तीन तलाक के बाद अब तलाक-ए-हसन को हटाने की बार!(Image:VOA)  
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तीन तलाक के बाद अब तलाक-ए-हसन को हटाने की बारी !

Lakshya Gupta

तीन तलाक(Triple Talaq) यानी तलाक-ए-बिद्दत को देश की शीर्ष अदालत ने असंवैधानिक करार करने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर 'तलाक-ए-हसन'(Talaq-e-Hasan ) के अन्य सभी रूपों को अमान्य और असंवैधानिक घोषित करने मांग की गई है। यह याचिका गाजियाबाद की रहने वाली महिला बेनजीर हिना की तरफ से दायर की गई है। जानते हैं कि आखिर क्या है तलाक-ए-हसन ?

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई याचिका [pixabay]
क्या है तलाक-ए-हसन(Talaq-e-Hasan)?

'तलाक-ए-हसन'(Talaq-e-Hasan ) में तीन महीने की अवधि में हर महीने में एक बार तलाक कहा जाता है। तीसरे महीने में तीसरी बार 'तलाक' कहने के बाद तलाक को औपचारिक रूप दिया जाता है। तीसरी बार तलाक कहने से पहले तक शादी पूरी तरह से लागू रहती है लेकिन तीसरी बार तलाक कहते ही शादी तुरंत खत्म हो जाती है।

इस तलाक के बाद भी पति-पत्नी दोबारा निकाह कर सकते हैं, लेकिन गौर करने की बात यह है है कि निकाह करने के लिए पत्नी को हलाला से गुजरना पड़ता है। हलाला से आशय महिला को दूसरे शख्स से शादी के बाद उससे तलाक लेना पड़ता है।

क्या है तलाक-ए-अहसन?

इस्लाम में तलाक देने के प्रमुख तरीकों में से एक तलाक-ए-अहसन होता है। तलाक-ए-अहसन में तीन महीने के भीतर तलाक दिया जाता है। इसमें तलाक-ए-बिद्दत(Triple Talaq) की तरह तीन बार तलाक बोलाना जरूरी नहीं होता है। इसमें एक बार तलाक कहने के बाद पति-पत्नी साथ में तीन महीने तक रह सकते हैं।

तीन महीने के अंदर अगर दोनों में सहमति बन जाती है तो तलाक नहीं होता है। पति चाहे तो तीन महीने के भीतर तलाक वापस ले सकता है। सहमति नहीं होने की स्थिति में महिला का तलाक हो जाता है। आपको बता दें, तलाक के बाद पति-पत्नी चाहें तो दोबारा निकाह कर सकते हैं।

क्या कहा गया है याचिका में?

सुप्रीम कोर्ट में तलाक-ए-हसन(Talaq-e-Hasan) को लेकर दायर याचिका के मुताबिक तलाक-ए-हसन और न्यायेतर तलाक के अन्य रूपों को असंवैधानिक करार कर दिया जाए। याचिकाकर्ता के वकील अश्विनी कुमार के जरिये याचिका में कहा गया है, 'मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, एक गलत धारणा व्यक्त करता है कि कानून तलाक-ए-हसन और एकतरफा न्यायेतर तलाक के अन्य सभी रूपों को प्रतिबंधित करता है।

साथ ही साथ याचिका में ये भी कहा गया है कि यह विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों के लिए बेहद हानिकारक है। साथ ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 और नागरिक तथा मानवाधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय नियमों (कन्वेंशन) का उल्लंघन करता है।

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