महरौली की दरगाह : सूफ़ी संत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की विरासत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का जिंदा सबूत

महरौली (Mehrauli) की दरगाह (Dargah) से जुड़ी फूल वालों की सैर आज भी गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है। सूफ़ी संत (Sufi Saint) क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (Qutubuddin Bakhtiyar Kaki) ने क़व्वाली और इंसानियत का पैग़ाम दिया। उनकी विरासत हमें सिखाती है कि असली धर्म प्रेम, सेवा और भाईचारे में है।
महरौली (Mehrauli) में उनका मज़ार आज भी मौजूद है। यह जगह केवल मुसलमानों का ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। "फूल वालों की सैर" में दरगाह  (Dargah) के साथ-साथ पास के योगमाया मंदिर पर भी फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है।
महरौली (Mehrauli) में उनका मज़ार आज भी मौजूद है। यह जगह केवल मुसलमानों का ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। "फूल वालों की सैर" में दरगाह (Dargah) के साथ-साथ पास के योगमाया मंदिर पर भी फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है। (AI)
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आज से करीब 225 साल पहले, दिल्ली में एक अलग ही जश्न का माहौल था। लाल क़िले से लगभग 20 किलोमीटर दूर महरौली उस समय राजधानी बनी हुई थी। आम के बाग़ों में झूले डाले गए, पतंगबाज़ी हुई, मुर्ग़ों और बैलों की लड़ाई पर शर्तें लगीं, और कुश्ती व तैराकी के मुकाबले हुए। इसी उत्सव के बीच एक सूफ़ी संत (Sufi Saint) की दरगाह पर फूलों की चादर भी चढ़ाई गई। यह उत्सव अकबर शाह द्वितीय के बेटे मिर्ज़ा जहांगीर की रिहाई पर मनाया गया था। उनकी मां, मुमताज़ महल ने महरौली (Mehrauli) स्थित ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (Qutubuddin Bakhtiyar Kaki) के मज़ार पर मन्नत मांगी थी। जब बेटा जेल से छूटा, तो वादा निभाने के लिए दरगाह पर फूलों की मसहरी चढ़ाई गई। यही परंपरा आगे चलकर “सैर-ए-गुलफ़रोशां” या फूल वालों की सैर के नाम से मशहूर हुई, जो आज भी महरौली (Mehrauli) की पहचान है।

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी 12वीं-13वीं सदी के एक महान सूफ़ी संत थे। उनका असली नाम बख़्तियार था, लेकिन उनकी विद्वता और आध्यात्मिकता के कारण उन्हें क़ुतुबुद्दीन की उपाधि दी गई। बाद में उन्हें “क़ुतुब अल-अक़ताब” यानी संतों का संत भी कहा जाने लगा। उनकी पैदाइश फ़रग़ना घाटी के ओश (आज का किर्गिस्तान) में हुई थी। वो सीधे हज़रत अली की वंश परंपरा से जुड़े थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई और फिर उन्हें उनके पीर हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती ने भारत आने और यहां इस्लाम की रोशनी फैलाने का आदेश दिया।

आज से करीब 225 साल पहले, दिल्ली में एक अलग ही जश्न का माहौल था। लाल क़िले से लगभग 20 किलोमीटर दूर महरौली उस समय राजधानी बनी हुई थी।
आज से करीब 225 साल पहले, दिल्ली में एक अलग ही जश्न का माहौल था। लाल क़िले से लगभग 20 किलोमीटर दूर महरौली उस समय राजधानी बनी हुई थी। (AI)

सूफ़ीवाद और उनकी भूमिका

भारत में इस्लाम मुख्य रूप से तीन रास्तों से आया - व्यापारियों के माध्यम से, आक्रमणकारियों और सेनाओं के ज़रिए, और तीसरा रास्ता सूफ़ियों और संतों का था। यही तीसरा रास्ता सबसे गहरा और स्थायी साबित हुआ। सूफ़ियों ने गांव-गांव जाकर लोगों को जोड़ा। उन्होंने किसी धर्म या जाति का भेद नहीं किया। क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (Qutubuddin Bakhtiyar Kaki) भी इसी परंपरा के प्रतिनिधि थे। उन्होंने दिल्ली के महरौली को अपना ठिकाना बनाया और यहीं से लोगों में इंसानियत, प्रेम और बराबरी का संदेश फैलाया।

उनके नाम के साथ ‘काकी’ शब्द जुड़ने की भी एक दिलचस्प कहानी है। कहा जाता है कि उनके घर में अक्सर खाने की कमी रहती थी। उनकी पत्नी पड़ोस के नानबाई से रोटी उधार ले आती थीं। एक दिन बख़्तियार काकी ने उन्हें कहा कि अब उधार न लेना, बल्कि जब ज़रूरत हो तो घर के एक कोने से "काक" उठा लेना। "काक" एक तरह की रोटी होती है। यह बहुत ही अचरज की बात यह थी कि जब भी उनकी पत्नी उस जगह जाती थी, वहां ताज़ी रोटी रखी मिलती थी। लेकिन जैसे ही इस राज़ का खुलासा हुआ, वह चमत्कार बंद हो गया। इस घटना के बाद लोग उन्हें प्यार से ‘काकी’ कहने लगे।

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी भारत में क़व्वाली लाने वाले पहले सूफ़ी संत माने जाते हैं। वो 'समा' यानी सूफ़ी संगीत और नृत्य की महफ़िलों के बड़े शौक़ीन थे।
क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी भारत में क़व्वाली लाने वाले पहले सूफ़ी संत माने जाते हैं। वो 'समा' यानी सूफ़ी संगीत और नृत्य की महफ़िलों के बड़े शौक़ीन थे।(AI)

क़व्वाली और समा की परंपरा

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (Qutubuddin Bakhtiyar Kaki) भारत में क़व्वाली लाने वाले पहले सूफ़ी संत (Sufi Saint) माने जाते हैं। वो 'समा' यानी सूफ़ी संगीत और नृत्य की महफ़िलों के बड़े शौक़ीन थे। उन्होंने इस परंपरा को भारत में फैलाया और यह चिश्ती सिलसिले की खास पहचान बन गई। वह खुद भी एक शायर थे। कहा जाता है कि एक बार किसी ने उन्हें एक शेर सुनाया, तो वो इतनी गहराई से उस पर डूब गए कि लगातार चार दिन तक समा की हालत में रहे। इसी अवस्था में उनकी मौत भी हो गई।

हालांकि सूफ़ी संत आमतौर पर शाही दरबारों से दूरी रखते थे, लेकिन दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश उनका बेहद सम्मान करते थे। इल्तुतमिश उन्हें अपना गुरु मानते थे और जंग से लौटकर सीधे उनके दर्शन करने जाते थे। इतना ही नहीं, कुछ इतिहासकारों के अनुसार, दिल्ली की मशहूर क़ुतुब मीनार भी उन्हीं के सम्मान में बनाई गई थी। हालांकि एक मत यह भी है कि इसका नाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक से जुड़ा है।

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की सबसे बड़ी विरासत है प्रेम, सेवा और संगीत। उन्होंने दिखाया कि धर्म केवल पूजा-पाठ का नाम नहीं है, बल्कि भूखों को खाना खिलाना, दुखियों के दुख बांटना और इंसानियत को सबसे ऊपर रखना ही असली इबादत है।
क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की सबसे बड़ी विरासत है प्रेम, सेवा और संगीत। उन्होंने दिखाया कि धर्म केवल पूजा-पाठ का नाम नहीं है, बल्कि भूखों को खाना खिलाना, दुखियों के दुख बांटना और इंसानियत को सबसे ऊपर रखना ही असली इबादत है। (AI)

बख़्तियार काकी का मज़ार और साझा संस्कृति

महरौली (Mehrauli) में उनका मज़ार आज भी मौजूद है। यह जगह केवल मुसलमानों का ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। "फूल वालों की सैर" में दरगाह (Dargah) के साथ-साथ पास के योगमाया मंदिर पर भी फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है। यह हिंदू-मुस्लिम एकता और भारत की साझा संस्कृति का प्रतीक है। यह परंपरा अंग्रेज़ों और सरकारी पाबंदियों के बावजूद जारी रही। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी 1947 के दंगों के दौरान दरगाह की बेअदबी पर भूख हड़ताल की थी और इसकी मरम्मत की भी मांग की थी।

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आज़ादी के बाद महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू दोनों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। गांधीजी ने अपने अंतिम अनशन में यह शर्त रखी थी कि दरगाह की मरम्मत हो। लेकिन वहीं नेहरू ने फूल वालों की सैर को फिर से शुरू करा दिया।आज भी यह उत्सव हर साल मनाया जाता है। पहले यह सात दिन तक चलता था, लेकिन अब तीन दिन तक ही चलता है। इसमें देशभर से लोग आते हैं और दरगाह व मंदिर दोनों पर चादर और पंखा चढ़ाते हैं।

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (Qutubuddin Bakhtiyar Kaki) की सबसे बड़ी विरासत है प्रेम, सेवा और संगीत। उन्होंने दिखाया कि धर्म केवल पूजा-पाठ का नाम नहीं है, बल्कि भूखों को खाना खिलाना, दुखियों के दुख बांटना और इंसानियत को सबसे ऊपर रखना ही असली इबादत है। उनकी दरगाह (Dargah) आज भी लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां आने वाले लोग धर्म या जाति की पहचान से नहीं, बल्कि इंसानियत के रिश्ते से जुड़ते हैं।

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी 12वीं-13वीं सदी के एक महान सूफ़ी संत थे। उनका असली नाम बख़्तियार था, लेकिन उनकी विद्वता और आध्यात्मिकता के कारण उन्हें क़ुतुबुद्दीन की उपाधि दी गई।
क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी 12वीं-13वीं सदी के एक महान सूफ़ी संत थे। उनका असली नाम बख़्तियार था, लेकिन उनकी विद्वता और आध्यात्मिकता के कारण उन्हें क़ुतुबुद्दीन की उपाधि दी गई। (AI)

निष्कर्ष

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी केवल एक सूफ़ी संत (Sufi Saint) ही नहीं थे, बल्कि वह एक भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के सच्चे वाहक भी थे। उन्होंने भारत में क़व्वाली और समा की परंपरा को जन्म दिया। उनकी दरगाह (Dargah) हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बनी। आज जब समाज में मतभेद और नफ़रत के बादल छाए रहते हैं, तो काकी जैसे सूफ़ियों की याद हमें यह सिखाती है कि असली ताक़त इंसानियत, प्रेम और भाईचारे में है। [Rh/PS]

महरौली (Mehrauli) में उनका मज़ार आज भी मौजूद है। यह जगह केवल मुसलमानों का ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। "फूल वालों की सैर" में दरगाह  (Dargah) के साथ-साथ पास के योगमाया मंदिर पर भी फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है।
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