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वह हमें राह दिखा कर चले गए, मगर उस पर चलना हमें है

NewsGram Desk

18वीं सदी में किसी कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाना किसी चुनौती से कम था, किसी महिला के लिए यह एक संघर्ष के समान था। डॉ. रखमाबाई राउत इस वाक्य की सबसे सटीक उदाहरण हैं। शायद रखमाबाई वह पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने अपने पति से तलाक की मांग की थी। जिस ज़माने में भारतीय महिलाओं की आवाज़ को भरपूर दबाया जाता था उसमे रखमाबाई ने महिलाओं के लिए आवाज़ उठाने का काम किया था। 

वर्ष 1864 बम्बई (तल्कालिन बॉम्बे) में जन्मी रखमाबाई की महज़ ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही शादी कर दी गई और वह भी बिना किसी सहमति और बिना उनके मन की बात को जाने जिस वजह से वह अपनी मां के संग रहीं।

वर्ष 1887 में जब उनके पति दादाजी भीकाजी ने कोर्ट में वैवाहिक अधिकारों के लिए याचिका दायर की तब रखमाबाई ने यह कहते हुए अपना बचाव किया था कि उन्हें इस शादी के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता क्योंकि इस शादी के लिए उन्होंने कभी सहमति नहीं दी और जिस समय यह शादी हुई तब वह बहुत छोटी थीं। इस तर्क पर उस समय भी अदालत ने एक महिला की आवाज़ दबाने का काम किया और उन्होंने रखमाबाई को दो विकल्प दिए, पहला, या तो वह अपने पति के पास चली जाएं या फिर छह महीने का कारावास भोगे।

रखमाबाई ने अपने अधिकार और आत्म-सम्मान के लिए कारावास को चुना जो की उस समय के लिहाज़ से बेहद ऐतिहासिक और साहसिक कदम था। इस मामले ने उस समय काफी तूल पकड़ा और तो और उनकी आलोचना भी हुई। आलोचनाओं ने इस तरह अपनी पैठ बना ली थी कि स्वतंत्रता सैनानी बालगंगाधर तिलक ने भी अपने अख़बार में उनके खिलाफ लिखा। रखमाबाई के इस साहसिक कदम को तिलक ने हिंदुत्व पर धब्बे के रूप में दर्शाया। 

उन्होंने यह भी लिखा कि रखमाबाई के साथ वैसा ही व्यव्हार होना चाहिए जैसा चोर और हत्यारे के साथ किया जाता है। मगर अपने दृढ़ संकल्प और आत्म-सम्मान के लिए रखमाबाई अपने फैसले पर डटी रहीं और वापस नहीं गई।  इस संघर्ष को अपने सौतेले पिता सखाराम अर्जुन के समर्थन से जारी रखा और तलाक के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ीं। अपने पक्ष में फैसला न आने पर भी उन्होंने अपनी लड़ाई को कमजोर न होने दिया। यहां तक कि अपने शादी को खत्म करने के लिए रानी विक्टोरिया को पत्र भी लिखा और परिणाम स्वरुप रानी ने अदालत के फैसले को पलट दिया। अंत में उनके पति ने मुकदमा वापस ले लिया और रूपये के बदले ये मामला कोर्ट के बाहर की सुलझा लिया। 

इस घटना के बाद भारत में 'एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट 1891' कानून को पारित किया गया जिस के तहत भारत में किसी भी लड़की (विवाहित या अविवाहित) से यौन संबंध बनाने की सहमति लिए जाने की उम्र 10 से बढ़ाकर 12 कर दी गई। आज के नज़रिये से इस बदलाव को कोई मोल न दिया जाए मगर उस समय यह पहली बार था कि एक लड़की से यौन संबंध बनाने पर भी सजा हो सकती है और इसके उल्लंघन को बलात्कार के श्रेणी में रखा गया। खास बात यह थी कि इस कानून को पारित कराने में रखमाबाई की अहम भूमिका थी। 

रखमाबाई भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनी।

इस संघर्ष से पहले भी ऐसी ही कुछ कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाई गई थी, मगर वह किसी महिला ने नहीं बल्कि एक पुरुष के खुले विचार और कुप्रथाओं के बढ़ते चलन के रोक-थाम के लिए किया था। वह थे 'आधुनिक भारत के निर्माता' और समाज सुधारक 'राजा राम मोहन राय'।

22 मई 1772 ई में जन्मे राजा राम मोहन राय एक ऐसे युग में पैदा हुए जिसमें हर तरफ अंधकारमय वातावरण था, देश कई आर्थिक व सामाजिक समस्याओं से लिप्त था। जैसे-जैसे उनके आयु में विस्तार हुआ उन्होंने अन्य धर्मों के विषय में पढ़ना शुरू किया, उन्हें आभास होने लगा कि कुछ परंपराएं अन्धविश्वास की जकड़ में हैं और इन्हे सुधारने की जरुरत है। राय मूर्ति पूजा के भी खिलाफ थे जिस वजह से उन्हें भी कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

वह ब्रह्म समाज के संस्थापक भी थे और इसी के माध्यम से अपने विचार दूसरों तक पहुंचाते थे। मुगल सम्राट अकबर 'द्वितीय' ने उन्हें राजा की उपाधि दी।

समाज कई कुप्रथाओं और अन्धविश्वास से लदा हुआ था और कुछ परंपराएं तो ऐसी थीं जिन पर लगाम न लगाया जाता तो वह विनाश की कगार पर ले जाती। जैसे 'सती प्रथा' जिसमें एक विधवा को अपने मृत पति के साथ ही जला दिया जाता था, बहुपत्नी प्रथा का भी राय ने खुबजोर विरोध किया और बाल विवाह पर रखमाबाई से पहले राय ने ही इसका विरोध किया था। कानूनी रूप से सती प्रथा के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी और वर्षों के संघर्ष के बाद वह इसमें सफल रहे। अन्य कुरीतियां जैसे दहेज प्रथा या महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर उन्होंने खुलकर विरोध किया और बेबाक अपना पक्ष रखा।

राय ने हिन्दू समाज से होते हुए भी हिन्दू कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ को बुलंद किया जो कि उस समय के लिहाज से अत्यंत ही साहसिक कदम था क्योंकि उस समय अपने धर्म के खिलाफ जाना मतलब मृत्यु या देशनिकाला। किन्तु राजा राम निडरता से लड़े और कई बार सफल हुए।

अंत में

राजा राम मोहन राय एवं डॉ. रखमाबाई राउत ने कुरीतियों के खिलाफ अपनी अवाज़ा को बुलंद किया, कई विरोध और आलोचनाओं के उपरांत भी अपने पथ पर अग्रसर रहे। किन्तु कुछ सवाल आज हमें स्वयं से भी करना चाहिए कि क्या सच में उनके उस संघर्ष को कोई ठिकाना मिला है? क्या भारत में बेटियों के खिलाफ अत्याचार खत्म हो गए हैं? और ऐसा क्यों है कि राजा राम मोहन राय के विचारों को केवल भाषणों में सिमित कर दिया है और रखमाबाई को कहीं भुला दिया गया है? जबकि यही समय है उन विचारों को दोहराने का और उन्हें अपनाने का।

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