असरानी: जिस कलाकार को नकारा गया, वही कॉमेडी का चेहरा बन गया [Wikimedia commons] 
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हीरो बनने निकले थे, कॉमेडी का चेहरा बन गए : असरानी का सफर संघर्ष से सितारों तक

स्कूल से भागकर फिल्में देखने वाला एक लड़का जब सपनों की दुनिया मुंबई पहुंचा, तो उसके हिस्से आई सिर्फ ठोकरें और तिरस्कार। लेकिन जुनून ने हार नहीं मानी। असरानी (Asrani) ने अपने अभिनय, कॉमिक टाइमिंग और जज्बे से वो मुकाम पाया जिससे कि आज भी उनका यह डायलॉग "हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं..." अमर बन चुका है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

1 जनवरी 1941 को पंजाब के गुरदासपुर में जन्मे गोवर्धन असरानी (Govardhan Asrani) , जिन्हें आज हम सिर्फ 'असरानी (Asrani)' के नाम से जानते हैं,ये फिल्मों के जबरदस्त दीवाने थे। बचपन में उनका शौक था स्कूल से भागकर सिनेमा देखना । लेकिन उनके पिता चाहते थे कि उनका बेटा एक सम्मानित सरकारी अफसर बने। परिवार वालों को उनका फिल्मी लगाव पसंद नहीं आता था और सिनेमा देखने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थी। लेकिन असरानी का फिल्मी जुनून समय के साथ और तेज होता चला गया।

एक दिन असरानी (Asrani) चुपचाप घर से निकल पड़े और मुंबई की ओर चल दिए, सिर्फ एक सपना लिए कि अभिनेता बनना है। लेकिन मुंबई की चमकती दुनिया जितनी आकर्षक लगती है, अंदर से उतनी ही कठोर होती है। असरानी महीनों काम की तलाश में भटके, लेकिन न कोई रोल मिला और न ही कोई पहचान मिली।हर तरफ से उन्हें निराशा ही रही, लेकिन उम्मीद उनके दिल में हमेशा ज़िंदा रही।

असरानी (Asrani) के शुरुआती करियर में उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में बहुत संघर्ष करना पड़ा। जब वे पहली बार मुंबई आए, तो उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता था। प्रोड्यूसर-डायरेक्टर्स उन्हें देखकर कहते थे, तुम्हें क्या रोल दिया जाए ? तुम किसी हीरो जैसे लगते नहीं हो, न खलनायक जैसे, न ही किसी खास कैरेक्टर जैसे लगते हो । दरअसल, असरानी (Asrani) न तो परंपरागत हीरो जैसे लंबे-चौड़े और हैंडसम थे, न ही विलेन की तरह कोई दबदबा उनके चेहरे-मिजाज में था। उनके चेहरे में एक आम आदमी जैसी सादगी और मासूमियत थी। उस दौर में या तो बहुत गंभीर हीरो लिए जाते थे, या बहुत दमदार कॉमेडियन जिनकी अलग ही बॉडी लैंग्वेज हो।

उसके बाद मुंबई में संघर्ष करते हुए किसी ने उन्हें सलाह दी कि फिल्मों में एंट्री के लिए पुणे के Film and Television Institute of India (FTII) से एक्टिंग सीखना जरूरी होगा। साल 1960 में जब FTII की पहली बैच के लिए विज्ञापन छपा, असरानी ने आवेदन भेजा और चुन लिए गए। 1964 में उन्होंने एक्टिंग का डिप्लोमा पूरा किया और फिर से मुंबई लौटे, एक नई उम्मीद के साथ।

मुंबई लौटकर असरानी (Asrani) को छोटे-मोटे रोल मिलने लगे। एक दिन एक फिल्म 'सीमा' के गाने में वो नज़र आए। जब घरवालों ने उन्हें पर्दे पर देखा, तो नाराज़ होकर सीधे मुंबई पहुंचे और जबरन वापस गुरदासपुर ले गए। कुछ दिन घर में रहने के बाद असरानी ने फिर से अपने सपनों को चुना और किसी तरह परिवार को मनाकर एक बार फिर मुंबई लौट आए। मुंबई में काम न मिलने पर वो पुणे वापस लौटकर FTII में टीचर की नौकरी स्वीकार की। लेकिन यह उनकी मंज़िल नहीं थी, सिर्फ एक पड़ाव था। वहां रहते हुए उनका संपर्क कई फिल्म निर्माताओं से हुआ और यही पर बना उनकी किस्मत का मोड़।

असरानी का जीवन किसी फिल्मी टीवी शो से कम नहीं है,उनका बचपन से फिल्मी दीवानगी, घर से भागना, संघर्ष, शिक्षक बनना, और फिर अपनी काबिलियत से लाखों दिलों पर राज करना। Wikimedia commons

1969 में ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'सत्यकाम' में असरानी को एक छोटा सा रोल मिला। फिर 1971 में आई ‘गुड्डी’, जिसमें उन्होंने कॉमिक रोल निभाया और दर्शकों के दिलों में जगह बना ली। यहीं से असरानी (Asrani) पर ‘कॉमेडियन’ का टैग चिपक गया। 1975 की ‘शोले’ फिल्म में उनका किरदार छोटा जरूर था, लेकिन डायलॉग, “हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं” आज भी लोग दोहराते हैं। इस एक लाइन ने असरानी को अमर कर दिया। उस दौर में जॉनी वॉकर फिल्मों से गायब हो रहे थे और महमूद का करियर ढलान पर था, ऐसे में असरानी (Asrani) कॉमेडी का नया चेहरा बनकर उभरे। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘बावर्ची’ के दौरान असरानी की दोस्ती सुपरस्टार राजेश खन्ना से हो गई। दोनों ने साथ में 25 फिल्में कीं, जिनमें से 21 हिट रहीं। ‘नमक हराम’, ‘रोटी’, ‘अनुरोध’, ‘चुपके चुपके’, ‘छोटी सी बात’, ‘बावर्ची’ जैसी फिल्में असरानी की यादगार फिल्मों में शुमार हैं।

असरानी (Asrani) ने अभिनय के साथ-साथ निर्देशन में भी हाथ आज़माया। 1977 में उन्होंने ‘चला मुरारी हीरो बनने’ नामक सेमी-बायोग्राफिकल फिल्म बनाई, जो उनकी खुद की जिंदगी पर आधारित थी, एक लड़का जो घर से भागकर हीरो बनने आता है। फिल्म नहीं चली, लेकिन असरानी (Asrani) ने हार नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने ‘सलाम मेमसाब’, ‘हम नहीं सुधरेंगे’, ‘दिल ही तो है’, और ‘उड़ान’ जैसी फिल्में भी बनाई। असरानी ने गुजराती फिल्मों में भी खूब नाम कमाया। उन्होंने 1974 में ‘अहमदाबाद गाय रिक्शेवालो’ डायरेक्ट की। हिंदी सिनेमा में पहचान मिलने से पहले ही वो गुजराती सिनेमा में कायम हो चुके थे।

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कॉमेडी में नाम कमाने वाले असरानी (Asrani) ने ‘कोशिश’, ‘चैताली’, ‘तेरी मेहरबानियां’, और ‘अब क्या होगा’ जैसी फिल्मों में गंभीर और निगेटिव किरदार भी निभाए। लेकिन दर्शकों ने हमेशा उन्हें एक कॉमेडियन के रूप में ही देखा। 1990 के दशक में जब हीरो खुद ही कॉमेडी करने लगे, उसके बाद असरानी (Asrani) के लिए स्कोप घट गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। 2000 के बाद भी उनकी दूसरी पारी शुरू हुई ‘हेरा-फेरी’, ‘मालामाल वीकली’, ‘भागमभाग’, ‘गरम मसाला’, ‘बोल बच्चन’ जैसी फिल्मों में वे फिर से छाए रहे। इतनी शोहरत, इतनी फिल्में, लेकिन असरानी का लगाव एक्टिंग और उसके शिक्षण से कभी भी टूटा नहीं । आज भी वो पुणे के FTII में छात्रों को एक्टिंग सिखाते हैं। उनका जीवन छात्रों के लिए एक प्रेरणा है कैसे संघर्ष, समर्पण और मेहनत से एक आम लड़का 'असरानी' बन गया।

निष्कर्ष:

असरानी (Asrani) का जीवन किसी फिल्मी टीवी शो से कम नहीं है,उनका बचपन से फिल्मी दीवानगी, घर से भागना, संघर्ष, शिक्षक बनना, और फिर अपनी काबिलियत से लाखों दिलों पर राज करना। कॉमेडी में टाइमिंग हो या किरदार में गहराई, असरानी ने अपने अभिनय से सिनेमा के हर पहलू को छुआ है। वो न सिर्फ एक अभिनेता हैं, बल्कि हिंदी फिल्मों के कॉमिक युग के स्तंभ भी हैं। "हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं..." ये डायलॉग असरानी (Asrani) की पहचान बन चुका है, और उनकी ज़िंदगी खुद एक मज़बूत, जीवित और प्रेरणादायक कहानी है, जिसे बार-बार दोहराया जाना चाहिए। [Rh/PS]

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