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हिंदू -मुसलमान दूर से नजर नहीं आते कि वह किस धर्म से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन सिखों की पगड़ी तो कफन है कफन।

न्यूज़ग्राम डेस्क

-अनिल गाँधी

पाँच नवंबर, 1984

राजधानी दिल्ली में दंगों पर क़ाबू पा लिया गया था। गलियों में, सड़कों पर, बस स्टॉप पर और रेलवे स्टेशन पर एक भी सिख नज़र नहीं आ रहा था। जैसे दिल्ली में सिख थे ही नहीं या फिर पूरी क़ौम का सफ़ाया कर दिया गया हो। कितने सिखों का क़त्लेआम हुआ? सरकारी आँकड़े कितने हैं या कितने हो सकते हैं, आकाशवाणी और दूरदर्शन के समाचारों में ज़िक्र तक नहीं था। बीबीसी और अन्य विदेशी समाचार एजेन्सीयाँ खुलकर सही तस्वीर बता रहीं थी।

जय और गुरकीरत दोनों भाई पिछले पाँच दिनों से हर घंटे बीबीसी  ऐसे सुन रहे थे जैसे न्‍यूज़ मॉनिटरिंग उनका पेशा हो। पेशे से गुरकीरत एमबीबीएस डॉक्टर था, आईएएस मेंस इम्तिहान की तैयारी कर रहा था। दिल्ली में सरकारी डिस्पेंसरी में पोस्टिंग थी और डिस्पेंसरी प्रांगण में ही एक छोटा सा फ्लैट अलॉट हो रखा था। जय देहरादून में एक प्राइवेट रेजिडेंशियल स्कूल में टीचर था। 31 अक्तूबर को ही देहरादून से दिल्‍ली पहुंच गया था। स्कूल का प्रिंसिपल सिख था। उसने यह कह कर रवाना कर दिया था कि तुम्हारा बड़ा भाई सिख है, उसकी हिफाजत तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा? जैसे तैसे  जय 31 अक्तूबर की शाम तक दिल्‍ली पहुंचकर मोर्चा संभाल लिया था। गुरकीरत आईएएस  इम्तिहान की तैयारी के रहते लंबी छुट्टी पर था। कीते (गुरकिरात) के पास अपट्रॉन का छोटी स्क्रीन का एक ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन था, जिस पर कभी कभी दूरदर्शन के प्रोग्राम देखे जाते थे, लेकिन शाम का मुख्य बुलेटिन देखना दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। इन दिनों क्योंकि लोग दिवंगत प्रधानमंत्री को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, प्रसारण चौबीसों घंटे था। लोगों को शांति बनाए रखने की अपील भी प्रसारित हो रही थी लेकिन क्‍यों, इसका कारण जानने के लिए दोनों भाई फिलिप्स जवान ट्रांजिस्टर पर बीबीसी के समाचारों पर कान लगाए रहते थे।

दंगे के बाद का दृश्य


जय और कीते सगे भाई। लेकिन धर्म अलग-अलग। कीते  बड़ा था। पंजाबी हिंदू मां-बाप ने पैदा होते ही उसे गुरु को समर्पित कर दिया था। गुरु माने सिख धर्म । इसलिए उसे सिख बना दिया था। नाम दिया गया गुरकीरत सिंह वल्द रामचंद अरोड़ा। हिंदू मां-बाप का सिख बेटा । जय दो साल छोटा था। जय अरोड़ा वल्द रामचंद अरोड़ा।

कीते और जय को पिछले 25-26 सालों में ऐसा कभी अहसास नहीं हुआ कि दोनों अलग-अलग धर्म से ताल्लुक रखते हैं। बचपन से उन्हें यही मालूम था कि बाबूजी आर्य समाजी होते हुए बीजी के आग्रह पर खास मौकों पर गुरुद्वारे जाते थे। अखंड पाठ घर में कराए जाते थे। पूरी आस्था के साथ अखंड पाठ में बाबूजी शिरकत करते थे, लेकिन थे पूरी तरह आर्यसमाजी। सुबह आरती और शाम को संध्या करना उनकी दिनचर्या का अभिन्‍न हिस्सा था। बीजी सर्दी, गर्मी, बरसात कोई भी मौसम क्‍यों न हो, नित सुबह गुरुद्वारे जाती थीं। रोज सुबह बीजी “एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैरू अकाल मूरति अजूनी सैभ गुर प्रसाद...” जप जी साहब की वाणी से घर को पवित्र करती थीं। लेकिन ऐसा नहीं था कि बीजी सिर्फ गुरुद्वारे में ही आस्था रखती थीं उनकी आस्था या यूं कहे विश्वास हिंदू धर्म के सभी देवी देवताओं में था। घर में मंगलवार को प्रसाद बंटता था तो शनिवार को शनि देवता को तेल चढ़ाया जाता था। कभी-कभार तो सोमवार का व्रत भी रखा जाता था। एक दौर आया जब शुक्रवार को संतोषी मां की पूजा भी की जाने लगी थी। कुल मिलाकर बीजी को हिंदू देवी-देवताओं में विश्वास था तो गुरु ग्रंथ में पूर्ण आस्था।

छह नवंबर सुबह दस बजे जय ने बात रखी कि अब सब कुछ लगभग सामान्य है तो क्यूं न वह वापस चला जाए। कीते चुप रहा। जय शायद उसकी मनःस्थिति को भांपने की कोशिश कर रहा था। जवाब नहीं आ रहा था। इसलिए वह समझ गया कि अभी कुछ और दिन उसे ठहरना पड़ेगा। पोस्ट ऑफ़िस ज़्यादा दूर नहीं था, झट से स्कूल को टेलीग्राम से सूचित कर दिया।

लगभग ग्यारह बजे दरवाजे पर बेल बजी। पिछले सात दिनों में पहली बार दरवाज़े पर दस्तक दिया गया था। दोनों को आश्चर्य मिश्रित उत्सुकता हुई। इन सात दिनों में जय ही फ्लैट से बाहर जा रहा था, छोटी-मोटी खरीद-फरोख्त के लिए। डोर बेल पिछले सात दिनों से खामोश पड़ी थी। कौन हो सकता है? दोनों भाइयों ने आंखों ही आंखों में एक-दूसरे से पूछा।

बीजी, बाबूजी और मामाजी? गांव से अचानक आगमन हतप्रभ करने वाला था! 

अनिल गाँधी की बहुचर्चित किताब

दोनों भाइयों ने चरण स्पर्श कर स्वागत किया। चारों बैठ गए। जय अभी खड़ा था लेकिन ज्यादा देर खड़ा नहीं रहना था क्योंकि छोटा होने के नाते उसे ही चाय-पानी-नाश्ते का इंतजाम करना था। 

हालचाल पूछा जा रहा था। कीते ने एक ही वाक्य में सारी बात खत्म कर दी...‘जय ने सब कुछ अच्छे से संभाल रखा है।’

 ‘वो तो हमें नजर आ रहा है वाहे गुरु की कृपा है...’ बीजी ने दोनों हाथ ऊपर कर दुआ के अंदाज में जवाब दिया। 

बाबू जी आदतन चुप थे। मामा जी शुद्ध हिंदी बोलना पसंद करते हैं। उनकी बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी का शब्द कभी-कभार ही सुनने को मिलता था। उन्होंने स्पष्ट किया कि बीजी को काफी चिंता हो रही थी। उन्हीं के आग्रह पर हम यहां हैं। कीते कुछ बोलने को ही था कि बाबूजी पहले बोल पड़े...'तैयारी कैसी चल रही है?’ बीजी को बाबूजी का प्रश्न अच्छा नहीं लगा...‘बताओ अगर मौत दहलीज़ पर खड़ी हो तो तैयारी हो सकती है?” कीते ने बीजी की बात का गर्दन हिला कर समर्थन किया। 

इस तरह एक घंटा बीत गया। माहौल मातमी था। छोटे-छोटे वाक्यों में दबे स्वरों में वार्तालाप हो रहा था। बीजी ने बाबूजी को एक ही बार में मौन कर दिया था। ममता बार-बार कीते के बदन को छूने का बहाना ढूंढ़ रही थी। बीजी कभी सिर पर तो कभी ठोढ़ी पर तो कभी पीठ पर हाथ से स्पर्श कर रही थी। अब कीते के हाथ को बीजी ने जकड़ लिया था।

बीजी रो रही थीं।

जय ने पानी पिलाकर शांत करने की कोशिश की। मामाजी ने माहौल की खामोशी तोड़ी ।

‘देखो कीते बेटा,हमारे यहां आने का एक विशेष उद्देश्य है। तुम यहां ख़ैरियत से हो-हमें यह जानकारी मिल गई थी। उस लिहाज से चिंता नहीं थी, लेकिन बीजी को मैं समझाने में कामयाब हो गया हूं कि हम हिंदू हैं, सिख नहीं।’

हिंदू -मुसलमान दूर से नजर नहीं आते कि वह किस धर्म से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन सिखों की पगड़ी तो कफन है कफन। यही वजह है हजारों सिखों को जिंदा जला दिया गया।
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यहां पर कीते ने कुछ बोलने का प्रयास ही किया था कि मामाजी ने तपाक से अपनी बात को जारी रखा...

‘पहले मुझे अपनी बात पूरी करने दो। बाबूजी मुझ से पूरी तरह सहमत हैं। बीजी को भी मना लिया है। आज दंगे खत्म हो गए हैं, लेकिन कब दुबारा हो जाएं, किसे पता? और फिर सिख तो दूर से पहचाने जाते हैं। हिंदू -मुसलमान दूर से नजर नहीं आते कि वह किस धर्म से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन सिखों की पगड़ी तो कफन है कफन। यही वजह है हजारों सिखों को जिंदा जला दिया गया। इसलिए वक्‍त आ गया है कि केश न रखे जाएं...अब यह कड़वा सच है कि हिंदू, सिख नहीं है और सिख, हिंदू नहीं है... हम हैं हिंदू, न कि सिख|

इतना कहने के बाद उन्होंने आहिस्ता से अपने काले बैग से एक बड़ी कैंची निकाल कर मेज के बीचोबीच रख दी। 'यह काम मैं करूंगा’...बहुत ही गौरवपूर्ण अन्दाज़ में बोलते हुए उन्होंने अपनी बात आगे जारी रखी...‘कैंची इसलिए साथ लाया हूं कि ऊपर के बाल काटकर तुम्हें मोना बना दिया जाए ताकि बाद में नाई के पास चलकर हेयरकट करवाने में सब कुछ सामान्य लगेगा... कुछ विशेष नहीं लगेगा। आज के इस माहौल में तो नाई भी घर पर आने में आनाकानी कर सकता है।’ यह स्पष्टीकरण लंबा था। कीता वैसे तो शांत स्वभाव का था लेकिन अवाक था...खून खौल रहा था। इससे पहले कि वह आपा खो दे वह उठ खड़ा हुआ। खिड़की से बाहर क्या देख रहा था, उसे खुद भी नहीं पता था।

सभी चुप थे। बीजी ने बाबू जी से इशारों इशारों में कहा कि वे कीते को समझाएं। बाबू जी ने अपने को असमर्थ पाया। जय कीते की तरफ बढ़ने लगा तो उसने दूर रहने की सलाह अपने एक हाथ से दी। मामा जी ने एक हाथ से हथेली दिखाते हुए संकेत दिया कि थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा। बीजी अपने को असहाय महसूस कर रही थीं।

‘वाहे गुरु वाहे गुरु वाहे गुरु... ए मेरे गुरु महाराज...बक्शीं...बक्शीं...माफ करीं...’ बीजी अपनी ठेठ पंजाबी में दोनों हाथ ऊपर कर रब से माफी मांग रही थीं। बाबूजी चुपचाप अपना समर्थन दे रहे थे। जय को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था लेकिन उसे मामा जी की बात में दम लग रहा था। हिंदू हैं तो हिंदुओं की तरह रहने में क्या बुराई है? चाहे दंगों पर काबू पा लिया गया था... लेकिन ऐसा आगे नहीं होगा कौन गारंटी दे सकता है? जय के दिमाग में चल रहे विचारों को कीते ने एकदम रोक दिया।

झटकते हुए वो पीछे मुड़ा। ऊंची आवाज़ में पूछा...‘मामाजी, आज आपने बीजी को मना लिया है। 26 साल पहले आप कहां थे? जब हिंदू मां-बाप ने अपने बड़े बेटे को सिख बना दिया? कैंची तो 26 साल पहले भी थी? जय की तरह बचपन में मेरा भी मुंडन होना चाहिए था। आपको नहीं लगता कि आज नहीं बल्कि आपको उस समय ख्याल आना चाहिए था कि हम हिंदू हैं, न कि सिख?’

अंतिम शब्दों में निहित प्रश्न को उसने रेखांकित करने वाली शैली में बोला।

मामा जी के पास ऐसे सवालों के जवाब थे। हर तर्क का काट था।

‘देखो बेटा तुम ही बताओ कि तुम्हें भी तो यही कोई एक-दो साल से महसूस हुआ होगा कि सिख-हिंदू अलग-अलग धर्म हैं। हिंदुस्तान से अलग हुए हिस्से में...जो आज पाकिस्तान है...वहाँ तुम्हारे दादा बड़े ज़मींदार थे। उनका अपना एक अलग गुरुद्वारा था। भाईजी आप बताओ ना? मामाजी ने बाबूजी को चुप्पी तोड़ने के लिए मजबूर किया।

‘हां, घर से तकरीबन आधे फर्लाग पर हमारा गुरुद्वारा था। उसे हम धर्मसाल कहते थे। उसमें बीड़ (गुरुग्रंथ साहब) थी...एक सेवादार था...रोज कड़ाहा(हलवा) प्रसाद तैयार होता था...संगत आती थी...कोई कहीं फर्क नहीं था सिखों और हिंदुओं में। वहाँ हमारे अपने घरों के चार बड़े बेटे गुरु की भेंट थे यानी सिख थे। ऐसा, जो अब हुआ... हिंदू सिखों का कल्लेआम करेंगे- कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था...’ यहां पर बीजी ने हस्तक्षेप किया।

‘वाहे गुरु जी का खालसा ते वाहे गुरुजी की फतेह। आज तेरे केश काटने का मतलब यह नहीं कि तू सिख नहीं रहेगा। तेरा नाम गुरकीरत सिंह रहना ही है। जैसे जय, तेरे बाबूजी गुरुद्वारे जाते हैं तू भी जाएगा। फर्क सिर्फ इतना है कि पगड़ी, केश नहीं होंगे...वो भी तेरी जिंदगानी के लिए। पुत्तर...पुत्तर समझा कर...’ एक बार फिर बीजी के आंसू टपक पड़े। अब वह अपने दुपट्टे से आंसू साफ करने लगी। कीते ने मेज पर पड़ा पानी का गिलास उनकी तरफ बढ़ा दिया।

‘बीजी,थोड़ा पानी पी लो।’ यह कहकर कीता मेज़ पर बैठ गया। बीजी के ठीक सामने। दोनों हाथ बीजी के कंधों पर रखकर कीते बीजी की आँखों में झांकने लगा। पलकें अचल थीं। भौंहों के ऊपर सरकने से माथे की सलवटें गहरी हो गईं। लेकिन उसके चेहरे पर मंद मुस्कराहट सबको आश्चर्यवकित कर रही थी। ‘कीते ने अपना रुख नर्म कर दिया है... लो कीता मान गया।’ सभी यही सोच रहे थे। 


बीजी ने एक घूंट पानी पिया और कीते से स्नेहपूर्वक विनती की...‘पुतर,मेरे लाल...अब इन हालात में केश रखना समझदारी नहीं है...’ 

“ये आप कह रही हैं?... बीजी को जवाब देने के लिए ही कीता मेज़ पर बैठ गया था...विश्वास नहीं होता...आपको याद है बीजी...जय को शायद याद होगा। बाबू जी, मामा जी आप सुनिए...इंटरेस्टिंग वाकया है...शायद बीजी ने कभी जिक्र भी किया हो...लेकिन पूरी बात सुनकर आपको भी विश्वास नहीं होगा कि केश काटने की बात बीजी अपनी जुबान से निकाल सकती है! ये बात है स्कूल डेज़ की। मैं सातवीं में था। एक दिन स्कूल पहुंचने में कुछ देरी हो गई थी। यही कोई पांच-सात मिनट लेट। स्कूल का नया प्रिंसिपल काफी ज़ालिम था। लेट पंहुचने पर मुर्गा बनाकर डंडे से पिटाई करता था। इतना सब कुछ करने के बाद उसने मेरी जूड़ी को पकड़ लिया। ज्यों ही उसने मेरी जूड़ी को टच किया, मैं बिगड़ गया। अपना आपा खो बैठा। प्रिंसिपल का हाथ झटकते हुए मैंने उसे आंखें दिखा दीं। उसने वापस घर भेज दिया और कहा कि अपने बाप को लेकर आओ। बाबू जी कहां से आते उनकी पोस्टिंग दूसरे शहर में थी। जब बीजी ने पूरी बात सुनी तो आग बबूला हो गईं... 'मुआ प्रिंसिपल...उसकी यह मजाल...जूड़ी पर हाथ कैसे लगा सकता है?” याद है बीजी आपने यह कहा था। सिर को दुपट्टे से ढंका....चप्पल पहनी और चल दी स्कूल की ओर। सब रोकते रहे,सीधे घुस गईं प्रिंसिपल के दफ्तर में।  स्कूल में अफरा-तफरी मच गई। बीजी ने प्रिंसिपल की मेज़ पर मुट्ठी ऐसे गाड़ दी जैसे सब कुछ कर गुज़रने की ठान रखी हो। याद है, बीजी आपने कड़क कर पूछा था प्रिंसिपल से...‘तेरी हिम्मत कैसे हुई जूड़ी छूने की?’ मास्टर लोग भी वहां पहुंच गए थे। उनकी सहानुभूति बीजी के साथ थी। ‘तू सज़ा दे... कौन रोकता है तुझे ?... तू बड़ी से बड़ी सज़ा दे अगर मेरे बेटे ने कोई बड़ी गलती की है। लेकिन खबरदार, आज के बाद जूड़ी को छुआ भी तो...’ प्रिंसिपल नाजुक स्थिति को भांप गया। माफी मांगी। सारे स्टाफ ने बीजी की हिम्मत की तालियां बजा कर दाद दी। 

इतना सब कुछ धाराप्रवाह बोलने के बाद कीते ने मामूली सांस लिया। बाबू जी ने इस अल्पविराम का फायदा उठाया। अपनी भारी भरकम आवाज में कुछ ठहराव लाते हुए, बुजुर्गवार अंदाजमें समझाने की आखिरी कोशिश की, “देखो कीते, वो जमाना और था... आज माहौल अलग है...तब लोगों में सब्र था, समझदारी थी...आज जिस तरह का पागलपन लोगों में है, उसको हमने अपनी आंखों से पार्टिशन के वक्‍त देखा है।‘ कीता बहस को उस ओर नहीं ले जाना चाहता था जहां वह हलका पड़े। इसलिए एक गंभीर प्रश्न पूछा, 'क्या यह अधिकार मां बाप को है कि वे अपनी औलाद का धर्म बदल दें...उसे दूसरे मज़हब में रहने के लिए मजबूर कर दें? जब डॉक्टरी के लिए यूपीएससी के इंटरव्यू में गया तो पहला सवाल था गुरुकीरत सिंह सन ऑफ रामचंद अरोड़ा। यू आर ए सिख फ्राम हिंदू पेरेंट्स! इस सवाल का जवाब मैं जिंदगी भर देने के लिए मजबूर हूं!’ 

‘क्‍या मुश्किल है?’ मामा जी ने सरलता से कहा..‘बता दो कि पहले हिंदू परिवारों में सिख बेटे बनाए जाते थे। लो एक लाइन का जवाब है।'

केश कटवाना मेरे लिए ऐसे है जैसे अपना वजूद खोना। मुझे सिख मेरी मर्जी के बगैर बनाया गया। हिंदू मां-बाप का ऐसा करना कानूनन ठीक था या गलत मैं नहीं कह सकता। इतना ज़रूर कहूंगा कि अब मेरी मर्जी के बगैर मुझे धर्म बदलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता ।

‘आपके लिए एक लाइन है मेरे लिए एक लाइफ ...पगड़ी मेरी पर्सनालेटी का हिस्सा है...दाढ़ी भी...प्री मेडीकल के बाद तो मुझे अमृत छका कर किरपाण भी दे दी गई है। वो दूसरी बात है कि मैं लटकाता नहीं। हर काम की शुरुआत मैं 'सतनाम” कहकर करता हूं और आप कहते हैं कोई बात है ही नहीं इतना कुछ कहने के बाद कीते के आखिरी वाक्य ने सबको सुन्न कर दिया।

‘केश कटवाना मेरे लिए ऐसे है जैसे अपना वजूद खोना। मुझे सिख मेरी मर्जी के बगैर बनाया गया। हिंदू मां-बाप का ऐसा करना कानूनन ठीक था या गलत मैं नहीं कह सकता। इतना ज़रूर कहूंगा कि अब मेरी मर्जी के बगैर मुझे धर्म बदलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता । सिखिज्म इज माई लाइफ।‘

मामाजी ने कैंची बैग में वापस रखली। उठने की कोशिश कर ही रहे थे कि बीजी ने अपने भरे गले से जय को इशारा करते हुए कहा, “रोटी सब्ज़ी है मेरे थैले में, निकाल दे...मैं गर्म कर देती हूं।‘ 

जय किचन की ओर बढ़ा। बाबू जी टायलेट चले गए। मामाजी ने अपना बैग कोने में रखा। फिर कुर्सी पर आकर बैठ गए। कीता भी बैठ गया। बीजी ने कीते की पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया ‘वाहे गुरु रक्षा करेंगे...सतनाम... सतनाम।’

थोडी देर चुप रहने के बाद बीजी ने मायूसी भरी मासूमियत से गिला किया...‘कीते बेटा, तू तो ऐसे गुस्से हो रहा है जैसे मैंने तुझे मुसलमान या ईसाई बना दिया था।’

कीते ने कोई जवाब नहीं दिया। बीजी को भी जवाब की उम्मीद नहीं थी। थोड़ी देर बाद सबके हाथों में खाने की प्लेट थी। प्लेट में क्या था शायद किसी को पता नहीं था। हाथ मुंह तक जा रहे थे। मुंह अपने आप हिल रहे थे...जैसे मौन धारण कर लिया हो सबने।

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