
ग़ज़ा (Gaza) में पत्रकारों की ज़िंदगी किसी जेल से कम नहीं रह गई है। एक पत्रकार जिनका नाम है अब्दुल्लाह मिक़दाद उनका कहना है की "मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन मुझे कपड़े और प्लास्टिक से बने टेंट में रहना पड़ेगा और काम करना पड़ेगा। यहां पानी और बाथरूम जैसी ज़रूरी सुविधाएं भी नहीं हैं। गर्मियों में टेंट तपते तंदूर जैसे हो जाते हैं और सर्दियों में फ्रिज की तरह।" ज्यादातर पत्रकार (Journalist) अस्पतालों के आसपास बने अस्थायी टेंटों में रह रहे हैं। इसका कारण है, बिजली कट चुकी है और अस्पतालों के जनरेटर ही उनके मोबाइल और कैमरों को चार्ज करने का एकमात्र सहारा हैं।
दुनिया को सच दिखाने का संघर्ष
ग़ज़ा (Gaza) में विदेशी मीडिया को सीधे रिपोर्टिंग की अनुमति नहीं है। इसराइल केवल कुछ मौकों पर अपने सैनिकों के साथ विदेशी पत्रकारों को ग़ज़ा में प्रवेश करने देता है। इसलिए अन्य अंतरराष्ट्रीय मीडिया स्थानीय पत्रकारों पर ही पूरी तरह निर्भर हैं। ये पत्रकार हर दिन जान जोखिम में डालकर बमबारी, अंतिम संस्कार और अस्पतालों की भयावह तस्वीरें दुनिया तक पहुंचा रहे हैं। लेकिन इंटरनेट और बिजली की कमी के कारण अक्सर रिपोर्टिंग (Reporting) तब तक बाहर नहीं जा पाती जब तक वो अस्पताल के पास लौटकर कनेक्शन नहीं ले लेते।
फ़लस्तीनी जर्नलिस्ट्स सिंडिकेट के अनुसार पत्रकार (Journalist) लगातार इसराइली सेना के निशाने पर रहते हैं। अक्तूबर 2023 से अगस्त 2024 तक करीब 197 पत्रकार मारे जा चुके हैं, जिनमें से 189 सिर्फ़ ग़ज़ा के थे। यह आंकड़ा दुनिया में पिछले तीन सालों में मारे गए कुल पत्रकारों से भी अधिक है।
अब्दुल्लाह मिक़दाद का कहना हैं, "टेंट में बैठे हमें कभी नहीं पता होता कि अगले ही पल क्या होने वाला है। थकान और भूख के बावजूद कैमरे के सामने सतर्क रहना हमारी मजबूरी है। लेकिन दिमाग में लगातार एक सवाल हमेशा चलता रहता है की अगर इसी टेंट पर बम गिर गया तो क्या होगा ?"
पत्रकारों की मौत और विवाद
10 अगस्त 2024 को इसराइल के हवाई हमले में अल जज़ीरा के पत्रकार (Journalist) अनस अल-शरीफ़ की मौत हो गई। हमला सीधे उनके मीडिया टेंट पर किया गया था, जिसमें पांच और पत्रकार मारे गए। इसराइल ने दावा किया कि शरीफ़ हमास से जुड़े थे, लेकिन कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने कहा कि इसराइल ने इसका कोई सबूत पेश नहीं किया। 25 अगस्त को ख़ान यूनिस के नासिर अस्पताल पर हमला हुआ। इसमें 20 से ज़्यादा लोगों के साथ पांच पत्रकार भी मारे गए। यह हमला दो बार में हुआ, पहले बमबारी और फिर घायलों की मदद के लिए पहुंचे लोगों पर दूसरा हमला हुआ।
ग़ज़ा (Gaza) में इस समय अकाल जैसी स्थिति बानी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसी ने ग़ज़ा को सबसे गंभीर यानी फ़ेज़ 5 में रखा है। यहां पांच लाख से अधिक लोग भुखमरी झेल रहे हैं। पत्रकार भी इन्हीं हालातों से गुजरते हैं। स्वतंत्र पत्रकार अहमद जलाल का कहना हैं, "अक्सर हमें दिनभर केवल एक कप कॉफी या बिना चीनी की चाय पर गुज़ारा करना पड़ता है। भूख से सिरदर्द और थकान बढ़ती है, लेकिन काम जारी रखना पड़ता है। मेरा बेटा सर्जरी का इंतज़ार कर रहा है, बेटा कहता है जल्द से जल्द सर्जरी करवा लेने के लिए अगर समय रहते सर्जरी नहीं हुआ तो बहुत ज्यादा दिक्क्त हो जाएगी, लेकिन इस हमले की वजह से ग़ज़ा की स्थिति बहुत ख़राब है और इन सब को छोड़कर इलाज करवाना संभव नहीं है। फिर भी मैं कैमरे के पीछे ग़ज़ा के बच्चों का दर्द दिखाता हूं।"
पत्रकार ग़ादा अल-कुर्द कहती हैं कि लगातार मौत, भूख और भय को कवर करते-करते उनकी भावनाएं खत्म हो गई हैं। वो ये भी कहती हैं की "हमारे पास सोचने तक का समय नहीं है कि हम कैसा महसूस कर रहे हैं। शायद युद्ध ख़त्म होने के बाद ही हम फिर से इंसान की तरह महसूस कर पाएंगे।" ग़ादा अपने भाई और उसके परिवार को खो चुकी हैं। उनकी दो बेटियां हैं, जिनके भविष्य की चिंता उन्हें हर पल खाए जाती है।
मौत से पहले का संदेश
युवा पत्रकार शबात का आखिरी संदेश सोशल मीडिया पर सामने आया है। उन्होंने लिखा था की "अगर आप इसे पढ़ रहे हैं तो समझ लीजिए कि शायद इसराइली सेना ने मुझे मार दिया गया है। मैंने 18 महीनों तक भूख और मौत के बीच अपने लोगों की कहानी दर्ज की है। दुनिया से गुज़ारिश है कि ग़ज़ा के बारे में बोलना बंद मत कीजिए।" कुछ ही दिनों बाद शबात इसराइली हमले में मारे गए। उनके शब्द आज भी गूंज रहे हैं।
दक्षिणी ग़ज़ा (Gaza) के खान यूनिस में पत्रकार (Journalist) मोहम्मद मंसूर की भी मौत हो गई। यह हमला उनके घर पर ही हुआ था, जिसमें उनकी पत्नी और बेटे की भी जान चली गई। यह हमला भी बिना किसी चेतावनी के किया गया था ।
25 वर्षीय फातिमा हसौना की कहानी पूरे ग़ज़ा के दर्द को बयान करती है। कुछ ही दिनों बाद उनकी शादी होने वाली थी, लेकिन एक मिसाइल ने उनकी जान ले ली। उनके साथ परिवार के 10 सदस्य और भी मारे गए थे, जिनमें उनकी गर्भवती बहन भी शामिल थीं। फातिमा ने लिखा था "अगर मैं मरती हूं तो मेरी मौत की आवाज़ दूर तक गूंजे। मैं सिर्फ़ एक आंकड़ा नहीं बनना चाहती। मैं चाहती हूं कि मेरी छवि वक्त या ज़मीन कभी मिटा न सके।" उनके आखिरी वीडियो और तस्वीरों को ईरानी फिल्मकार सेपीदे फ़ारसी ने डॉक्यूमेंट्री ‘Put Your Soul on Your Hand and Walk’ में शामिल किया था। यह फिल्म फ्रांस में प्रदर्शित होने वाली थी। लेकिन फातिमा की मौत ने इसे उनकी यादगार बना दिया। फ़ारसी का कहना है की, "फातिमा बेहद संवेदनशील और बहादुर थीं। मैंने हमले से कुछ घंटे पहले उनसे बात की थी। उन्होंने डर कभी नहीं दिखाया, सिर्फ़ अपने कैमरे से सच्चाई दुनिया तक पहुंचाने का वादा किया।"
ग़ज़ा (Gaza) में पिछले 18 महीनों में लगभग 208 पत्रकार मारे गए हैं । ग़ज़ा के सरकारी मीडिया कार्यालय ने इसे सुनियोजित हत्या बताया है और कहा है कि इस अपराध की ज़िम्मेदारी इसराइल और उसके सहयोगी देशों पर है। दुनिया भर के 27 देशों ने जैसे - ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान और ऑस्ट्रेलिया समेत सभी ने इसराइल से मांग की है कि विदेशी पत्रकारों को ग़ज़ा में प्रवेश दिया जाए और वहां रिपोर्टिंग (Reporting) करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
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मार्च 2024 में युद्धविराम टूटने के बाद से ग़ज़ा पर हमले तेज़ हो गए हैं। लगातार बमबारी में अब तक 51,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं। अकेले एक हफ़्ते की बमबारी में 700 से ज़्यादा लोग मारे गए। ग़ज़ा का स्वास्थ्य मंत्रालय बताता है कि 1.13 लाख से अधिक लोग घायल हैं। अस्पताल तबाह हैं, दवाएं खत्म हो रही हैं और डॉक्टरों के पास साधन नहीं है।
ग़ज़ा के पत्रकार (Journalist) दोहरी ज़िंदगी जी रहे हैं, एक ओर वो खुद बमबारी, भूख और बेघर होने का दर्द झेल रहे हैं, दूसरी ओर उसी दर्द को दुनिया तक पहुंचा रहे हैं। उनके कैमरे और कलम यह साबित कर रहे हैं कि पत्रकारिता सिर्फ़ पेशा नहीं बल्कि सच्चाई को ज़िंदा रखने का संकल्प है। हर दिन मौत का डर, परिवार का ग़म और भूख-प्यास के बीच भी वो अपना काम रोकते नहीं हैं।
फातिमा हसौना जैसे युवा पत्रकार की आखिरी ख्वाहिश, शबात का अंतिम संदेश और अब्दुल्लाह मिक़दाद का डर हमें यह याद दिलाते हैं कि ग़ज़ा की पत्रकारिता सिर्फ़ खबर नहीं है यह ज़िंदगी और मौत के बिच की लड़ाई है।
यह पूरी कहानी से हमें यह समझ आता है कि ग़ज़ा में पत्रकार केवल घटनाओं को कवर नहीं कर रहे है, बल्कि वो खुद उस त्रासदी का हिस्सा हैं। उनकी हर रिपोर्ट, हर तस्वीर और हर वीडियो दुनिया से यह पुकार कर रही है की "ग़ज़ा को मत भूलिए, हमारी आवाज़ को ज़िंदा रखिए।" [Rh/PS]