
सितंबर और अक्टूबर के महीने में बंगाल की धरती एक अलग ही खुशबू से महक उठती है। यह खुशबू मां दुर्गा के आगमन की होती है। दुर्गा पूजा बंगाल (Durga Puja In Bengal) के सबसे भव्य और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध त्योहारों में से एक है, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल(West Bengal), बिहार, झारखंड और ओडिशा (Jharkhand and Odisha) में इसकी भव्यता देखते ही बनती है। माँ दुर्गा की मूर्तियों को बनाने की प्रक्रिया केवल एक कलात्मक अभ्यास नहीं है, बल्कि यह गहराई से जुड़ी हुई आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक परंपराओं का मेल है।
इन्हीं परंपराओं में से एक है 'वैश्यालय की मिट्टी' ('The soil of the brothel') का उपयोग माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण में करना। जी हां! यह सुनकर कई लोगों को आश्चर्य होता है कि एक पवित्र देवी की प्रतिमा बनाने में उस जगह की मिट्टी क्यों ली जाती है? जिसे समाज 'अपवित्र' या 'निषिद्ध' मानता है। लेकिन यही विरोधाभास इस परंपरा की गहराई को दर्शाता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है। तो आइए जानतें है कि आखिर मां दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए वैश्यालय की मिट्टी ही क्यों इस्तेमाल होती है?
वैश्यालय की मिट्टी का होता है इस्तेमाल
वैश्यालय की मिट्टी का माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण में उपयोग एक अत्यंत प्राचीन और रहस्यमयी परंपरा है, जिसे बंगाली में "Pooner Mati" या nishiddho palli ki mati" कहा जाता है। इस प्रथा की शुरुआत को लेकर कोई एक सटीक सबुत तो नहीं है, लेकिन लोककथाओं, धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक व्याख्याओं से इसके कई पहलू सामने आते हैं। एक मान्यता के अनुसार, जब मूर्तिकार (कुमार) माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाना शुरू करते हैं, तो वे चार प्रकार की मिट्टी एकत्र करते हैं, गंगा की मिट्टी, गोबर, तुलसी के पौधे के नीचे की मिट्टी और वैश्यालय की मिट्टी। यह चौथी मिट्टी प्रतीक होती है उस सामाजिक समावेश की, जिसमें किसी को भी 'अपवित्र' नहीं माना जाता। यह माँ दुर्गा के 'सर्वसमावेशक रूप' को दर्शाता है, जो हर वर्ग, हर स्त्री, हर आत्मा की रक्षक हैं।
क्या है इस से जुड़ी कथाएं?
एक कथा के अनुसार, बहुत पुराने समय में एक मूर्तिकार हर वर्ष माँ दुर्गा की प्रतिमा (Ideol Of Maa Durga) बनाता था, लेकिन वह हमेशा दुखी रहता क्योंकि उसे लगता था कि उसकी मूर्तियों में "प्राण" नहीं बसते। एक दिन वह सच्चे मन से माँ दुर्गा से प्रार्थना करने लगा कि वे उसे रास्ता दिखाएं। उसी रात माँ दुर्गा ने सपने में उसे दर्शन दिए और कहा: "तुम मेरी मूर्ति को केवल मिट्टी और कला से बनाते हो, परंतु उसमें वो ‘करुणा’ नहीं जो मेरे अस्तित्व का मूल है।
जब तक तुम समाज के उस हिस्से को स्वीकार नहीं करोगे जिसे दुनिया त्याग देती है, तब तक मेरी प्रतिमा अधूरी ही रहेगी। जाकर उस स्त्री के द्वार से मिट्टी लाओ, जिसे समाज 'अपवित्र' कहता है, परंतु जिसका त्याग सबसे बड़ा है।" स्वप्न के अनुसार वह एक वैश्यालय गया, जहाँ एक बुढ़ी स्त्री ने उसे नम्रता से मिट्टी दी और कहा: "मैं तो अपवित्र मानी जाती हूँ, पर माँ को अर्पित होने का सौभाग्य मिल रहा है, यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा पुण्य है।" उस वर्ष मूर्तिकार की बनाई मूर्ति ऐसी दिव्यता से चमकी कि पूरा गाँव चौंक गया। लोगों ने महसूस किया कि माँ दुर्गा केवल जंगल, मंदिर या गंगा किनारे नहीं रहतीं वे हर उस जगह मौजूद हैं जहाँ भक्ति, त्याग और प्रेम है।
इस मिट्टी में छुपे हैं गहरे संकेत
दुर्गा प्रतिमा निर्माण में वैश्यालय की मिट्टी ('The soil of the brothel') का प्रयोग एक अत्यंत गहन आध्यात्मिक संकेत है, जो हमें बाहरी आडंबर से परे जाकर भीतर की पवित्रता को समझने का संदेश देता है। जब माँ दुर्गा की प्रतिमा में उस जगह की मिट्टी को सम्मिलन किया जाता है जिसे समाज "अपवित्र" कहता है, तो यह माँ के सर्वसमावेशी और करुणामयी रूप का स्वीकार बन जाता है। यह एक गहरा संदेश है कि माँ केवल मंदिरों या तीर्थस्थलों तक सीमित नहीं हैं, वे वहाँ भी हैं जहाँ समाज की नजर नहीं पहुँचती , वहाँ भी जहाँ पीड़ा, उपेक्षा और तिरस्कार है।
जब हम उस मिट्टी को स्वीकार करते हैं, हम दरअसल अपनी चेतना को व्यापक बनाते हैं। जहाँ ईश्वर हर रूप, हर आत्मा और हर स्थिति में समान रूप से विद्यमान है। इस प्रकार, यह परंपरा केवल मूर्ति निर्माण की एक विधि नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता और ईश्वर के विशाल स्वरूप को समझने की एक साधना है।
परंपरा में छुपा सामाजिक संदेश
वैश्यालय की मिट्टी को दुर्गा प्रतिमा निर्माण में शामिल करना एक ऐसा सांस्कृतिक कार्य है, जो सामाजिक चेतना को गहराई से झकझोरता है। यह परंपरा उन स्त्रियों को सम्मान देने का प्रतीक बन जाती है, जिन्हें समाज ने हमेशा किनारे पर रखा है। जब माँ दुर्गा की प्रतिमा में उस मिट्टी को स्थान मिलता है, जो समाज के अनुसार “अपवित्र” स्थान से लाई गई है, तो यह समाज की परिभाषित ‘पवित्रता’ पर सवाल उठाता है।
यह परंपरा एक तरह से उस पाखंड का विरोध करती है, जहाँ एक ओर हम स्त्री को देवी का रूप मानते हैं, और दूसरी ओर कुछ स्त्रियों को उनके पेशे के आधार पर अपमान करते हैं। यह प्रक्रिया हमें यह याद दिलाती है कि हर स्त्री, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में क्यों न हो, सम्मान की अधिकारी है। दुर्गा प्रतिमा में उस मिट्टी का मिलाया जाना, नारी के हर रूप, पालक, रक्षक, पीड़िता और योद्धा की स्वीकृति और उसके अस्तित्व का सम्मान है। इसके माध्यम से समाज को यह संदेश दिया जाता है कि कोई भी इंसान उसकी सामाजिक स्थिति या पेशे के कारण ‘अस्पृश्य’ नहीं हो सकता। जब एक वर्जित क्षेत्र की मिट्टी देवीत्व में विलीन हो जाती है, तब यह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का प्रतीक बन जाती है, जो समता, सम्मान और करुणा पर आधारित है।
आज के दौर में भी है इस परम्परा का महत्व
आज जब हम 21वीं सदी में तकनीक, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता की बात करते हैं, तब भी समाज में वर्गभेद, स्त्रियों के प्रति हिनता, और नैतिकता के दोहरे मापदंड ज्यों के त्यों बने हुए हैं। ऐसे में दुर्गा प्रतिमा में वैश्यालय की मिट्टी मिलाने की यह परंपरा केवल एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि आज के समाज को आईना दिखाने वाला प्रतीक बन जाती है। यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि स्त्रियों को केवल तब तक देवी कहना पर्याप्त नहीं जब तक हम उन्हें समान अधिकार, गरिमा और सम्मान नहीं देते चाहे वह किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि से क्यों न हों। जिस समाज में आज भी कुछ पेशों से जुड़ी स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, वहाँ यह परंपरा गूंजती हुई आवाज़ है कि कोई भी मानव अपवित्र नहीं होता, और हर एक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है।
वहीं दूसरी ओर, यह परंपरा धार्मिकता और आधुनिक सामाजिक न्याय के बीच एक पुल की तरह कार्य करती है। यह दर्शाती है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएँ (Cultural Traditions) केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि आज के सामाजिक संघर्षों को भी दिशा देने वाली जीवित धारा हैं। दुर्गा पूजा जैसे पर्व में जब हम देवी को शक्ति, करुणा और मातृत्व के रूप में पूजते हैं (The goddess is worshipped as a symbol of strength, compassion and motherhood), तो यह अनिवार्य हो जाता है कि हम समाज की उन वास्तविक देवियों को भी स्वीकार करें जिन्हें आज भी हाशिए पर रखा गया है। इस प्रकार, वैश्यालय की मिट्टी का प्रयोग आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना वह कभी था, बल्कि अब शायद और अधिक।
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दुर्गा प्रतिमा निर्माण में वैश्यालय की मिट्टी का प्रयोग एक ऐसी परंपरा है, जो न केवल हमारी धार्मिक आस्था का हिस्सा है, बल्कि हमारे सामाजिक और आध्यात्मिक सोच का विस्तार भी है। यह परंपरा हमें यह याद दिलाती है कि पवित्रता केवल बाहरी नियमों और स्थानों से नहीं, बल्कि भावना, करुणा और समावेश की भावना से उपजती है। माँ दुर्गा का रूप तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक उसमें उस समाज का प्रतिनिधित्व न हो, जिसे हम अनदेखा करते हैं या अपवित्र मानते हैं। आज के समय में जब हम बराबरी, समानता और मानवीय गरिमा की बात करते हैं, तब यह परंपरा और भी अधिक अर्थपूर्ण हो जाती है। यह न सिर्फ धर्म का हिस्सा है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का प्रतीक भी है, जो हमें सिखाती है कि हर आत्मा, चाहे उसका सामाजिक दर्जा कुछ भी हो, ईश्वर से जुड़ने की पात्र है। [Rh/SP]