं है। लेकिन शुरू से ही न इस डिमांड को समझा गया और और न ही इस पर ध्यान दिया गया। झारखंड एक अलग राज्य बनने के पीछे कई कहानी हैं, तो आइए आज झारखंड राज्य बनने की कहानी को जानतें हैं और समझते हैं।
झारखंड राज्य की मांग कब और क्यों उठी?
झारखंड राज्य की मांग (Jharkhand state demand) सबसे पहले साल 1929 में उठी थी। यह मांग जयपाल सिंह मुंडा (Jaipal Singh Munda) ने की थी, जो एक शिक्षित और दूरदर्शी आदिवासी नेता थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया था कि बिहार से अलग एक नया राज्य बनाया जाए, जिसका नाम झारखंड हो। इसका मुख्य कारण यह था कि बिहार के अधिकांश हिस्सों में मैथिली, भोजपुरी जैसी भाषाएं बोली जाती थीं और वहां की संस्कृति अलग थी, जबकि झारखंड क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिकतर आदिवासी समुदाय से थे और उनकी अपनी अलग पहचान, भाषा, रीति-रिवाज और जीवनशैली थी।
झारखंड क्षेत्र में घने जंगल, नदियां, झरने, पहाड़ और खनिज संसाधनों की भरमार थी, लेकिन इनका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिल रहा था। उन्हें शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलती थीं। यही कारण था कि इस क्षेत्र के लोगों ने खुद के लिए एक अलग राज्य की मांग शुरू की, जिससे उनकी संस्कृति को संरक्षण मिल सके और विकास हो सके।
जयपाल सिंह मुंडा की पार्टी टूटी और शिबू सोरेन की हुई एंट्री
जयपाल सिंह मुंडा (Jaipal Singh Munda) ने झारखंड के लिए जिस आंदोलन की शुरुआत की थी, वह धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। उन्होंने जो झारखंड पार्टी बनाई थी, वह शुरू में काफी मजबूत थी और आदिवासी समुदाय में उसकी अच्छी पकड़ थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, पार्टी में आपसी मतभेद और नेतृत्व की कमी दिखने लगी। पार्टी के कई नेता अलग-अलग विचारों में बंट गए और एकजुटता कम हो गई। सबसे बड़ा झटका तब लगा जब 1963 में जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी झारखंड पार्टी को कांग्रेस में मिला दिया। इससे पार्टी के कई समर्थक नाराज़ हो गए क्योंकि उन्हें लगा कि उनका सपना अधूरा रह गया। पार्टी का जनाधार भी धीरे-धीरे कमजोर होता चला गया और झारखंड की मांग एक बार फिर कमजोर पड़ गई।
इसी बीच 1970 के दशक में एक नया चेहरा उभरा, शिबू सोरेन (Shibu Soren), जिन्हें लोग 'गुरुजी' (Shibu Soren or Guruji) के नाम से भी जानते हैं। वे एक साधारण आदिवासी परिवार से थे लेकिन उनके अंदर नेतृत्व की ताकत और अपने समाज के लिए कुछ करने का जुनून था। उन्होंने देखा कि झारखंड के आदिवासियों को उनके हक नहीं मिल रहे, इसलिए उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। शिबू सोरेन (Shibu Soren) ने किसानों, मजदूरों और आदिवासियों की आवाज़ बनकर आंदोलन को फिर से जीवित किया। उन्होंने जमीन से जुड़कर संघर्ष किया और झारखंड आंदोलन को नई दिशा दी। यहीं से झारखंड राज्य की लड़ाई फिर तेज हो गई।
इस एक आंदोलन ने बदल दी झारखंड की किस्मत
झारखंड आंदोलन को मजबूती देने में जहां एक ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) का बड़ा योगदान रहा, वहीं दूसरी ओर एक और संगठन सामने आया जिसने आंदोलन को और धार दी वह था आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन)। इसकी स्थापना 22 जून 1986 को हुई थी। यह संगठन युवाओं और छात्रों को जोड़ने के लिए बनाया गया था, ताकि झारखंड की मांग को नई ऊर्जा मिल सके। आजसू ने शुरुआत से ही शांतिपूर्ण और संगठित तरीके से आंदोलन को चलाया। उन्होंने रेल रोको, सड़क जाम, धरना-प्रदर्शन और जनसभाओं के ज़रिए लोगों को जोड़ा।
खास बात यह थी कि आजसू (AAJSU) के नेता बहुत ही युवा थे और उनमें बदलाव लाने का जुनून था। उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक किया कि झारखंड राज्य क्यों जरूरी है और इससे स्थानीय लोगों को क्या लाभ मिलेगा। आजसू के आंदोलनों की वजह से सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। झारखंड की मांग अब केवल आदिवासियों की नहीं रही, बल्कि यह एक जनआंदोलन बन गई जिसमें सभी समुदायों के लोग शामिल होने लगे। सरकार ने भी महसूस किया कि अगर इस मांग को अनसुना किया गया, तो स्थिति और गंभीर हो सकती है। इन्हीं आंदोलनों और दबावों का असर था कि 1990 के दशक के अंत तक केंद्र सरकार झारखंड के गठन पर गंभीरता से सोचने लगी। आखिरकार, लगातार संघर्षों के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड भारत का 28वां राज्य बना। आजसू (AAJSU) का इसमें एक अहम योगदान रहा, जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
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क्या झारखंड को बिहार से अलग करना सही फैसला था? क्या है आज झारखण्ड की स्थिति?
झारखंड को 2000 में बिहार से अलग किया गया ताकि वहां के लोगों को उनका हक, पहचान और संसाधनों पर अधिकार मिल सके। अलग राज्य बनने का मकसद था आदिवासियों की भलाई, स्थानीय लोगों को रोजगार, और प्राकृतिक संसाधनों का सही उपयोग। शुरुआत में यह फैसला सही माना गया, क्योंकि झारखंड की पहचान एक अलग संस्कृति, भाषा और भूगोल से थी। यहां घने जंगल, खनिज, नदियां और पहाड़ हैं, जिससे राज्य आर्थिक रूप से मजबूत हो सकता था।
लेकिन अलग होने के 25 साल बाद भी हालात उतने अच्छे नहीं हैं। शुरू में राजनीतिक दल के द्वारा जो बड़े-बड़े वादे किए जा रहे थे या झारखंड नाम के एक अलग राज्य के जो कारण दिए जा रहे थे उन कारणों से झारखंड आज तक उबर नहीं पाया है। बिहार से अलग होने के बाद आज बिहार और झारखंड दोनों ही भारत के गरीब राज्यों में शामिल है गरीबी रेखा इन दोनों ही राज्यों में बहुत अधिक है। इसके अलावा नौकरी और यहां पर पान अपने वाली समस्याएं तो ऐसी हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।
गरीबी अभी भी राज्य की बड़ी समस्या है। झारखंड भारत के गरीब राज्यों में से एक है जहां लोगों को साधारण जीवन जीने के लिए रोज़मर्रा के साधन तक नहीं मिल रहें हैं।
झारखंड भी लगभग हर एक राज्य की तरह रोजगार की भारी कमी है, जिसकी वजह से युवा पलायन कर रहे हैं। हालांकि नौकरी की समस्या सिर्फ़ झारखंड की नहीं है पूरे भारत की है लेकिन फिर भी यदि औसत देखा जाए तो झारखंड में नौकरी का दर काफी कम हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दूरदराज के गांवों में अब भी कमजोर हैं। झारखंड में शिक्षा का दर बहुत कम है जिसके कारण नौकरी की दर भी कम है।
आदिवासी समुदाय, जो झारखंड आंदोलन की आत्मा थे, आज भी हाशिए पर हैं। आदिवासी समाज को आज भी उन सभी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो 25 साल पहले करना पड़ता था।
भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता ने विकास की रफ्तार धीमी कर दी है। झारखंड प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है और सबसे ज्यादा इन प्राकृतिक संसाधनों हनन भी झारखंड में होता है। झारखंड में कोयला माफिया से ले कर दामोदर नदी के रेत माफिया सभी झारखंड को बर्बाद करने में भरपूर भूमिका निभा रहे हैं।
कई बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है और सरकारें टिकती नहीं। झारखंड की सरकार भी झारखंड और यहां के लोगों पर ध्यान नहीं देती है ना कोई नियम कानून है ना ही झारखंड की तरक्की के लिए कोई उपाय ही किए जाते हैं।
हालांकि कुछ क्षेत्रों में सुधार जरूर हुआ है सड़कें बनी हैं, बिजली पहुँची है, लेकिन झारखंड अभी भी अपने सपनों को पूरी तरह हासिल नहीं कर पाया है।
निष्कर्ष यही है कि झारखंड को अलग करना ज़रूरी था, लेकिन अब ज़रूरत है ईमानदार शासन, स्थिर सरकार और ज़मीन से जुड़े विकास की, ताकि यह राज्य अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सके। [Rh/SP]