![Sushila Karki, first woman prime minister of Nepal [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-09-15%2Fedfy38at%2Fassetstask01k574vdyzfghsvn4ag3q58wcc1757955431img1.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
जब नेपाल पूरी तरह से प्रोटेस्ट से जूझ रहा था तब नेपाल की बागडोर को संभालने के लिए एक कड़क और अच्छे नेतृत्व की जरूरत थी और इसलिए नेपाल ने प्रधानमंत्री के रूप में चुना सुशीला कार्की (Sushila Karki) को। एक न्यायाधीश से संविधान-रक्षक बनी, और अब एक ऐसे राजनीतिक तूफ़ान के बीच में प्रधानमंत्री, जिनके सामने चुनौतियाँ सिर्फ़ कानून नहीं, लोगों की उम्मीदें और देश की आत्मा हैं। एक ऐसी यात्रा जिसमें संघर्ष है परिवार की गरीबी से लेकर भारत के माहौल में शिक्षा, न्यायपालिका में कठोर फैसले, फिर विवादों की आंधी, और आज राष्ट्रीय जीवन का बड़ा मोड़ जो है नेतृत्व संभालना। उनकी न्यायिक सेवा ने उन्हें नेपाल की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचाया जहाँ उन्होंने कर्तव्यनिष्ठा और भ्रष्टाचार-विरोधी निर्णयों के लिए पहचान बनाई।
अब, ये वही सुषिला कार्की (Sushila Karki, first woman prime minister of Nepal), “Gen - Z” आंदोलन की पुकार पर, सत्ता का दायित्व उठाए हुए हैं। सुशीला कार्की एक संकटमोचन प्रधानमंत्री की भूमिका में है जिसमें संविधान, सामाजिक न्याय और देश के भविष्य की कसौटी है। आज हम उनकी पूरी ज़िंदगी शिक्षा, न्यायिक करियर, विवाद, राजनीतिक सफर और विशेष रूप से उनका भारत से कौन‑सा रिश्ता है, जो शायद इस नई भूमिका को और भी ज़मीनी और संवेदनशील बनाता है।
कौन हैं सुषिला कार्की? एक साधारण गांव की बेटी से देश की सबसे बड़ी कुर्सी तक
सुषिला कार्की (Sushila Karki) का जन्म 1952 में नेपाल (Nepal) के सुनसरी ज़िले के बिराटनगर के पास एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता एक किसान थे और माता गृहिणी। सात भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के नाते, बचपन से ही उन पर परिवार की ज़िम्मेदारियाँ थीं। सामाजिक रीति-रिवाज़ों और पितृसत्तात्मक सोच से भरे उस दौर में एक लड़की के लिए पढ़ाई करना ही एक क्रांति जैसा था लेकिन सुषिला कभी पीछे नहीं हटीं। उनका शुरुआती जीवन कठिनाइयों से भरा था, पर उन्होंने पढ़ाई के प्रति जुनून कभी कम नहीं होने दिया। उनकी शिक्षा की शुरुआत स्थानीय सरकारी स्कूल से हुई। फिर आगे चलकर उन्होंने मानेन्द्र मोरंग कॉलेज से कला (Humanities) में स्नातक की पढ़ाई की।
इसके बाद वे भारत के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) गईं, जहाँ उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (MA in Political Science) की डिग्री हासिल की। यह वही समय था जब उन्होंने सामाजिक न्याय, संविधान और लोकतंत्र की गहराइयों को समझना शुरू किया। वह भारत में पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक आंदोलनों और लोकतांत्रिक संघर्षों से प्रेरित हुईं। यही प्रेरणा आगे चलकर उनके न्यायिक करियर की नींव बनी एक ऐसा करियर जो उन्हें नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) बनाने तक लेकर गया, और अब देश की प्रधानमंत्री बना चुका है।
न्याय के रास्ते पर सुषिला कार्की की निर्भीक यात्रा
सुषिला कार्की (Sushila Karki) का न्यायिक करियर नेपाल की न्यायपालिका के इतिहास में एक अहम मोड़ था। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक वकील के रूप में की, लेकिन उनकी स्पष्ट सोच, गहरी संवैधानिक समझ और निर्भीक व्यक्तित्व ने उन्हें जल्द ही ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। 2009 में वे नेपाल की सर्वोच्च अदालत की न्यायाधीश बनीं और फिर 2016 में उन्होंने इतिहास रचते हुए देश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश ((Sushila Karki, First Chief Justice Of Nepal) बनने का गौरव प्राप्त किया। उनके कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई ऐसे फैसले सुनाए जो उस समय की सत्ता और संस्थाओं के लिए असहज करने वाले थे।
उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया (Sushila Karki Fought for corruption), चाहे वह सेना से जुड़ा मामला हो या मंत्रियों की जवाबदेही का सवाल उनका न्याय, सत्ता से ऊपर और जनता के पक्ष में खड़ा रहा। लेकिन जहाँ उनके फैसलों ने आम लोगों के दिलों में उनके लिए सम्मान पैदा किया, वहीं सत्ता के गलियारों में असहजता भी बढ़ी। 2017 में उनके खिलाफ संसद में महाभियोग (Impeachment Motion) लाया गया, जिसे व्यापक रूप से राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में देखा गया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने न्यायिक अधिकारों का दुरुपयोग किया, लेकिन यह आरोप तब और संदिग्ध लगने लगे जब जनता, बुद्धिजीवी वर्ग और कई मानवाधिकार संगठनों ने उनके समर्थन में आवाज़ उठाई। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इस महाभियोग को असंवैधानिक ठहराते हुए उन्हें बहाल कर दिया। इस पूरे प्रकरण ने न सिर्फ़ उनकी प्रतिष्ठा को और ऊँचा किया, बल्कि उन्हें एक ऐसी सार्वजनिक शख्सियत में तब्दील कर दिया जो सिर्फ न्यायपालिका की नहीं, बल्कि पूरे देश की नैतिक आवाज़ बन चुकी थीं।
सुषिला कार्की का प्रधानमंत्री बनने का सफर
सुषिला कार्की (Sushila Karki) का न्यायिक करियर भले ही 2017 में खत्म हुआ हो, लेकिन उनका सामाजिक प्रभाव कहीं खत्म नहीं हुआ था। न्यायपालिका से विदाई के बाद उन्होंने राजनीति में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, लेकिन जनचेतना, सामाजिक न्याय और पारदर्शिता के मुद्दों पर उनकी आवाज़ बराबर गूंजती रही। वे भले किसी राजनीतिक दल की सदस्य नहीं थीं, लेकिन उनकी छवि एक निष्पक्ष, ईमानदार और निर्भीक नेता की बन चुकी थी, जो सत्ता के दबाव में भी झुकती नहीं थी।
2020 के बाद नेपाल लगातार राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता संघर्ष और जनता में भरोसे की कमी से जूझ रहा था। एक के बाद एक सरकारें आईं और गईं। भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, और महंगाई से जनता परेशान थी। ऐसे समय में युवाओं, बुद्धिजीवियों और नागरिक समूहों के बीच एक नई चर्चा शुरू हुई क्या नेपाल को अब राजनीति से ऊपर उठकर किसी ऐसे चेहरे की ज़रूरत है जो ईमानदारी, न्याय और नेतृत्व का सही मेल हो? इसी माहौल में एक जनचेतना अभियान शुरू हुआ, जिसे सोशल मीडिया ने और हवा दी। सड़कों पर पोस्टर लगे, विश्वविद्यालयों में बहसें छिड़ीं, और हर तरफ़ एक नाम गूंजने लगा सुषिला कार्की(Sushila Karki)। शुरू में उन्होंने खुद को इस अभियान से अलग रखा, लेकिन जब जनता का दबाव और समर्थन दोनों बढ़ने लगे, तब उन्होंने संकेत दिए कि अगर देश को उनकी ज़रूरत है, तो वे पीछे नहीं हटेंगी। 2025 की शुरूआत में जब देश फिर एक राजनीतिक संकट में फँस गया और संसद में कोई भी दल बहुमत नहीं ला पाया, तो कई विपक्षी दलों और निर्दलीय सांसदों ने मिलकर सुषिला कार्की (Sushila Karki) के नाम पर सहमति जताई।
यह एक असामान्य लेकिन ऐतिहासिक फैसला था एक ऐसी नेता जो न तो किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ी थीं, न ही पारंपरिक सत्ता ढांचे की हिस्सा, लेकिन फिर भी जनता के दिलों की नेता बन चुकी थीं। फिर 12 सितंबर 2025 को, नेपाल ने इतिहास रच दिया। सुषिला कार्की ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, एक नई उम्मीद और एक नई राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत के साथ। वे नेपाल की पहली महिला न्यायाधीश ही नहीं, अब देश की पहली गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आई महिला प्रधानमंत्री बन चुकी थीं। उनका यह सफर किसी फिल्मी कहानी जैसा लगता है लेकिन यह उस देश की असलियत है, जो अब बदलाव की राह पर चल पड़ा है।
सुषिला कार्की और भारत का एक खास रिश्ता
सुषिला कार्की (Sushila Karki) का भारत से रिश्ता सिर्फ़ एक पड़ोसी देश का औपचारिक नाता नहीं था ये रिश्ता था आत्मिक, बौद्धिक और वैचारिक विकास का। एक समय था जब नेपाल की सीमाएँ उन्हें सीमित करती नज़र आती थीं, लेकिन उनके सपनों ने उन्हें बनारस तक पहुँचा दिया वहाँ, जहाँ ज्ञान सिर्फ़ किताबों में नहीं, गलियों की धड़कनों में बहता है। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर किया वही BHU जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, समाज सुधार आंदोलनों और विचारों की प्रयोगशाला रहा है।
वहाँ उन्होंने न सिर्फ़ राजनीतिक सिद्धांत पढ़े, बल्कि भारत की विविधता, लोकतांत्रिक परंपराएँ और सामाजिक न्याय की जमीनी लड़ाइयों को करीब से देखा। यही वो दौर था जब उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की ताकत और उसकी कमजोरियों को भी महसूस किया। भारत में रहते हुए उन्होंने जेपी आंदोलन, नारी सशक्तिकरण, और संविधान की आत्मा जैसे मुद्दों पर गहरी रुचि ली। यही अनुभव बाद में उनके न्यायिक फैसलों में झलकता रहा संवैधानिक मूल्यों की गहरी समझ, सत्ता पर सवाल उठाने की हिम्मत, और जनता के अधिकारों की रक्षा का जुनून। दिलचस्प बात यह भी है कि वे अक्सर अपने भाषणों में गांधी, अम्बेडकर और नेहरू जैसे भारतीय नेताओं का ज़िक्र करती रही हैं। उनका मानना था कि "सच्चे लोकतंत्र की परीक्षा तब होती है, जब न्याय सत्ता के सामने टिक सके और भारत ने यह संघर्ष लड़ा है, जिससे हमें भी सीखना चाहिए।
"प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपने पहले भाषण में भारत का ज़िक्र किया यह कहते हुए कि "नेपाल और भारत का रिश्ता सिर्फ़ भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक है। मैंने भारत से लोकतंत्र सीखा, और अब उसे अपने देश में जीना चाहती हूँ।" इस प्रकार, भारत सुषिला कार्की के लिए सिर्फ़ एक देश नहीं रहा, बल्कि उनके विचारों की पाठशाला और संविधान की पहली अनुभूति का स्रोत बना। उनके नेतृत्व में अब नेपाल और भारत के संबंधों में भी नई गर्मी और नई समझदारी की उम्मीद की जा रही है एक ऐसा रिश्ता जो सीमाओं से नहीं, दिलों से जुड़ा हो।
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सुषिला कार्की (Story Of Sushila Karki) की यात्रा केवल एक व्यक्ति की सफलता की दास्तान नहीं है यह उस समाज की कहानी है जो बदलाव चाहता है, जो ईमानदारी को सम्मान देना सीख रहा है, और जो सत्ता को ज़िम्मेदारी समझने लगा है। एक किसान की बेटी से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत की न्यायाधीश और अब नेपाल की प्रधानमंत्री (Prime Minister of Nepal) बनने तक का उनका सफर न सिर्फ़ प्रेरणादायक है, बल्कि यह दर्शाता है कि अगर इरादे साफ हों और नीयत मजबूत, तो कोई भी दीवार इतनी ऊँची नहीं कि पार न की जा सके। उनकी न्यायप्रियता, साफ़गोई और व्यवस्था में सुधार की सोच ने उन्हें राजनीति में एक नया विकल्प बना दिया।
अब जब वे सत्ता की कुर्सी पर बैठी हैं, तो उनसे केवल फैसलों की नहीं, एक नई राजनीतिक संस्कृति की उम्मीद की जा रही है जहाँ पारदर्शिता हो, संवेदनशीलता हो और सबसे ज़्यादा, जनता के लिए जवाबदेही हो। भारत से मिला वैचारिक पोषण, नेपाल की मिट्टी में पले विचार, और जीवन के संघर्षों से मिली संवेदनशीलता ये सभी चीज़ें उन्हें एक ऐसा नेता बनाती हैं जो परंपरा और परिवर्तन के बीच पुल बन सकता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सुषिला कार्की (Sushila Karki) उसी ईमानदारी और न्याय की भावना के साथ देश को भी नई दिशा दे पाएंगी, जैसे उन्होंने अपने जीवन और न्यायिक करियर को दिया। लेकिन इतना तय है नेपाल ने अब एक नई सुबह की ओर क़दम बढ़ा दिया है, और उस सुबह की पहली किरण का नाम है: सुषिला कार्की। [Rh/SP]